SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में आग लग चुकी है, दौड़ो-दौड़ो! यह सुनते ही सारे लोग दौड़ पड़े। संत भी दौड़े, गृहस्थ भी दौड़े, सभी दौड़े, पर याज्ञवल्क्य और जनक टस से मस नहीं हुए। उनको देखकर लगता था कि कुछ हुआ ही नहीं। याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा-जनक, तुम मिथिलानगरी की तरफ क्यों नहीं जाते? तुम्हारे भी महल जल रहे होंगे; सारी संपत्ति स्वाहा हो रही होगी। जनक मुस्कराए और कहा-भंते, जहां जाकर मैं स्थित हूं, वहां न कोई आग है और न उसे बुझाने का कोई प्रयत्न है। यह मिथिलानगरी जलती है, तो इसमें मेरा क्या जलता है? जहां इतनी गहरी सोच है, वहां निस्संदेह द्रष्टा-भाव है। इस भाव में जीने वाला व्यक्ति तो कहेगा कि चित्त में विकार की तरंग उठती है, तो उठती है, इसमें मेरा क्या जाता है, इस शरीर में भोग की कोई कामना जगती है, तो जगती है, यह शरीर का धर्म है। मैं थोड़े ही कामोत्तेजित होता हूं, मैं थोड़े ही विकृत होता हूं। जहां आदमी संसार से, शरीर से, विचारों से, मन से स्वयं को अलग रखता है, अलग देखता है, अलग जानता है, वह व्यक्ति संसार में सदा आत्मज्ञानी की तरह, अद्वैत आत्मा की तरह जीता है। वह आनंद के संसार में जीता है, जहां न जन्म है, न मृत्यु है, जहां व्यक्ति स्वयं है। अगला सूत्र है नात्मा भावेषु नो भावः तत्रानन्ते निरंजने। इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त, एतदेवाहमास्थितः ॥ जनक कहते हैं-आत्मा विषयों में नहीं है और विषय आत्मा में नहीं हैं। इस प्रकार मैं अनासक्त हूं, स्पृहामुक्त हूं और इसी अवस्था में स्थित हूं। जनक अपने गुरु को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि मनुष्य अगर वासनाओं, विकारों, विषयों में अपने आत्मिक सुखों की तलाश करता है, तो यह कदम ही गलत राह पर है विषयों में आत्मा नहीं है और आत्मा में विषय नहीं हैं। जहां मैं हूं, वहां शरीर नहीं है और जहां शरीर है, वहां मैं नहीं हूं। जिस साधक को इस बात का बोध हो चुका है, उसके लिए तो चाहे स्वभाव में जगत की तरंग उठे या मिटे, उसे कोई प्रयोजन नहीं। वह तो चैतन्य में विश्राम करता है। किसी भी बात में उसका हस्तक्षेप नहीं। उसने तो अपनी नौका के लंगर खोल दिए हैं। वह कहता है कि अब नौका जिधर ले जाना चाहे, ले जाए। मैं तो हवा के झोंकों और नियति की अनंत रेखाओं के उद्यम का साथी भर हूं। स्थितप्रज्ञ आदमी कहता है कि चित्त के धर्म जहां जाना चाहते हैं, वहां जाएं, मैं थोड़े ही जाता हूं। जहां आदमी होनी में हस्तक्षेप नहीं करता, वहीं नियति का अमृत-प्रसाद, नियति के आशीष उस पर बरसते हैं; उसके कर्मों की निर्जरा होती 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy