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________________ समझ उन्नत दशा की शष्टावक्र-गीता के माध्यम से हम सभी अंतर्जगत की गहराई में उतरते जा जरहे हैं। इस संपूर्ण आत्म-संवाद की पृष्ठभूमि मात्र यही है कि मनुष्य के लोकचक्र में धर्मचक्र का प्रवर्तन हो। इसके लिए अष्टावक्र आत्मज्ञान को जीवन और अध्यात्म-दर्शन की धुरी बनाना चाहते हैं। मनुष्य के पास जो कुछ है, मनुष्य को उससे परिचित होना चाहिए। अच्छा है, तो अच्छे से और बुरा है, तो बुरे से। अच्छे को अच्छा जाने बगैर उसके प्रति बढ़ चलना आदमी की रूढ़ता है और बुरे को जाने बिना उससे परहेज रखने की सोचना आदमी के अंध-विश्वास को प्रोत्साहन है। __ मनुष्य को यह पूरा-पूरा अधिकार है कि वह अपनी हर अच्छी-बुरी संभावना से परिचित हो और दोनों को जान लेने के बाद जो श्रेयस्कर लगे, उसे जीवन में स्वीकार करे। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या पहलू के हम जितने करीब जाएंगे, सत्य को उतनी ही बारीकी और नजदीकी से समझ पाएंगे। अगर रात के अंधेरे में रस्सी को सांप समझकर दौड़ते रहोगे, तो ऐसी भ्रांतियां होती रहेंगी कि व्यक्ति या तो संसार से भागना चाहेगा या संसार का दमन करना चाहेगा। जीवन के लोकचक्र में धर्मचक्र के प्रवर्तन का अर्थ यह होता है कि व्यक्ति न तो पलायन कर रहा है और न ही अपनी लोकभावना को दबाने की कोशिश में है। किसी भी पहलू को आदमी समझ ले, तो वह सत्य को पा लेता है, करीब से समझना ही सत्य को समझने का सूत्र है। महर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक जीवन के एक-एक पहलू से अंतर-साधक को परिचित करवाना चाहते हैं और यह बताना चाहते हैं कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी अनुचित है, तो तुम अनुचित को उसी रूप में जानो, भागो मत। न तुम भागो, न भोगो, केवल जागो। भाग जाना कायरता है और भोग लेना नासमझी है। तुम जागो, साक्षी बनो। अपनी आत्मबोधि के आधार पर जीवन के मार्गों को पार करो। मनुष्य के पास जितनी अच्छाइयां हैं, उतनी ही बुराइयां भी हैं। मनुष्य की जिस अंतस्-चेतना में प्रेम और शांति के सरोवर हैं; आनंद और मुस्कान के निर्झर हैं; क्षमा और करुणा का आकाश बरसता है, वहीं पर क्रोध और आक्रोश के कांटे 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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