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________________ मेरी साधे अभिशापित हैं, यदि तुम छू दो तो पावन हो ॥ यदि तुम वीणा के तार कसो, यह गायक मन गंधर्व बने। तुम ही यदि साथ रहो तो फिर, हर पल जीवन का पर्व बने। हर आह मधुरतम गायन हो, हर आंसू फिर मधु का कण हो ॥ मेरा तो जीवन मरुथल है, यदि तुम आओ तो सावन हो ॥ काश, तुम्हारा स्नेह मिल जाए, तुम्हारा संस्पर्श मिल जाए, तो लोहा फिर लोहा कहां रहेगा! लोहा पारस को छूकर सोना बनेगा ही। अतीत में कोई जनक कंचन हुआ, आज फिर स्वर्णिम प्रभात हो। आज फिर अंतर-शून्य में कोई गंधर्व-गीत फूटे। कोई विहग उड़ान भरे। अष्टावक्र-गीता आत्मज्ञान से निर्झरित ऐसा ही कोई गीत है, अमृत का मंगल कलश है। हमें उन्मुक्त हृदय से इसे पीना है, जीना है, घट-घट में व्याप्त महागीता को जन्म देना है। अब हम उतरते हैं अष्टावक्र-गीता में। आज का पहला सूत्र है मुक्तिमिच्छसि चेत्तात, विषयान् विषवत्त्यज । क्षमा वदयातोषं, सत्यं पीयूषवद् भज ॥ मेरे प्रिय, यदि तू मुक्ति चाहता है, तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष तथा सत्य को अमृत के समान सेवन कर। अष्टावक्र हर धार्मिक व्यक्ति को पहली चुनौती यह दे रहे हैं कि यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो इसकी ठोस पड़ताल कर लो। तुम सचमुच मुक्ति की आकांक्षा रखते हो अथवा तुम्हारी कामना सतही है। ऊपर-ऊपर ही मुक्ति की बातें करते हो, तो नतीजा वही होगा, जो उस हाथी का होता है, जो रोज-ब-रोज तालाब में जाकर स्नान करता है, मगर अपने संस्कारों के कारण जैसे ही वह पानी से बाहर आता है, अपनी ही सूंड से अपनी ही पीठ पर मिट्टी डालने लग जाता है। इसलिए अपने आप से पहले ईमानदारी से पूछ लेना कि 'क्या मैं मुक्ति चाहता हूं?' कहते हैं- भगवान महावीर के पास एक ब्राह्मण पहुंचा। उसने कहा-प्रभु, आप सब जीवों को मुक्ति और मोक्ष की प्रेरणा देते हैं। यदि सारे जीव मुक्त हो 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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