SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्द्वन्द्व होने की कला नैसी हमारी दृष्टि होती है, वैसी ही सृष्टि होती है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि सृष्टि कैसी है, वरन् इससे भी ज्यादा अहम् यह है कि हमारी अपनी दृष्टि कैसी है? सृष्टि तो जैसी है, वैसी ही रहती है, लेकिन ज्यों-ज्यों दृष्टि में उतार-चढ़ाव आते हैं, त्यों-त्यों व्यक्ति के लिए सृष्टि भी वैसी ही हो जाती है। स्वस्थ और प्रसन्न दृष्टि के साथ अगर संसार को निहारो, तो संसार स्वयमेव स्वर्ग हो जाता है। उदास और विकृत दृष्टि से अगर संसार को निहारोगे, तो वह तुम्हारे लिए नरक ही होगा। एक बगीचे में अगर सुथार जाएगा, तो उसकी दृष्टि लकड़ी के स्तर पर टिकी रहेगी और कलाकार जाएगा, तो उसकी दृष्टि फूलों की सुकुमारता, उनकी कोमलता पर होगी। महत्त्व सृष्टि का उतना नहीं है, जितना सृष्टि के प्रति रहने वाली दृष्टि का है। ___एक चील आकाश में उड़ती है। वह ऊंचाइयों पर उड़ रही है, पर उसकी दृष्टि जमीन पर पड़े मांस के टुकड़े को ही ढूंढती है। स्वयं ऊंचाई पर, पर दृष्टि कलुषित! केवल मंदिर में चले जाने से यह मत मान लेना कि तुम्हारी दृष्टि में भी मंदिर का वास हो चुका है। जब तक अंतर्दृष्टि उन्नत नहीं होती, कोई चाहे जैसा पद और प्रतिष्ठा पा ले, उसकी अंतरात्मा सदा गिरी हुई ही कहलाएगी। गांधी ने तीन बंदरों का प्रसंग देकर कहा कि बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो और बुरा मत सुना। मैं चाहूंगा कि आदमी अपनी दृष्टि में थोड़ा-सा सुधार लाए, वह न केवल बुरा न देखे, बुरा न बोले, बुरा न सुने, वरन् वह अच्छा देखे, अच्छा बोले और अच्छा ही सुने। आप बुराई से दूर हैं, यह अच्छी बात है, पर आप अच्छाई से दूरी रखते हैं, यह अच्छी बात नहीं। बुरा न करना अच्छी बात है, पर अच्छा न करना, यह बुरी बात है। 'अष्टावक्र-गीता' मनुष्य की उस अंतर्दृष्टि को खोलना चाहती है, जहां जाकर आदमी अपने वास्तविक सुख, स्वास्थ्य, आनंद और प्रकाश का स्वामी बनता है। अगर दृष्टि को स्वस्थ बनाना है, तो दृष्टि को स्वच्छ करो, सदा गुणग्राही और सर्वदर्शी 70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy