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________________ मोक्ष की साधना के मार्ग पर चल पड़ता है, तो देवेन्द्र का आसन कंपित हो जाता है । वह भेज ही देता है किसी मेनका को कि जाओ और उसे रोको, जो आत्मज्ञान के रास्ते पर निकल पड़ा है। अगर वह स्वर्ग के सिंहासन की तरफ बढ़ रहा है, तो उसे डिगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस, वह आत्मबोधि उपलब्ध नहीं कर पाए । मोह विगलित हो गया; मलीन मूर्च्छा ध्वस्त हो गई, मन में उठने वाली विषय-वासनाओं की तरंगें पूरी तरह से शांत हो गईं । जनक की स्थिति निष्कंप जलते हुए दीपक-सी हो गई। तभी तो वे घोषणा करते हैं कि मेरा मोह विगलित हो गया; आज सारा संसार ही मेरा हो गया । अगर तुम मानते हो कि संसार का कोई अस्तित्व है, तो सारा संसार तुम्हारा है और अगर मानते हो कि सारा संसार क्षण-भंगुर है, तो यहां कुछ भी नहीं है । जनक विचार करते हैं, अब यह शरीर ही नहीं, वरन् स्वर्ग और नरक, बंध और मोक्ष - ये सब मुझे कल्पनाएं लगती हैं। मुझ चैतन्य आत्मा को अब स्वर्ग और नरक से क्या प्रयोजन ! जो आदमी स्वर्ग और नरक दोनों के भाव से मुक्त हो चुका है, उसे अगर नरक में भी ढकेल दिया जाए, तो वह नरक को भी स्वर्ग बना देगा | जीवन को अगर स्वर्ग बनाने की कला नहीं आती, तो वह स्वर्ग को भी नरक का रूप दे बैठेगा। जीवन के उत्थान की रोशनी मिल जाए, तो चाहे नरक भी हमारे द्वार पर स्वागत करने को आए, हम नरक के सलीब को भी स्वर्ग का सिंहासन बनाने का उपक्रम कर लेंगे। साक्षी-भाव सघन हो चुका है, आत्मज्ञान की रोशनी घनीभूत हो गई है। ऐसे में जनक अपने भीतर उठ रही तरंगों को स्पष्टतः देख रहे हैं। वे तरंगें अपने स्वभाव में स्वतः विलीन हो रही हैं । साक्षित्व का सूरज उग आए, तो मन में चाहे जैसे धर्म-विधर्म उठें, व्यक्ति उन सबसे अलग, उन सबसे निस्पृह रहता है । तब व्यक्ति भोग के द्वार से गुजरकर आए, तो भी वैसी ही निर्लिप्तता बनी रहती है। आज जब आत्मज्ञान का अहोभाव बरस रहा है, तो केवल यही इच्छा नहीं होती कि उस परमात्मा को धन्यवाद दें अथवा अष्टावक्र को प्रणाम करें, जिसके सान्निध्य से आत्मज्ञान उपलब्ध हुआ, वरन् आज तो स्वयं को प्रणाम करने की इच्छा हो रही है । निःसंदेह हमें औरों के द्वारा मिलने वाले सहयोग के कारण उनके प्रति आभारी होना चाहिए, लेकिन आज तो धन्यवाद हम अपने आपको देंगे कि जो अब तक असंभव लगता था, आज वह संभव हुआ। यह केवल परमात्मा की अनुकंपा या अष्टावक्र के ज्ञान-संदेश के कारण ही नहीं, स्वयं की पात्रता की बदौलत भी मुमकिन हुआ। अगर इस मंदिर में कोई पूजा करने वाला न आए, तो मंदिर का क्या मूल्य होगा? आज तो स्वयं को प्रणाम है, क्योंकि आज जाना मैं कौन हूं? " 34 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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