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________________ न जन्म, न मृत्यु 'अष्टावक्र-गीता' पर अमृत प्रवचन अष्टावक्र महर्षि हुए और जनक राजर्षि / दोनों के बीच संवाद का प्रतिफलन ही 'अष्टावक्र-गीता' है। आत्मा से आत्मा के बीच सार्थक वार्ता का उपक्रम इस महान धर्मशास्त्र के द्वारा स्थापित हुआ है। 'अष्टावक्र-गीता' में अनेक छोटे-छोटे सूत्र और संदेश हैं 1. जैसे तुम कौन हो? * तुम्हारे जीवन का मूल स्रोत क्या है? तुम्हारा वर्तमान क्या है ? * तुम्हारा अतीत कैसा रहा ? * क्या तुम अपने भविष्य में अतीत को दोहराना चाहते हो या प्रकाश से भर जाना चाहते हो? * तुम शिशु रूप से पहले क्या थे? * क्या मृत्यु ही जीवन का समापन है ? ये सभी जीवन के संवाद हैं, जो अंतःकरण को ज्ञान से भर देते हैं। जो लोग देह-भाव से मुक्त होकर आत्म-ज्ञान से भरपूर जीवन जीना चाहते हैं, उनके लिए वरदान हैं ये संवाद। 'अष्टावक्र-गीता' सत्य का अद्भुत शास्त्र है, जिसमें अध्यात्म का पुट समाविष्ट है। यह एकदम व्यावहारिक है और सत्य की गहराई तक ले जाता है। इसके सभी सूत्र मनुष्य के जीवन में प्रकाश भरते हैं। यह मनुष्य की उस अन्तर्दृष्टि को खोलना चाहती है, जहां जाकर आदमी अपने वास्तविक सुख, स्वास्थ्य, आनंद और प्रकाश का स्वामी बनता है। अष्टावक्र का कहना है कि गृहस्थ में रहते हुए भी संन्यस्त जीवन जिओ। संसार और परिवार में रहते हुए आत्मनिष्ठ होकर जीना ही वास्तविक जीवन है। 'अष्टावक्र-गीता' का यही आधारभूत दर्शन है। जीवन दर्शन के गहन चिंतक एवं तत्व-द्रष्टा श्री चन्द्रप्रभ का जन्म सन् 1962 में 10 मई को हुआ तथा सन् 1980 में 27 जनवरी को प्रवज्या प्राप्त की। वाराणसी में विविध धर्मों का अध्ययन किया। सदविचार तथा सदाचार के प्रसार के लिए संपूर्ण भारत की पैदल यात्रा की। हम्पी की गुफाओं में साधना की। हिमालय की यात्रा तथा ऋषि-महर्षियों से संसर्ग किया। आत्म-प्रकाश प्राप्ति के बाद समस्त पदों व उपाधियों का विसर्जन कर दिया तथा मानवता के आध्यत्मिक उत्थान के लिए 'संबोधि साधना' का प्रवर्तन किया। सर्वकल्याण के लिए प्रचुर मात्रा में पुस्तक लेखन एवं हज़ारों कैसेट्स में प्रवचनों का अनूठा संकलन। ध्यान-योग-साधना के लिए जोधपुर में 'संबोधि धाम' की स्थापना। मूल्य: 48/ 9060E ISBN 81-223-0.842-2 TAMIL पुस्तक महल पुस्तकमहल Fax: 011-23280567,011-23260518 E-mail: [email protected] दिल्ली मुंबई बंगलोर पटना हैदराबाद 91798 12 21308425 // Visit our online bookstore: www.pustakmahal.com Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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