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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैनपदसागर
प्रथमभाग
प्रभाती-हर्जूरीजैनपदसंग्रह |
संपादक -- पन्नालाल बाकलीवाल ।
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श्रीपरमात्मने नमः।
"धोभूपाला. संघी मौसीखान मास्टर
जैनपदसागर प्रथमभाग . प्रथम पदनद।
. जिसको . पन्नालाल बाकलीवालने संपादन किया ।
.. . और 21 P' भारतीय जैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था कलकत्ताने में
. . . अपने जैनसिद्धांतप्रकाशक (पवित्र) प्रेसमें छपाकर । . . प्रकाशित किया।
प्रथमबार
] धीरसंवत् २४५६ [. न्यो० एक रुपया ।
MMUNREMIRACTETTISTESOUR
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विज्ञापना। . विदित हो कि जैन साहित्यके संगीत विभागमें एक भाr जैन पदोंका (भजनों ) का घढा भारी है, जिसमें सैकड़ों प्राचीन अर्वाचीन कधियोंके हजारों पद भजन होंगे उनमें दो एक बुकसे. लरोंने कविवर धनारसी, धानतराय भूधरदास, भागचंद, दोलन. राम बुधजनके पदोंका संग्रह भिन्न २ छपाया है परंतु उनमें प्रमानी हजूरी, (हजरी पदोंमें भी जिनवाणीस्तुनि, गुरुस्तुनि, बधाई ) होरी.
आदि उपदेशी अध्यात्मोपदेशी अध्यात्मीक विषयके संकड़ों पद .भजन है, परंतु भिन्न भिन्न विषयोंके भजन एकही जगह अनेक फ। वियोंके पदोंका संग्रह किसीने भी नहिं छपाये। गायक अनेक नैनी भाई मित्र २ रुचिवाले होते है कोई भाई हजुरी पदोंका गाना । पसंद करते है कोई भाई उपदेशो, वा वैराग्यमय अध्यात्मोक ' पदोंका गाना पसंद करते हैं, इस कारण हमने बडे परिश्रमसे समस्त कवियोंके पदोंको गायकर अर्थको समझ कर मिन २ विषयोंके छांटकर भिन्न २ संग्रह तैयार करके लिखने और उपाने का प्रबंध किया है। दो वर्ष पहिले हमने उक्त कवियोंके उपर्यक नौ विषयोंके पदोंका संग्रह किया था परंतु उनके छपानेका यह द्रव्य साध्य कार्य नहिं कर पाये । भय इन समस्त पदोंके छपानेका भार कलकत्ते की भारतीय जैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्थाने स्वीकार कर लिया है इसकारण अब इन सब पदोंको बहुत शुद्ध कठिन शन्दों पर टिप्पणी सहित कपड़ेके चेलनसे पवित्रताके साथ छापना प्रारंभ किया है उनमेसे जैनपदसागरके प्रथमभागका प्रयम.
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[ २ ]
भाग प्रभाती हजुरीपदों का संग्रह छापकर आप लोगोंके सामने उपस्थित किया है । इसके बाद दूसरा भाग सर्वप्रकारके उपदेशों और अध्यात्मोपदेशी पदोंका संग्रह और तीसरा भाग आध्यात्मिक पदों का संग्रह छप रहे हैं शीघ्र ही छक्कर तैयार होनेवर आपके दृष्टिगोचर होंगे। परंतु यह अत्यधिक परिश्रम तब ही सफल समझा जायगा कि जब आप लोग इसको अपनाकर गाय बजाय - कर अपना परम कल्याण ( इन तीनों बडे सग्रहों से अर्थात् नव प्रकारके संग्रहों से ) साधन करेंगे
।
! धीरनिर्वाण संवत २४५६ | माघशुक्ला दशमी
१
"
जैन समाजका हितेषी दाल -- पन्नालाल बाकलीवाल : सुजानगढ निवासी
मुद्रक और प्रकाशक - श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ जैन सिद्धान्तमकाशक (पवित्र) प्रेस नं० ६ विश्वकोष लेन, बाघबाजार - कलकत्ता
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पदोंका अकारादिक्रमसे सूचीपत्र।
अ-आ
अजित जिनेश्वर अघहरणं अजित जिन वीनती हमारी मानजी . अपनो जानि मोहि तारले शांति कुंथु अर देव अब मोहि जानपरी भवोदधि तारनको है जैन अव मोहि तारलेहु महावीर अब मोहि तारले शांति जिनेश अब मोहि तारले अर भगवान अब मोहि तारले कुथुजिनेश अब हम नेमिजीकी सरन
अर्जकर्क (तसलीम कर ) ठाडो विनऊ चरननको चेरो १०८ • अरज जिनराज यह मेरो इस्या अवसर बतावोगे गरज म्हारी मानोजी याही
१०५ अरिजरहसिहनन प्रभु मरहन जयवंतो जगमैं अहो देखो केवलशानी छानी छवि मला या विराजे हो अहो नमिजिनप नित नमत शत सुरप आज आनंद वधावा आज गिरिराज शिखर सुंदर सखि आज तो वधाई हो नाभिद्वार
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२
आदिपुरुष मेरी मास भरोजी अवगुन मेरे माफ करोली. आनंदाश्र बहत लोचनते तातै आनन न्हाया मानंद भयो निरखत मुख जिनचंद आयो प्रभु तोरे दण्यार अब मोहि कारन सार भान मनरी बनी छै जिनराज मान में परम पदारथ पायो, प्रभुचरननचित लायो .
