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________________ के लिए जितने अर्थ और काम त्याज्य हैं, धर्म भी उसके लिए उतना ही त्याज्य है। ऐसी चुनौतीपूर्ण बात कहने वाले संत कम ही होते हैं। पहले चरण में महर्षि कहते हैं कि तू वैरी रूप काम का त्याग कर। सिवाय काम के मनुष्य का कोई प्रबल शत्रु नहीं है। काम में संसार छिपा है। काम में आसक्ति छिपी है। काम में मूर्छा और शैतान छिपा है। यही मकड़जाल है जीवन का और यही भोग-विलासिता का प्रेरक। काम से ही कामना का विस्तार होता है। बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा ही मुक्ति में बाधक है। तृष्णा क्या है? तृष्णा कामुकता ही है। कामना को जीतना है, तो काम को जीत जाएं। कामजयी तो स्वतः ही मृत्युंजयी हो जाता है। जो कंचन और कामिनी की कामना से मुक्त है, वह वीतराग है, आत्मजयी है, जितेंद्रिय है। अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि राजन, तुझे लड़ना ही है, तो उस शत्रु से लड़, जिससे साधारण आदमी पराजित हो जाता है और यह प्रबल शत्रु काम ही है। वास्तव में अष्टावक्र के सारे संदेश जितेंद्रियता के संदेश हैं; आत्मविजय और जिनत्व के संदेश हैं। काम ही मनुष्य के जीवन और जगत का आधार है, वही उसकी मृत्यु का भी कारण है। अगर दुनिया में काम न हो, तो न जन्म है, न मृत्यु है और न ही जीवन। जिन्होंने फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिकों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि मनुष्य का मूल प्रेरक तत्त्व काम ही है। काम की प्रेरणा से ही मनुष्य परिवार को पालता है, बीवी, बच्चे, धन-दौलत, कारोबार सभी काम से ही जुड़े हैं। अगर मनुष्य की काम-ऊर्जा क्षीण हो जाए, तो उसकी मृत्यु ही हो जाती है। योग इसीलिए काम-ऊर्जा को क्षीण करने की बजाय कुंडलिनी के रूप में उसका ऊवारोहण करने की सलाह देता है। योग का यह प्रयोग काम-ऊर्जा को रचनात्मक रूप देना है। मस्तिष्क की ऊर्जा जब काम-ऊर्जा की ओर बहती है, तो कामकेंद्र सक्रिय हो उठता है, जबकि वही ऊर्ध्वमुखी बन जाए, तो मस्तिष्क के सुषुप्त सेल्स को, मूर्च्छित पड़े स्नायुओं को सक्रिय कर सकती है। योग काम का उदात्त रूप चाहता है, उसका विकृत रूप नहीं। हमें तो पार जाना है जन्म के, मृत्यु के। इसके लिए हमें पार लगना होगा अपने मन में पलने वाले काम के संवेगो से। एक प्राचीन घटना है। कहते हैं-एक मंत्री-पुत्र स्थूलिभद्र हुए। वे जीवन भर वेश्या की गोद में ही पड़े रहे। एक दिन जब उनके पिता का देहांत हो गया, तो यह सूचना उनको पहुंची। वे काम में इतने डूबे रहे कि अपने पिता की अंतिम यात्रा में भी शरीक नहीं हुए। पिता की शव-यात्रा उसी वेश्या के घर के आगे से गुजरी। जैसे ही स्थूलिभद्र ने अपने पिता की लाश को देखा, उनको अपने आप पर ग्लानि हुई, पश्चाताप हुआ। उसी क्षण उनके मन से काम का अंधकार छंट गया और निकल पड़े संन्यास की डगर पर। उन्होंने संन्यास स्वीकार कर लिया। 79 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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