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________________ है। जैसे पतझड़ आने पर पीले-पीले पत्ते अपने आप झड़ जाते हैं, वैसे ही आदमी के संस्कारों के बंधन, कर्म-प्रकृतियों के बंधन अपने आप छिटक जाते हैं। न आदमी भोग करके पार लग सका है, न त्याग करके पार लग पाया है। अगर भोगने को ही मुक्ति का उपाय समझ लिया जाए, तो एक बात की आशंका हमेशा बनी रहती है कि आदमी अगली मर्तबा इस भोग से अपने आपको कैसे बचा पाएगा? वह आदमी फिर-फिर उसी खुजली को खुजलाना चाहेगा, उसी गलती को दोहराना चाहेगा। अगर आदमी त्याग के मार्ग को पकड़ लेगा, तो नतीजा यह होगा कि त्याग तो बाहर से हो जाएगा, मगर मन की पकड़ उससे अलग नहीं हो पाएगी। त्याग तब तक त्याग होता ही नहीं है, जब तक भीतर से पकड़ न छूटे। पकड़ के छूट जाने का नाम ही त्याग है। यही अनासक्ति है, अपरिग्रह है, मूर्छा का विलीनीकरण है। जहां पकड़ है, वहीं बंधन है। कहते हैं-बायजीद अपने शिष्यों के साथ रास्ते से गुजर रहे थे कि तभी देखा एक व्यक्ति अपने बैल की रस्सी थामे उसके आगे-आगे चल रहा था। बायजीद ने अपने शिष्यों से कहा-बताओ, बैल और इस व्यक्ति में से मालिक कौन है ? शिष्य बायजीद के प्रश्न को सुनकर चौंके । चौंकना स्वाभाविक था, क्योंकि किसान ही बैल का मालिक था। शिष्यों ने कहा-गुरुवर, आप यह क्या पूछ रहे हैं? सीधी-सादी बात है कि इनमें किसान ही बैल का मालिक है, क्योंकि जो जिसके आगे चले, वह उसी का मालिक। शायद बायजीद यही सुनना चाहते थे। उन्होंने झट से चाकू उठाया और रस्सी को काट दिया। रस्सी के कटते ही बैल दौड़ने लगा, पीछे-पीछे आदमी भागने लगा। बायजीद ने कहा-बताओ, अब कौन-किसका मालिक है? शिष्य मुस्करा दिए। अगर तुम विषयों के पीछे चलते हो, तो तुम्हारे मालिक विषय हो गए और जहां विषय तुम्हारे पीछे चलें, तो तुम विषयों के मालिक हो गए। जहां विषयों के अधीन हम हुए, वहां आत्मा खो गई और जहां विषय हमारे अधीन हुए, वहां व्यक्ति आत्मवान हुआ। अष्टावक्र का इतना ही सार-संदेश है कि हर व्यक्ति आत्मवान बने। अष्टावक्र आत्मवान होने का छोटा-सा सूत्र देना चाहते हैं कि अपनी इंद्रियों को अपने अधीन रखो। ऐसा नहीं कि इंद्रियों के अधीन तुम हो जाओ। किसी ने अगर कड़वा शब्द कह दिया, तो इतनी मिलकियत रखो कि उसको हजम कर सको । अगर खाने में सब्जी कड़वी आ गई है, तो अपनी इंद्रियों पर इतना स्वामित्व रखो कि उस सब्जी को आप बड़े प्रेम और आदर के साथ स्वीकार कर सको। छोटी-सी उपेक्षा तो हमसे सहन होती नहीं है और सोचते हैं मीरां की तरह जहर तक का प्याला पी लेंगे, अपनी इंद्रियों को, अपने कषायों को जीतो । यही विजय परम विजय कहलाएगी। 60 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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