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अष्टावक्र का जवाब राजा जनक के गले नहीं उतरा। राजा ने अष्टावक्र से कहा- संतप्रवर, आपने इस सभा को 'चर्मकारों की सभा' कहा है । क्या आप हमारी इस शंका का समाधान करेंगे कि आपने ऐसा क्यों कहा? अष्टावक्र ने कहा- राजन, मनुष्य के दो आंखें होती हैं । एक आंख भीतर की होती है और दूसरी बाहर की; एक चर्म-दृष्टि, दूसरी अन्तर्दृष्टि । यहां चर्चा चल रही है आत्मज्ञान की, पर सभी की अन्तर्दृष्टि बंद है। सभी बाह्य आंखों से देख रहे हैं। तभी तो आप सबको मेरी बाहरी कुरूपता ही दिखाई दी और चमड़ी को देखने का कार्य तो चर्मकारों का है।
जनक ने तन्मयता से अष्टावक्र की बात को सुना। उनकी आंखों में प्रसन्नता की एक तरंग दौड़ गई। वे तत्काल खड़े हुए और सम्मानपूर्वक अष्टावक्र को सभा में स्थान प्रदान किया। उन्होंने अष्टावक्र से प्रश्न किया - संतप्रवर, कृपया हमारा मार्गदर्शन करें कि आत्मज्ञान क्या होता है? मैंने शास्त्रों में पढ़ा है कि व्यक्ति को आत्मज्ञान मात्र उतने ही समय में उपलब्ध हो जाता है, जितना समय उसे पागड़े पर, रकाब पर, पैर रखकर घोड़े पर सवार होने में लगता है । इस तथ्य में कितनी सच्चाई है ?
राजा जनक की बात सुनकर अष्टावक्र मुस्कराए और कहा- राजन, आपने आत्मज्ञान से संबंधित जिज्ञासा को घोड़े के दृष्टांत से जोड़कर जानना चाहा है। चलिए, आप घोड़े पर सवार होकर वन में चलिए। वहीं एकांत में आपका समाधान करूंगा । जनक अष्टावक्र के साथ चल दिए । रास्ते में जनक ने प्रश्नों की बौछार कर दी-ज्ञान कैसे होता है; वैराग्य कैसे होता है; मुक्ति कैसे होती है ? अष्टावक्र ने राजा जनक के सभी प्रश्नों को धैर्यपूर्वक सुना और कहा- राजन, आप विद्वान हैं, आपने शास्त्रों का अध्ययन किया है । आप ही बताइए, आपने इनके बारे में क्या पढ़ा, क्या जाना?
राजा जनक ने कहा- पूज्यवर, मैंने पढ़ा था कि आत्मज्ञान दो क्षण में घटित होगा । अष्टावक्र ने पूछा- आत्मज्ञान किसे घटित होगा? जनक ने कहा- जिसमें पात्रता होगी, उसी में आत्मज्ञान घटित होगा। अष्टावक्र ने फिर प्रश्न किया - पात्रता किसमें होती है ? जनक ने जवाब दिया- जिसमें अहंकार नहीं होता, जिसमें पूर्ण समर्पण तथा पूर्ण निष्ठा होती है, उसी में पात्रता घटित होती है ।
अष्टावक्र ने राजा जनक से अंतिम प्रश्न पूछा- राजन, आपने कहा कि पात्रता उसी में घटित होती है, जो निरहंकार है । आप इस कसौटी पर कितने खरे हैं ? आप अपने में क्या अहंकार - रहित दशा पाते हैं? कहा जाता है कि तब राजा जनक ने आत्मनिरीक्षण के लिए अपनी आंखें मूंद लीं और तीन दिनों बाद अपनी आंखें खोलीं। तब राजा जनक केवल राजा नहीं रहे, वे राजर्षि जनक हो चुके थे। उसी क्षण अष्टावक्र के सूत्र निष्पन्न हुए, गीता साकार हुई ।
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