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कहा जाता है, जब संत होशीन मृत्यु- शय्या पर पड़े थे, तो उनके एक शिष्य ने कहा- गुरुवर, आप हमें एक जवाब देते जाइए। यह जवाब ही हमारा मार्गदर्शक होगा। होशीन ने कहा - पूछो, क्या पूछना चाहते हो ? शिष्यों ने कहा- आप कौन हैं? आप मूलतः कहां से आए हैं? तब होशीन ने जो जवाब दिया वह स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। संत होशीन ने कहा कि मैं एक अद्भुत दैदीप्यमान लोक से आया हूं, यही मेरा परिचय है । शिष्यों ने पूछा-भगवन, आप यहां से जाएंगे कहां? होशीन मुस्कराए और कहा - मैं जिस दैदीप्यमान लोक से आया हूं, वहीं लौट रहा हूं। शिष्य ने कहा- भगवन, मैं आपका आशय नहीं समझ पाया । आप क्या कहना चाहते हैं? जवाब देने के लिए तब तक गुरु नहीं रुके। उनके प्राण पखेरू उड़ गए। वे दैदीप्यमान लोक की यात्रा पर निकल पड़े।
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संत होशीन का शिष्य जीवन-भर उस पहेली को नहीं समझ पाया । शायद आपके लिए भी यह एक अबूझ पहेली ही हो । होशीन जीवन के यथार्थ को ही स्पर्श कर रहे थे। उनके कहने का आशय यही था कि तुम्हें दैदीप्यता में ही अपनी पहचान करनी है । अष्टावक्र आज एक नई व्यवस्था देना चाहते हैं । वे आत्मज्ञानी को भीतर से टटोल लेना चाहते हैं कि आत्मज्ञान उपलब्ध होने के बाद भी उसके भीतर कहीं जन्म-जन्म का कालुष्य बचा हुआ तो नहीं है, आसक्ति का अवशेष तो नहीं है। तब अष्टावक्र जनक से सवाल करते हैं। सूत्र है
अविनाशिनमात्मानम्, एकं विज्ञाय तत्त्वतः । तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ॥
अष्टावक्र कहते हैं- आत्मा को तत्त्वतः एक और अविनाशी जानकर भी तुझ आत्मज्ञानी धीर को धन के अर्जन में क्यों आसक्ति है?
अष्टावक्र देखना चाहते हैं कि जनक के भीतर कहीं सांसारिक वृत्तियों-मोह, माया, वासना आदि की कोई दबी हुई चिंगारी तो नहीं है । जनक से पूछते हैं-जनक, आत्मा को एक ओर अविनाशी जानने के बाद भी तुम्हारे भीतर धन के अर्जन की आसक्ति है।
‘आत्मा को एक ओर अविनाशी जानकर' यही तो एकमात्र ऐसा तत्त्व है, जो अनेक के बीच भी एकता को स्थापित करता है। यही तो वह तत्त्व है, जो व्यक्ति को यह बोध करवाता है कि जहां एक है, वहां सब है, लेकिन जहां सब हैं, वहां एक नहीं है, वहां कुछ भी नहीं है । इसी कारण महावीर ने कहा था- जो एक को जान लेता है, वह सबको जान लेता है, लेकिन जो एक से अनभिज्ञ रह जाता है, वह सबसे ही अनभिज्ञ रह जाता है ।
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