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________________ आकाश भी एक शिखर है। इस जगत में हम जैसा करते हैं, वह लौटकर हम पर बरसता है। जिस आदमी ने जीवन का यह सत्य जान लिया है कि मुझे औरों के द्वारा वैसा ही प्रतिफल मिलेगा, जैसा मैं अपनी ओर से देता हूं, तो उसके जीवन से आपाधापी उसी वक्त मिट जाएगी। अगर आप चाहते हैं कि जीवन की सारी गतिविधियां पवित्र, सौम्य और स्वस्थ हों, तो आप अपना व्यवहार भी वैसा ही रखें। महर्षि अष्टावक्र अपनी ओर से यह विश्वास दिलाना चाहते हैं, जिससे आदमी अपने जीवन में होने वाली उठापटक से पलायन न करे, आत्म-नियंत्रण और व्यवहार-शुद्धि के लिए प्रयत्न करे। हम अपने जीवन में धर्म को प्रवर्तित करें, लोकचक्र में धर्मचक्र का प्रवर्तन करें। हम इस तरह जिएं कि जगत की ओर से होने वाला व्यवहार हमारे द्वारा किया गया व्यवहार हो जाए-पवित्र और क्लेश-रहित। अष्टावक्र कहते हैं भावाभावविकारश्च, स्वभावादिति निश्चयी। निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति ॥ अर्थात भाव और अभाव का विकास स्वभाव से होता है, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह निर्विकार और क्लेशरहित पूर्ण शांति को उपलब्ध होता है। अष्टावक्र ने कहा-भाव और अभाव दोनों ही स्वभाव से होते हैं। अगर जीवन में अभाव आता है, तो निश्चित रूप से उसकी व्यवस्था हमने की होगी और स्वभाव तथा अनुकूलताएं हैं, तो उनकी व्यवस्था भी कभी हमने ही की होगी; अतीत में उनके बीज हमने बोए होंगे, जिनका रूप हमें तरुवर के रूप में दिखाई दे रहा है। ये दोनों प्रकृतिजन्य हैं, तो तू किस बात की चिन्ता करता है! अष्टावक्र कहना चाहते हैं कि तुम्हारे जीवन में अभाव हो या स्वभाव, नफा हो या नुकसान-दोनों ही स्थितियों में सदा प्रसन्न बने रहो । जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां आना बिल्कुल स्वाभाविक हैं। उनसे भयभीत होने अथवा पलायन करने की आवश्यकता नहीं है। यह जीवन तो समय की प्रतिस्पर्धा है, जिसमें कभी सुख आगे निकल जाता है, तो कभी दुख। दोनों ही परिस्थितियां हमारे सामने आती हैं, लेकिन वही व्यक्ति सदा-सुखी रहता है, सदा प्रसन्न रहता है, जो दोनों ही स्थितियों में समभाव रखता है। कहते हैं-एक सम्राट की सभा में चर्चा चल पड़ी कि दुनिया में इतने सारे धर्म-ग्रंथ हैं, उन सबका सार क्या है? सम्राट की सभा में कई बड़े-बड़े पंडित और विद्वान बैठे हुए थे। हर एक ने अपनी ओर से कुछ-न-कुछ कहा, मगर सम्राट संतुष्ट नहीं हो पाया। 86 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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