इक भरज सुनों साहिब मेरी इष्ट जिन केवली म्हाके इष्टजन केवली, उठोरे सुशानी जीव जिनगुण गावोरे उत्तम नर जिनमतको धारें, सो धावक कहलाते हैं उरण सुराग नाईश सोस जिस आतपत्र विधर
ऋ-ए-ऐ-औ : ऋषम तुमले स्वाल मेग, तुही है नाथ जगकेरा
ऋषभदेव ऋषिदेव सहाई , एजी मोहि तारिये शांति जिनंद ऐस जैनी मुनिमहाराज सदा उर मो वसो ऐसे प्रभुके गुन कोड कैसे करें ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि है और अवै न कुदेव सुहावै जिन थाके चरननरत जोरी
५१
कानों मिले मोहि श्रीगुरु मुनिवर करि हैं भवदघि पारा हो १४८
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१२४
१७
करम देत दुख जोर हो साइयां करमदा कुपेच मेरे है दुख दाइयां हो कलिमैं नथ बड़े उपगारी कह विह कछु सुनो सुगुरुके जिनशासन अनुसारी है काम क्रोधवश होय फुधी जिनमतमें दाग लगाते है काम सरे सत्र मेरे देख्ने पारस स्वाम किंकर अरज करत जिन साहिब मेरी ओर निहारो कीजिये रुपा मोहि दीजिये स्वपद कुंथुनके प्रतिपाल कुंथु जग तार सार गुनधारक है केवलजोति सुजागीजी अब श्रीजिनवरके
ग-च-छ गिरिवनवासी मुनिराज मनसिया म्हारे गुरु समान दाता नहि कोई वरननचिह वितार चित्तमें वंदन जिन चवीसकरों चलि सखि देखन नाभिरायघर नाचत हरिनटया चंदनिनेश्वर नाम हमारा, महासेनसुत जगतपियारा बंद जिन विलोकवेत फंद गाल गया चंद्रानन जिनचंद्रनाथके चरन चतुर चित ध्यावतु है चितामणि खामी सांचा साहिय मेरा छवि जिनराई राज
१५५
१८
२२
११२
.
.
.
जगतपति तुम हो श्री जिनराई
११८
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जगदानंदन जिन अभिनंदन पद अरविंद नमूं मैं तेरे ६ अब पानी खिरी महावीरकी, तव आनंद भयो अपाराजी १४५ जय जय जग भरमतिमरहरन जिनधुनी . . १६ जय जय नेमिनाथ परमेश्वर जय जिनवासुपूज्य शिवरमनीरमन मदनदनुदारन है . जयवंतो जिनविध जगतमें जिन देखत निज पाया है । जय धीर जिनकी जिनबीर जिनचंद जय शिवकामिनिकंत वीर भगवंत अनंत सुखाकर ३० नय श्रीरिपम जिनंदा नाश तो करो स्वामी मेरे दुख दंदा जय श्रीवीरजिनंदचंद्र शत इबंध जगतार
२० ना कहां तज सरन तिहारे जिन छवि यह तेरी धन जगतारन जिन रागरोप त्यागा वह सत गुरु हमारा (दौलत) १४६ जिन रागरोप त्यागा सो सतगुरु हैं हमारा (मानिक) १६६ जिनराय मोहि भरोसो भारी जिनरायके पाय सदा सरन जिनधुनि सुनि दुरमति नसि गई रे . .. .. १४४ जिनमुख अनुपम सूर्य निहारत भ्रमतम दूर भगाया है १७ जिनवर माननमाननिहारत भ्रमतमधान नशाया है जिनवर मूरत तेरी शोभा कहिय न जाय जिनवानी प्यारी लागे छ महाराज जिनवानी सुन सुरत संभारे
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१४३
जिनवानीके सुनेसों मिथ्यात मिटे समकित प्रगटे जिनवानी को को नहि तारे जिनवैन सुनत मोरी भूल भगी जिन साहिब मेरे हो निमाहिये दासको जो मोहि मुनिको मिलावै ताकी बलिहारी
०
तारनको जिनवानी तिहारी याद होते ही मुझे अमृत बरसता है
૨૨ त्रिभुवनमानंदकारी जिनयि थारो नैननिहारो त्रिभुवन में नामी कर करुणा जिन खामी तुम गुनमनिनिधि हो मरहंत तुम चरननकी सरन आय सुखपायो तुमःतार ककणाधार खामो आदि देव निरंजनो तुम बिन जगमें कौन हमारा तुम शांतिसागर शांतिदायक शांति द्यो इस दासको (दर्शन) १८१ तुम सुनियो श्रीजिनराजा भरज इक मेरीजी तुम ज्ञानविभव फूली बसंन यह मनमधुकर सुखसों रमंत
जिनवर स्वामी मेरा, मैं सेवक प्रभु हों तेरा तूही तूही याद मोहि मावे जगतमें तेरी भक्ति विना धिक है जीवना
१२१
थांका गुण गास्याजी आदि जिनंदा
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थाका गुणगास्याजी जिनजीराज,थांका दरसनत अघनास्या११४ थांकी तो बानीमें हो जिन खपप्रकाशक मान थारै तो वनामें सरधान घणो छ म्हारै छवि निरखत . ४५ येई मोने तारोजी प्रभुजी कोई न इमारो
दरसन तेरा मन भावे दास तिहारा हु मोहि तारो श्रीजिनराय दीठा भागनते जिनपाला मोहनाशनंबाला देखें जिनराज माज राज रिद्धि पाई देखदेखे जगतके देव रागरिसखों भरे देखें मुनिराज आज जीवन मूल वे देख्या म्हाने नेमिजी प्यारा . देखो कालप्रभाव आज पाखंड जगतमैं छाया है। देखोजी आदीश्वरखामी कैसा ध्यान लगाया है देखोजी इक परम गुरुने कैसा ध्यान लगाया है देखो भाई श्रीजिनराज विराजे ..
