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________________ गए, तो ये सब जाएंगे कहां? क्या स्वर्ग और उसके ऊपर का लोक उनके लिए छोटा नहीं पड़ जाएगा? महावीर ने कहा-ब्राह्मण, मैं तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का समाधान दूंगा, मगर उससे पहले तुम्हें मेरा एक काम करना होगा। तुम्हें आज सारे शहर में जाकर यह कहना होगा कि भगवान सबकी इच्छा पूरी करेंगे, जिसकी जो इच्छा हो, उसको कागज पर लिखकर दे दे। भगवान के आदेश की पालना के लिए ब्राह्मण पूरे शहर में घूमा और सांझ को उनके पास पहुंचा। वह सारी-की-सारी सूची भगवान को पढ़कर सुनाने लगा कि अमुक आदमी की मकान की अभिलाषा है, अमुक ने पुत्र मांगा है। उसने पूरी फेहरिस्त सुना दी। मगर आश्चर्य! एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने मुक्ति मांगी हो। __ आदमी को मुक्ति की दरकार नहीं है। पिंजरे का पंछी पिंजरे में रहने का आदी हो चुका है। उसे उड़ने के लिए बाहर निकालो, तो वह और ज्यादा सिमटने लगता है। तुम आदमी को ज्यों-ज्यों विषयों से मुक्त करने के उपदेश देते रहोगे, वह उतना ही उनके प्रति आसक्त होता चला जाएगा। यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो अप्टावक्र के अनुसार पहली शर्त यही है कि बस, सावचेत हो विपयों से। विषय का ही संक्षिप्त रूप विप है और विष का ही विस्तृत रूप विषय है। विप से ही विषय बना है। जो आदमी दिन-रात, थोड़े-थोड़े घूट ही सही विषयों को पी रहा है, वह विष-पान ही कर रहा है। अगर तुम मोक्ष चाहते हो, तो विषयों को विप समझकर त्याग दो और मुमुक्षा को जाग्रत करो। मुमुक्षा शब्द से ही मोक्ष निर्मित हुआ। मुमुक्षा अगर नींव है, तो मोक्ष उसका आकाश है। मोक्ष को उपलब्ध करना हो, तो मुमुक्षा से जुड़ना होगा। उस चिंतन और मनन के लिए, जिसका संबंध आत्मवोध, आत्मज्ञान और संबोधि के साथ है, उस मुमुक्षा को गहरा करें। भोगों के प्रति रहने वाली आसक्ति का त्याग ही वैराग्य है। अष्टावक्र ने पांच सोपान बताए हैं-क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य । पहला सोपान है क्षमा-क्षमा अमृत है और क्रोध विप है; दूसरा सोपान है आर्जव अर्थात सरलता-सरलता अमृत है. कुटिलता विप है; तीसरा सोपान है दया-दया अमृत है, तो क्रूरता विष है; चौथा सोपान है संतोष-संतोप अमृत है, तो संग्रह विप; पांचवां सोपान है सत्य-सत्य अमृत है, तो झूठ विप है। क्रोध, कुटिलता, क्रूरता, संग्रह और झूठ-ये तुम्हारे जहर हैं। ये पांच जहर पीने का अभ्यास छोड़ो और अमृत का सेवन करो। अगर तुम अमृत होना चाहते हो, चिन्मय होना चाहते हो, तो मृण्मय से बाहर आओ; अगर ज्योति होना चाहते हो, तो दीये के मोह को छोड़ो; जिसकी दृष्टि दीये पर अटक गई, वह मिट्टी था और मिट्टी हो गया और जिसकी दृष्टि लो पर जाकर टिक गई, वह स्वयं ज्योतिर्मय हो गया। 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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