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________________ तुम अपने चैतन्य में विश्राम करो, यही ज्ञान है, यही मुक्ति और निर्वाण है। ऊपर-ऊपर धर्म का दिखावा और भीतर में अधर्म का पोषण न हो। बाहर हो सौंदर्य, शीतलता, पर भीतर हो दाहकता, भीतर जलती हो अंगीठी, तो जीवन विरोधाभासमय कहलाएगा। __ मुझे याद है-एक व्यक्ति गुरु की तलाश में ठेठ हिमालय की कंदराओं तक पहुंचा। उसने एक वीतराग' संत की तलाश की। उसने सोचा कि यह मेरा गुरु होने के काबिल है अथवा नहीं, यह भी तो परख लूं । उसने कहा-भगवन्, मैं नीचे तलहटी से यहां आया हूं। मुझे बहुत ठंड लग रही है। आप थोड़ी-सी आग मुझे प्रदान कर दीजिए। संत ने कहा-हम लोग आग नहीं रखते, हमारे पास आग नहीं है। व्यक्ति ने कहा-भगवन्, ज्यादा नहीं, थोड़ी-सी आग दे दो। संत ने पुनः वही बात दोहराई। आदमी ने फिर आग मांगी। संत झुंझला उठा। संत ने कहा-तू कब से आग-आग चिल्ला रहा है। अगर इतनी ही आग चाहिए, तो अभिशाप दे दूंगा। आग में झुलसते रहना। संत की बात सुनकर आदमी व्यंग्यपूर्वक मुस्कराया। उसने कहा-संतप्रवर, आप कहते हैं कि मेरे पास आग नहीं है, तो फिर ये चिंगारियां कहां से आ रही हैं? संत ने पूछा-कौन-सी चिंगारियां ? व्यक्ति ने कहा-आपकी झंझलाहट, आपका क्रोध, ये ही तो आग की चिंगारियां हैं। हिमालय में आकर बैठ गए, साधु हो गए, तो क्या हुआ, साधुता नहीं आई। जनक अष्टावक्र से इतना ही निवेदन करना चाहते हैं कि मैं चैतन्य में स्थित हूं, चैतन्य में विश्राम कर रहा हूं। चाहे स्वभाव में जगत बने या मिटे, इससे मुझे न तो हानि है, न लाभ है। मैं तो हर जलन से, हर आग से अतीत, सदा-सर्वदा मुक्त और आत्मस्थित हूं। अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत्। अतो मम कथं कुत्र, हेयोपादयेकल्पना ॥ अहो, मैं चैतन्यमात्र हूं, संसार इंद्रजाल की भांति है। तब मेरी हेय और उपादेय की कल्पना किसमें हो? अहो चिन्मात्रं! केवल इतना ही बोध पर्याप्त है। मैं तो केवल साक्षी चैतन्य मात्र हूं, इस तथ्य का सतत स्मरण और बोध बनाए रखना ही ध्यान है, मुक्ति है। अष्टावक्र सीधा हमें चैतन्य-बोध से भर रहे हैं। वे नकार नहीं रहे, वे स्वीकार को महत्त्व दे रहे हैं। वे यह नहीं कहते कि मैं देह नहीं हूं, विचार या मन नहीं हूं; मैं बस, चैतन्य हूं, यह बोध और स्वीकार ही मूल्यवान है। __ शुरुआत है 'अहो' से, आश्चर्य से, आनंद से। मैं चैतन्य मात्र हूं, अहो! आज मैंने जाना सद्गुरु तुम्हारी सन्निधि से कि मैं तो चैतन्य मात्र हूं। मुझे आश्चर्य 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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