धन धन जनी साधु अवाधित तत्वज्ञानविलासी हो । धनि ते साधु रहत बनमाही धन्य धन्य है घड़ी भाजकी जिनधुनि धवन परो । १३३ धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी ... धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिवओरने : . १४६
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धनि मुनि निज आतम हित कीना धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना ध्यानपान पानदि नाशी त्रेस प्रति गरी
नित पीज्यो श्रीधारी जिनवानी सुधासम जानक निर्गन्थ यती मन भावे कुगुरादिक नाहि सुझाव निरखत जिनचंद्रवदन वापर सुरुवि भाई निरखि सखि ऋपिनको ईश यह ऋपजिन निरखि सुख पायो जिनमुखचंद नेमिजी तो केवलज्ञानी ताहीकों मैं ध्या नेमिप्रभुकी श्यामबरन छवि नैनन छाय रही नैननको बान परी दर्शनकी
१३६
पतित-उधारक पतित रटत है सुनिये अरज हमारी हो पझासम्म पद्मपद पना-मुक्ति-सम-दर-सावन है परम गुरु वरसत शान झरी 'परम जननी धरम कथनी, भवार्णव पारकों तरनी परम वीतरागी गृहत्यागी शिवभागी निरनन्य महान प्रभु अब हमको होहु सहाय 'प्रभुजी अरज म्हारी उरधारों प्रभुजी प्रभू सुपास जगवासत दासनिकास प्रभुजी मोहि फिफर अपार: ..
१०३
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प्रभु तुम पहियत दीनदयाल प्रभु तुम चानसरन लीनों मोहि तारो करुणाधार . प्रभु तुम मूरन हगसों निरखे हरणो मोरो जीयरा प्रभु तुम सुमरन होता प्रभु तेरी महिमा कि मुख गाय प्रभु तेरी महिमा फदिय न जाय प्रभु शंका लखि मम नित हरपायो प्रभु पारी माज मटिमा जानी प्रभु घांसं अरज हमारी हो प्रभुपैया बरदान सुपा फिर जग कीवीच नहिं मांक ६५ प्रा म्हाको मुध्रि फरुना फर लीजे : प्रभु मैं फिविध धुति फर तेरी प्रभु मोरी ऐसी घुधि कीजिये पारसजिनवरन निरख परख यो लहायो पारसपद नन-प्रकाश अरुन यान ऐलो प्यारी लागेमाने जिन छवि शरी पास अनादि अविद्या मेरो हरन-पास परमेशा है पूलित जिनराज माज आपदा हरी
पनमें नगनतन राज योगीसुर महाराज परसत पान सुनीर हो, जिनमुखघनसों . चंदों अदभुत चंद्रवीरजिन भविचकोरवितहारी
.
.
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७८
[ ] पानी जिनकी वखानी हो जो, वाकों सब मुनि मनमें मानी · १४२. बंदों जिनदेव सदा चरन कमल तेरे बंदों नेमि उदासी मद मारवेको. बधाई चंद पुरीमैं आज बधाई भाई हो तुम निरखत जिनराय बधाई राजै हो माज राजे वधाई राजे
१८६ घामाघर बजत बधाई चल देखरी माई बेगि सधि लीज्योम्हारी श्रीजिनराज
भई आज वधाई निरखत जिनराई भज ऋषिपति ऋषमेत ताहि नित नमत अमर पुरा भज जिन चतुरविसति नाम भजरे मनुवा प्रभु पारसको भये आज अनंदा जनमे चंदजिनंदा भवदधितारक नवका जगमाही जिनवान भवनसरोरुहसूर भूरिगुनपूरित अरहता : भाई धन मुनि ध्यान लगायक खरे हैं भोर भयो भज श्रीजिनराज सफल होय तेरे सब काज भोर भयो सब भविजन मिलकर जिनवर पूजन आवो
१९२
१३७ ३२
मनकै हरष अपार चितके हरष अपार बानी सुन मनुवो लागिरहोजी मुनिपूजा बिन रह्यो.न जाय
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. [१०] महिमा है अगम जिनागमकी
१३० माई माज आनंद कछु कहे न वने
१८८ माई आज आनंद है या नगरी
१८८ माई आज महामुनि डोले 'मानुष जनम सफल भयो आज महाक घर जिनधुनि अब प्रगटी म्हाकै जिनमूरति हृदय बसी बसी म्हारा मनकै लग गई मोहकी गांठ खोलों मैं तो जिनभागमसे१४१ म्हारी सुनज्यो दीनदयालु तुमसों अग्ज करूं
१०७ म्हारी कौन सुने, थे तो सुनल्यो श्रीजिनरान मुनि वन आये बना शिववनरी ब्याहनकों मेघघटासम श्रीजिनवानी मेरी धार कहा ढील करीनी मेरी सुध लीजै अपम खाम, मोहि कीजे शियपथगाम "मैरो मनुवो अति हरपाय तोरे दरसनसों म्हे तो थाकी आज महिमा जानी अवलों उर नहिं मानी हे तो थापर वारी वारी वीतरागोजी में आयो जिन लरन तिहारी। मैं तुम सरन लियो तुम सांचे प्रभु महंत मैं नमजीका चंदा में सादिवजीका वंदा में यंदा खामी तेरा में हरख्यो निरख्यो सुख तेरो .
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[ ११. 1 'मोकों तारोजी तारोजी तारोजी किरपा करके मोसम कोन कुठिल खल कामी मोहि तारो जिन साहिबजी मोहि तारोजी क्यो ना, तुम तारक विजगत्रिकालमें। मोहि तारो हो देवाधिदेव मैं मनवचतनकरिकरों सैव
य-र-ल या कलिकाल महानिशिमें जिनववनचंद्रिका जारी है बल्यो चिरकाल जगजाल चहुंगति विष लगन मोरी पारससों लागी लूम भूम वाले बदरवा मुनिवर ठाड़े तरुवर तरवा
पारो हो वधाई या शुभ साज विनकाम ध्यानमुद्राभिराम तुम हो जगनायकजी वीतराग जिन महिमा थारी वरन सकै को जन त्रिभुवनमैं बोतराग मुनिराजा मोको दुरस ताजा, चे प्रानी सुरक्षानी जिनजानी जिनवानी वे मुनिवर काय मिलि हैं उपगारी
शरन गही मैं तेरी जगजीवन जिनराज जगतपति शान मोहि वासुपूज्य जिनवरकी शांतिवरन मुनिराई घर लखि शामरियाके नाम जपेत झूटजाय भवमामरियां
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[१२]
शिवमग-दरसावन रावरो दरस
शेष सुरेश नरेश रहे तोहि, पार न कोई पर्विजी
3
S
श्रीभरतछवि लखि हरिदै आनंद अनुन छाया है श्रीआदिनाथ तारन तरनं
श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुणधारी वे श्रीजिन तारनहारा थे तो मोने प्यारा लागो राज श्रीजिनदेव न छाड हो सेवा मनवचकाय हो
श्रीजिनपूजनको हम आये, पूजत ही दुखद मिटाये श्रीमुनिराजन समतासंग, कायोत्सर्ग समाहित भंग श्रीजिनवर दरस आज करत सौख्य पाया
स
सब मिल देखो हेली म्हारी हे, त्रिशलापाल वदनरसाल सम-आराम बिहारी साधुजन, सम आराम बिहारी समत क्यों नहि बानी अज्ञानी जन
૨૭
ર
१८
' ८७
१५२
११०
६२.
२१-१०४
१५१
કુદ
१५४
१३३
१७४
१३०
१३०
सम्यग्ज्ञान विना जगमें पहिचाननेवाला कोई नहीं सारद तुम परसाद आनंद उर आया
सांची तो गंगा यह वीतरागवानी
सांचे चंद्रप्रभू सुखदाय
स्वामीजी तुम गुण अपरंपार चंद्रोज्वल भविकार
स्वामीजी सांची सरन तिहारी
स्वामी मोहि अपनो जान तारां, या विनतो अब वितधारो ६१. स्वामी रूप अनूप विशाल मन मेरे चलत
૬૭
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ર
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१३] स्वामी श्रीजिननाभिकुमार, हमको क्यों न उतारो पार सोमंधरखामी मैं वरननका चेरा : सुधि लीज्योजी म्हारी मोहि.भवदुखदुखिया जानके सुनकर पानी जिनवरकी म्हारै हरष हिये न समायजी . सुन निनवैन श्रवन सुख पायो । सोई है सांचा महादेव हमारा .. सो गुरुदेव हमारा है साधो .
हरनाजी जिनरांज मोरी पीर हम आये हैं जिन भूप तेरे दर्शनको हम शरन गयो जिन चानको .. . हमको प्रभु श्री पासंसहाय हमारी वीर हरों भवपीर . . हे जिन तेरे मैं सरने माया . . है जिन तेरो सुजस उजागर गावत हैं मुनिजन हानी हे जिन मेरी ऐसी बुद्धि कीजे हे जिनरायजी मोहि दुखत लेहु छुड़ाय हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिनजी, मो भवजलधि क्यों न तारत हो५१ हो जिनवाणीजू तुम मोकों तारोगी हो खामी जगतजलधित तारों ज्ञानो ज्ञानी ज्ञानी नेमजी तुम ही हो ज्ञानी ज्ञानी मुनि है ऐसे खामी गुनराल .
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श्रीवीतरागाय नमः ।
जैन-पद-सागर प्रथमभाग ।
( १ )
( हजूरी प्रभाती पद - संग्रह )
कप्रसाधन
देखोजी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है । कर ऊपर कर सुभग विराजे, आसन थिर ठहराया है | देखोजी० ॥ टेक ॥ जगतविभूति भूर्तिसम तजकर, निजानंद-पद ध्याया है । सुरभित श्वासा आशावासा, नासादृष्टि सुहाया, है | देखोजी० ॥ १ ॥ कंचन वरन चलै मन रंच न. सुरैगिरि ज्यों थिर थाया है । जासपास अहि मोर मृगी हैंरि, जातिविरोध नशाया है । देखोजी ० ॥ २ ॥ सुध उपयोग हुतासनमें जिन, .. १ । भस्मकी समान । २ दिशारूपी वस्त्र - दिगंबरपणा । ३ सुमेरु . पर्वत । १ सिंह |
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२ जैन पदसागर प्रथमभाग वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलिकावलि सिर सोहै, मानों धूआं उडाया है। देखोजी०॥३॥ जीवन मरन अलाभ लाभ जिन, तृणमनिको समभाया है। सुरनरनाग नहिं पद जाके, 'दौल' तास जस गाया है। देखोजी०॥४॥
(२) देखोजी इक परम गुरूने कैसा ध्यान लगाया है। देखोजी० ॥ टेक ॥ घरके भोग रोग सम लागे, बनका बास सुहाया है। काम क्रोध माया मद त्यागी, नगन जु भेष बनाया है । देखोजी० ॥१॥बरसाकाल बसत हैं तरुतर, समताभाव दिखाया है। लिपटें डांस जहर विषयाले, खेद ने मनमें ल्याया है । देखोजी०॥२॥ शीतकाल तटनीतट ऊपर, परत तुषार न छाया है। कंप देह चलै चौबारी, जैनजंती कहलाया है । देखो जी०॥३॥ ग्रीषमकाल बसें परबतपर, सूरज १। होम करनेकी लकड़ियां।
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह ऊपर आया है । चलत पसेव जरत अति काया, कर्मकलंक बहाया है। देखोजी० ॥४॥ऐसे गुरुके चरन पूजकर, मनवांछित फल पाया है। 'दौलत' ऐसे जैनजतीको, बारवार सिर नाया है। देखोजी०॥५॥
जिनवर-आनन-भान-निहारत, भ्रमतम-धान नशाया है । जिनवर० ॥ टेक ॥ वचन-किरन प्रसरनत भविजन, मन-सरोज सरसाया है। भवदुःखकारन सुखविस्तारन, कुपथ सुपथ दरशाया है। जिनवर० ॥ १ ॥ विनशायी कंज जल संरसाई, निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रवल कषाय पलाये, जिन धन-बोध चुराया है। जिनवर० ॥२॥ लखियत उड्डु न कुभाव कहूं अब, मोह उलूक लजाया है। हंसकोकेको शोक नस्यो निजा-परनति चकवी पाया है। जिनवर० १। काई दूसरे पक्षमें अज्ञानरूपी काई । २ कामदेव । ३ चोर1 ४ तारे । ५ आत्मारूपी चकवेका।
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जेन पदसागर प्रथमभाग ॥३॥ कर्मबंधकज-कोश बंधे चिर, भवि अलि । मुंचन पाया है। 'दौल उजास निजातम-अनुभव, , उर-जग-अंतर छाया है । जिनवर०॥४॥
पारस जिन-चरन निरख, हरख यों लहायो, चितवत चंदा चकोर ज्यों प्रमोद पायो । पारस० ॥ टेक। ज्यों सुन घनघोर शोर, मोर हर्पको न ओर, रंकनिधि समाजराज पाय मुदित । थायो। पारस० ॥ १॥ ज्यों जन चिरछदित होय, भोजन लखि मुदित होय,भेषज गेंद-हरन पाय, सरुंज सुहरषायो । पारस० ॥२॥ वासर भयो धन्य आज, दुरित दूर परे भाज, शांतदशा देख महा, मोहतम पलायो। पारस० ॥३॥ जाके गुन जानन जिम, भानन भवकानन इम, जान दौल सरन आय शिवसुख ललचायो। पारस०॥४॥
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१ कर्मबंधन रूपी कमलोंके कोषमें बंधे हुए थे उनसे । २ छुटकारा ३ बहुतकालका भूखा। ४ बाई । ५ रोगहरनेवाली । ६ रोगी।
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• हजूरी प्रभाती पद-संग्रह
- वेदों अद्भुत चंद्र वीरेजिन, भावचकोर चितहारी । बंदो० ॥ टेक ॥ सिद्धारथ नृपकुल नभमंडन, खंडन भ्रमतम भारी। परमानंद-जलधिविस्तारन, पापताप छयकारी। बंदो० ॥१॥ उदित निरंतर त्रिभुवन-अंतर, कीरति किरन पसारी । दोष-मलंक कलंक अटंकित, मोहराहु निरवारी । वदो० ॥२॥ कर्मावरैनपयोद-अरो. धित, वोधित शिवमगचारी। गनधरादिमुनि उडुगन सेवत, नितपूनमतिथि धारी। वंदो. ॥३॥ अखिल-अलोकाकाश उलंघन, जासज्ञान उजियारी । दौलत मनसा कुमुदिनिमोदन, जयो चरम जगतारी । वंदो०॥४॥
(६). निरखत जिनचंद्रवदन, खपरसुरुचि आई। .. १ महावीर भगवान । २ दोपाराशि । ३ पापरूपी कलंक। ४ कर्मरूपी बादलोंसे नहिं ढकनेवाला । ५,तारागण । मन रूपी कमोदिनीको हर्पित करनेवाला । .9 अंतिम तीर्थकर...
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जैन पदसागर प्रथमभाग निरखत०॥टेक ॥ प्रकटी निर्जआनकी, पिछान ज्ञान-भानकी, कला उदोत होत काम जामिनी पलाई। निरखत० ॥ १ ॥ सास्वत आनंदस्वाद, पायो विनश्यो विषाद, आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई । निरखत०॥ २ ॥ साधी निजसाधकी, समाधि मोहव्याधिकी, उपाधि को विराधिक, अराधना सुहाई । निरखत० ॥३॥ धन दिन छिन आज सुगुनि, चिन्ते जिनराज अब, सुधरे सब काजं दौल अचल ऋद्धि पाई । निरखत ॥४॥
(७) जगदानंदन जिन अभिनंदन, पद-अरविंद नमूं मैं तेरे, जगदा०॥टेक॥ अरुन वरन अघताप हरनवर, वितरन कुशल सुसरन बडेरे। पद्मासन मदनमदभंजन, रंजन मुनि-जन-मनअलिकेरे। जगदा०॥१॥ ये गुन सुन मैं सरनै . १ निजपरकी । २.कामरूपी रात्रि । ३ अपने मनकी इच्छानुसार । लक्ष्मी-शोमाके घर । ५ भ्रमरके। .
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हजूरी प्रभातीपद-संग्रह आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर-पिछानन, तुम विन आन न कारन हेरे ॥ जगदा० ॥२॥ तुमपदसरन गही जिनने ते, जामनजरामरन निरवरे । तुमतें विमुख भये शठ तिनको, चहुंगति विपति महाविधि परे । जगदा०॥३॥ तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे । लहत न मित मैं पतित कहों किम, किन शिकन गिरिराज उखेरे । जगदा० ॥४॥ तुम विन राग दोष दर्पन ज्यों, निज निज भाव फल तिनकेरे। तुम होसहज जगत उपकारी, शिवपथसारथवाह भलेरे । जगदा०॥५॥ तुम दयाल बेहाल बहुत हम, कालकराल व्यालचिर घेरे।भाल नाय गुण माल जपों तुम, हो दयाल दुखटाल सवेरे। जगदा०॥६॥ तुम बहुपतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भवसंकट मेरे । भ्रम-उपाधिहर. .१ उस मोहकर्मका मद नाश करनेवाले । २ गाये हैं । ३ खरगोसोने । ४ शीघ्र ही।
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जैन पदसागर प्रथमभाग
सम समाधिकर, दौल भये तुमरे अब चेरे।
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जवदा० ॥ ७ ॥
(6) पद्मासन पद्मपद पद्मा - मुक्तिसैद्म-दरसावन हैं कलिमलगंजन मनअलिरंजन, मुनिजनसरन सुपावन है । पद्म सझ ० ॥ टेक ॥ जाकी जन्मपुरी कुशंबिका सुरनरनागरमावन है । जास जन्मदिन पूरब पट- नवमास रतन बरसावन है । पद्मासझ ॥ १ ॥ जा तप-थान पपोसा गिरि सो आत्मध्यान - थिर थावन हैं । केवल जोत उदोत भई सो; मिथ्या - तिमिर नसावन है । पद्मास० ॥ २ ॥ जाको शासन पंचानन सो कुमति- मतंगनशावन है । रागविना सेवकजनतारक, पै तसु तुषरुष भाव न है । पद्मासन ॥ ३ ॥ जाकी महिमाके वरननसों, सुरगुरुबुद्धिथकावन है । दोल
- १ लक्ष्मी घर । २ पद्मप्रभके चरनकमल । ३ मुक्तिरूपी लक्ष्मीका स्थान । ४ पपोसा नामका पर्वत । उपदेश रूपी सिंह । ६: कुमतिरूपी हस्तीको नाश करनेवाला है । ७ रागद्वेष । ८ बृहस्पतिकी बुद्धि मी थक जाती है।
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह अप्लमतिको कहबो जिम, शिशुकगिरिंद-धका वन है। पद्मासन० ॥४॥
. (९) श्रीजिनवर दरश आज, करत सौख्य पाया अष्टपातहार्यसहित, पाय शांति काया। श्रीजिन०. ॥ टेक ॥ वृक्ष है अशोक जहाँ, भ्रमरगान गाया। सुंदर मंदारपहुप-वृष्टि होत आया । श्री जिन० ॥१॥ ज्ञानामृत भरी बानि, खिरै भ्रम नशाया। विमल चमर ढोरत हरि, हृदय भक्ति लाया। श्रीजिन० ॥२॥ सिंहासन प्रभाचक्र बालजग सुहाया ॥ देवदुंदुभीविशाल, जहां सुर बजाया। श्रीजिन ॥ ३॥ मुक्ताफल माल सहित, छत्र तीन छाया। भागचंद अदभुतं छबि कही नहीं जाया॥ श्रीजिन० ॥ ४॥
(१०) प्रभुतुम मूरत हगंसों निरखेहरखै मोरो जीयरा प्रभुतुम० ॥ टेक ॥ बुझत कषायानलं पुनि उपजे. १ बालकद्वारा पर्वतको ढकेलना।
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.१०
जैन पदसागर प्रथमभाग
ज्ञानसुधारस सीयरा ॥ प्रभुतुम० ॥ १ ॥ वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसत नीयरा ॥ प्रभुतुम० ॥ २ ॥ भागचंद तुम चरनकमलमें, बसत संतजनहीयरा ॥ प्रभुतुम० ॥ ३ ॥ ( ११ )
अजित जिन विनती हमारी मानजी, तुम लागे मेरे प्रानजी ॥ टेक ॥ तुम त्रिभुवनमें कलपतरो - वर, आश भरो भगवानजी ॥ अजित० ॥ १ ॥ बादि अनादि गयो भव भ्रमतें, भयो बहुत हयरान जी । भागसँजोग मिल अब दीजें, मनवांछित वरदान जी | अजित० ॥ २ ॥ ना हम मांगें हाथी घोड़ा, ना कछु संपत्ति आनजी । भूधरके उर बसो जगत गुरु, जवलों पद निर बानजी | अजित० ॥ ३ ॥
( १२ )
पारस-पद-नख प्रकाश, अरुन वरन ऐसो । पारस० ॥ टेक ॥ मानो तप, कुंजेरके, सीसको
१ नेड़ा - निकट | २ लाल । ३ हाथीके ।
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह ११ सिंदूर पूर, रागरोषकाननकों-दावानल जैसो। पारस०. वोधमई प्रातकाल, ताको रवि उदय लाल, मोक्षवधू-कुच-प्रलेप, कुंकुमाम तैसो। पारस० । कुशल-वृक्ष-दल-उलास, इहविधि बहु गुण-निवास, भूधरकी भरहु आस, दीनदासके सो०। पारस० ॥३॥
