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________________ जिसने जाना है कि ‘नहीं है कुछ भी उस व्यक्ति का क्या अपना कोई दृष्टिकोण, अपना कोई आग्रह और दुराग्रह रहता है ? क्या उसकी कोई आसक्ति और मूर्च्छा बनी हुई रहती है? क्या वह आदमी कुछ 'प्राप्त' करने के लिए तृष्णातुर रहता है ? जनक कहते हैं कि यहां सब कुछ क्षणभंगुर और अनित्य है । सब कुछ बदल रहा है। लगता है कि हर चीज यहां पर मौजूद है, हर चीज यहां पर स्थिर है, लेकिन यह दृष्टि का भ्रम है कि आदमी को हर चीज स्थिर दिखाई देती है, पर वास्तविकता यह है कि दुनिया में, ब्रह्मांड में कोई भी वस्तु, कोई भी व्यक्ति, कोई भी पर्याय अपने आप में स्थिर नहीं है । बदल रहा है सब कुछ। व्यक्ति है, तो व्यक्ति बदल रहा है; महल खंडहर बन जाते हैं और खंडहर महल बन जाते हैं; श्मशान शहर बन जाते हैं और शहर श्मशान बन जाते हैं । सब कुछ अनित्य है, परिवर्तनशील है। दुनिया के दलदल में आदमी कीचड़ के कीड़े की तरह खो गया है । वह कीड़ा अगर कभी कीचड़ से बाहर खुले आकाश की ओर झांक भी ले, तो भयभीत हो जाता है। वह फिर कीचड़ में चला जाता है। कीचड़ का अपना रस है, अपना मजा है। काम कीचड़ ही तो है । जनक तो अपनी खुली आंखों से देख रहे हैं कि यहां तो कुछ भी नहीं है। यहां आदमी मुसाफिर की तरह आता है और चला जाता है । I जिसने जान लिया है कि संसार में कुछ नहीं है, उस व्यक्ति के चित्त में स्थिरता आ जाती है। ऐसी स्थिरता, जिसको जनक स्वास्थ्य की संज्ञा देते हैं । स्वास्थ्य का अर्थ होता है - स्वस्थ होना, स्वयं में स्थित होना । जो स्वयं में स्थित है, उसके आनंद का मुकाबला नहीं। कोपीन धारण करने वाले को भी वैसी तृप्ति और संतुष्टि नहीं मिलती । केवल संन्यास का वेश अंगीकार कर लेने भर से, जनेऊ धारण कर लेने भर से, मौलवी या पादरी का वेश धारण कर लेने भर से वह शांति, वह तृप्ति नहीं आ सकती। वे कहते रहते हैं कि 'दुनिया में कुछ भी नहीं है', फिर भी अपने लिए इंतजाम करते रहते हैं; अपने लिए मठ बनाते हैं, मंदिर बनाते हैं, धामों का निर्माण करते हैं । बनाने के फेर में स्वयं आदमी 'बनता' चला जाता है, वह स्वयं के साथ ही प्रवचना करता है, लेकिन स्मरण रहे, जो अपने मन का मालिक है, वह संन्यस्त है और जिसका मन मालिक हो चुका है, वह व्यक्ति गृहस्थ है; जिसका मन स्थिर है, वह संन्यस्त है और जो चंचल मन का है, वह गृहस्थ है। अष्टावक्र चाहते हैं कि व्यक्ति घर में रहे, साम्राज्य का संचालन करता रहे, मगर फिर भी वह प्रकृति से निर्लिप्त हो जाए; मन के होते हुए भी अमन की स्थिति में पहुंच जाए। इसीलिए वे कहते हैं कि मैं त्याग और ग्रहण - दोनों से ही Jain Education International 99 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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