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________________ एक संत हुए- भद्रमुनि । सहजानंदघन । बड़े पहुंचे हुए आत्मज्ञानी साधक थे । समाज ने उनकी कद्र न की । जिस परंपरा में वे प्रव्रजित हुए, उस परंपरा ने उन्हें निष्कासित भी कर दिया था, मगर इससे उस आत्मज्ञानी को क्या फर्क पड़ता ! पंडित कहां जान पाते हैं आत्मज्ञान की आत्मा को । बालासती रूपकंवर माताजी के भक्त बता रहे थे कि जब यह संत उनसे मिलने के लिए आया, तो झोंपड़ी में बैठी बालासती जी ने अपने सभी आश्रमवासियों को संकेत भिजवाया कि कुछ ही देर में यहां एक आत्मज्ञानी संत पहुंचने वाले हैं। उनकी पूरी वंदना - अगवानी की जाए। ज्ञानी ही ज्ञानी को जान सकता है। शेष तो वही व्यवहार करेंगे, जो अष्टावक्र के लिए जनक की सभा में हुआ था। जहां चमड़ी की पूजा होती है, दमड़ी की दुकानदारी चलती है, वहां आत्मज्ञानी को कौन जान पाएगा! काला चश्मा पहनकर सफेद दीवार को 'सफेद' कैसे देखा जा सकेगा ! उन्नत दशा को प्राप्त करके ही उन्नत दशा को समझा जा सकता है। बाहर के व्यवहार, बाहर की लीला तो लीला-भर है, लेकिन जिसका चित्त शून्य हो चुका है, जिसकी स्पृहा नष्ट हो गई है, जो संसार में रहते हुए भी इससे निर्लिप्त और अलिप्त जीता है, देह और मन से भिन्न होकर केवल स्वयं का साक्षी होकर जीता है, वह न भागता है और न भोगता है । वह केवल जागता है और जानता है, 'अष्टावक्र गीता' का महामंत्र है, सार-संदेश है । आज अपनी ओर से इतना ही निवेदन है । नमस्कार ! Jain Education International 107 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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