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अष्टावक्र-गीता सत्य का अद्भुत शास्त्र है। सत्य का शुद्धतम वक्तव्य! सत्य और अध्यात्म का ऐसा नवनीत और कहां मिलेगा। ऐसा संवादमूलक, इतना प्रैक्टिकल सत्य का शास्त्र! पढ़ने-सुनने मात्र से सत्य की गहराई तक ले जाता है। इसने सत्य के सर्वोच्च शिखर को छुआ है। अंतरात्मा के मानसरोवर में जी भर स्नान करवाया है। सबके बीच रहते हुए, सबके साथ जीते हुए सबसे उपरत होने का राजमार्ग दिया है। यहां केवल बोध पर्याप्त है। भोग बाधक है, पर भोग अबोध-दशा के कारण होता है। बोध जग जाए, तो भोग भी योग का सेतु बन सकता है।
अष्टावक्र-गीता को तर्क से नहीं समझा जा सकता। आत्म-दृष्टि हो, मुक्ति की वास्तव में ही मुमुक्षा हो, तो ही अष्टावक्र-गीता हमारी जीवन-गीता बन पाएगी। बीज आत्म-दृष्टि है, बीज मुक्ति की मुमुक्षा है। जैसा बीज होगा, तरुवर वैसा ही फलेगा। इस महागीता के सूत्र तो हमारे लिए नौका की तरह हैं, जो पार लगाते हैं हमें अज्ञान से। ज्ञान-दशा तो चेतना का स्वभाव है। बस, केवल अज्ञान का कोहरा छंट जाए, अज्ञान की कारा कट जाए। जनक-सी मुमुक्षा जग जाए।
मेरा तो जीवन मरुथल है, यदि तुम आओ तो सावन हो।। ऐसा रूठा मधुमास कि फिर आने का नाम नहीं लेता। ऐसा भटका है प्यासा मन, क्षण-भर विश्राम नहीं लेता। मेरा तो लक्ष्य अदेखा है, तुम साथ चलो तो दर्शन हो ॥ अब तुम न तुम्हारी आहट कुछ, शकुनों की घड़ियां बीत चलीं। त्योहार प्रणय का सूना है, फुलझड़ियां हैं सब रीत चलीं। मेरा तो यज्ञ अधूरा है, तुम साथ चलो तो पूजन हो । उलझी अलकें, भीगी पलकें, खो बैठा है परिचय मेरा। शंका से देख रही दुनिया, क्षण-क्षण, जीवन-अभिनय मेरा।
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