(१३) रामकली। ऋषभदेव ऋषिदेव सहाई अजित अजित रिपु संभव संभव, अभिनंदन नंदन लवलाई। रिपभ० ॥सुमति सुमति भविपदम-पदम-अलि; देत सुपास सुपास भलाई । चितचकोरचंदा चंदप्रभ, पुहपदंत पुहपनि भजि भाई। ऋषभ० ॥२॥ शीतल शीतल जड़ता नासै, श्रेयान् श्रेयान् जोति जगाई। वासुपूज्य वासव पद पूजे, विमल विमल कीरति जग छाई। ऋषभ० ॥३॥गुन अनंत अघ अंत अनंत है, धरम- धरम बरसा बरसाई। शांति शांत कुंवादि जंतुपर, कुंथुनाथ ...१ रागद्वेपरूपी बनकेलिये।
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NAAD
१२ जैन पदसागर प्रथमभाग करुणाकरवाई । ऋषभ० ॥४॥ अरह अरहविधि मल्लि मल्लिवर, मुनिसुव्रत मुनिसुव्रतदाई । नमि नमि सुरनरनेमि धरमरथ, नेमिप्रभू काटें भवकाई ॥ऋषभ० ॥ ॥ पास पास छेदी चळं गतिकी, महावीर महावीरवडाई । धानत परमानद-पद कारन, चौवीसी नामारथ गाई। ऋषभ०॥६॥
(१४) देखे जिनराज आज, राजरिद्धि पाई । देखे० ॥ टेक ॥ पहुपवृष्टि महाइष्ट देव दुंदुभी सुमिष्ट, शोक करै मृष्ट सो अशोकतरु बडाई ॥ देखे० ॥१॥ सिंहासनं झलमलात, तीन छत्र चितसुहात, चमर फरहरान मनों, भगति अति बढाई ॥ देखे०॥२॥ द्यानत भामंडलमें, दीसे पर जाय सात, बानी तिहुकाल झरे, सुरशिवसुखदाई ।। देखे०॥३॥
..(१५) राग बसंत । भोर भयो भज श्रीजिनराज़ । सफल होहि
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह १३ तेरे.सव काज ॥ भोर० ॥ टेक ॥ धनसंपति मन बांछित भोग, सव विध जान बने संयोग । भोर० ॥१॥ कल्पवृक्ष ताके घर रहै,. कामधेनु नित. सेवा. बहै । पारस चिंतामनि समुदाय, हितसों आय मिलैं सुखदाय ॥ भोर० ॥२॥ दुर्लभतें सुलभ्य द्वैजाय, रोगसोग दुखदूरपलाय सेवा देव करें मनलाय, विधन उलटि मंगल ठहराय ॥ भोर० ॥३॥ डायनि भूत पिशाच न छले, राज चोरको जोर न चले। जस आदर. सौभाग्य प्रकाश, धानत सुरग मुकतिपदबास ॥ भोर०॥४॥ . (१६.) राग भैरों। · भोर भयो सब भविजन मिलिकर, जिनवर पूजन आवो (जावो)। अशुभ मिटाबो पुण्य बढावो, नैननि नींद गमावो । भोर० ॥ टेक ॥ तनको धोय धारि उजरे पट, शुद्ध जलादिक लावो । बीतराग छबि हरखि-निरखिकर,आगमोक्त गुनगावो। भोर०॥१॥ शास्तर सुनों भनो
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१४
जैन पदसागर प्रथमभाग
जिनवानी, तप संजम उपजावो । धरि सरधान देवगुरु आगम, सप्ततत्त्व रुचि लावो ॥ भोर० ॥ || २ || दुःखित जन की दया ल्याय उर, दान चारविध द्यावो । रागरोष तजि भजि जिनपदको, बुधजन शिवपद पावो || भोर० ॥ ३ ॥ ( १७ ) भैरों । किंकर अरज करत जिनसाहिब, मेरी ओर निहारो ॥ किंकर० ॥टेक॥ पतित उधारक दीन दयानिधि, सुन्यो तोहि उपगारो । मेरे औगुन पैंमति जावो, अपनो सुजस विचारो ॥ किंकर ० ॥ १ ॥ अब ज्ञानी दीसत हैं तिनमें, पक्षपात उर झारो । नाहीं मिलत महाव्रतधारी, कैसें है नि स्तारो ॥ किंकर० ॥२॥ छबी रावरी नैनन निरखी, आगम सुन्यो तिहारो । जात नहीं भ्रम क्यों अब मेरो, या दूषनको टारो किंकर० ॥ ३ ॥ कोटि बातकी बात कहत हों, योही, मतलव म्हारो । जोलों भव तोलों बुधजनको, दीजे सरनसहारो | किंकर० ॥ ४ ॥
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह १५
[१८]
राग-पताल तिताला। पतित उधारक पतित रटत है, सुनिए अरज हमारी हो। पतित० ॥ टेक ॥ तुमसो देव न आन जगतमें जासों करिय पुकारी हो। पतित. ॥१॥ साथ अविद्या लगि अनादिकी, रागरोष विस्तारी हो । याहीत संतति करमनकी, जनम मरन दुखकारी हो ॥ पतित०॥२॥ मिले जगत जन जो भरमावै, कहै हेत संसारी हो। तुम विनकारन शिवमगदायक, निजसुभावदा-: तारी हो ॥ पतित० ॥३॥ तुम जाने विन काल अनंता, गति गतिके भव धारी हो । अब सनमुख बुधजन जांचत है, भवदधिपार उतारी हो । पतित०॥४॥ . .. (१९) राग भैरों । उठोरे सुग्यानी जीव, जिनगुन गावोरे।उठोरे॥ टेक ॥ निसि तो नसाय गई, भानुको उद्योत भयो, ध्यानको लंगावो प्यारे, नींदको भगाओरे
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जैन पदसागर प्रथमभाग ॥ उठोरे०॥१॥ भववन चौरासी वीच, भ्रमतो फिरत नीच, मोह-जाल-फंद-फस्यो, जन्म मृत्यु पावोरे । उठोरे०॥२॥ आरज पृथ्वीमें आय, उत्तम नरजन्म पाय, श्रावककुलको लहाय, मुक्ति क्यों न जावोरे । उठोरे० ॥३॥ विषयनिमैं राचिराचि,बहुविधके पाप सांचि, नरकनिमैं जाय क्यों अनेक दुःख पावोरे । उठोरे०॥४॥ परको मिलाप त्यागि, आतमके जाप लागि, सुबुधि बतावै गुरु ज्ञान क्यों न लावोरे॥उठोरे०.
(२०) राग भैरों। चरननचिन्ह चितारि चित्तमें, बंदन जिन चौवीस करूं ॥ चरनन० ॥ टेक ।। रिषभ वृषम गज, अजितनाथकै । संभबके पद बाजे, सरूं। अभिनंदन कपि, कोके सुमतिक, पैदम पदमप्रभ पायधरूं ॥ चरनन ॥१॥ स्वस्ति सुपारस, चंद चंदकै, पुष्पदंतपद मत्स्य वरू। सुरैतरु .१ घोड़ा । २ चकवा । ३ कमल । ४ साथिया । ५ मगर मच्छ । ६ कल्पवृक्ष ।
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह १५ शीतल चरनकमलमैं, श्रेयांसके गैंडा वनचरू ।। चरनन०॥२॥ भैसा वासु, वराह विमलपद, अनंतनाथके सेहि पलं । धर्मनाथ कुस, शांति हिरन जुत, कुंथुनाथ अज, मीन असे ॥ चरन० ॥३॥ कलस मल्लि, कूरम मुनिसुव्रत नमि कमल सतपत्र तरूं । नेमि संख, फैनि पास बीर हरि, लखि बुधजनआनंदभरूं। चरनन ॥४॥
(२१) जिनमुख अनुपम सूर्य निहारत, श्रमतम दूर भगाया है । जिनमुख०॥ हितकर वचन-किरन श्रवननिघसि, भवि-मन कमल खिलाया है चक्रवाक आतमको चकवी, सुमतिसँयोग मिलाया है । जिनमुखः ॥ १॥ विनसी मोहनिशा दुखकारी, आतमज्ञान जगाया है । मिथ्या नींद मिटी प्रगटी अब,सम्यकरुचिसुख पाया है। जिनमुख० ॥ २॥ कुमति कमोदनि सकुचन लागी उडुगन कुनय छिपाया है। सहज सर्वहित १ वज्र । २ अरनाथके । ३ कछुवा ! ४ सर्प । ५ सिंह !
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जैन पदसागर प्रथमभाग
कर शिवमारंग, भविं जीवन लखि पाया है ॥ जिनमुख० ॥ ३ ॥ भ्रष्ट कुजीव उलूक पशू सम, तिनने नाहिं लखाया है । धन्य दिनेश 'जिनेश्वर' आनन, जिंहप्रकाश वृप पाया है। जिनमुख० ॥ ४ ॥
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( २२ )
.. श्री अरहत छवि लखि हिरदै आनंद अनूपम छाया है श्रीअरहत० ॥ टेक ॥ वीतराग मुद्रा हितकारी, आसन पद्म लगाया है । दृष्टिनासिका अंग्रेधार मनु, ध्यान महान बढाया है । श्रीअर: हत० ॥ १ ॥ रूप सुधाधर अंजुलि भरभर, पीवत अति सुख पाया है । तारन तरन जगत - हित कारी, विरद शचीपति गाया है । श्रीअरहत० ॥ २ ॥ तुम मुखचंद्रनयन के मारग, हिरदैमांहि समाया है । भ्रमतम दुख आताप नस्यो सव, सुखसागर बढि आया है । श्रीअरहत० ॥ ३ ॥ प्रगटी उर संतोष चंद्रिका, निजखरूप दर
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शाया है । धन्य धन्य तुम छबी 'जिनेश्वर"
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह . १९ देखत ही सुखपाया है। श्रीअरहत० ॥४॥ . . (२३)
, , जयवंतो जिनर्विव जगतमें, जिन देखत निज पाया है । जयवंतो॥ टेक ॥ वीतरागंता लखि प्रभुजीकी, विषयदाह विनशाया है । प्रगट भयो संतोप महागुण; मनथिरतामें आया है ॥ जयं: वंतोः॥१॥ अतिशय ज्ञान शरासनपै धरि; शुक्लध्यान शर बाया है। हानि मोह-अरि चंड चौकडी, ज्ञानादिक उपजाया है । जयवंतो० ॥२॥ वसुविधि अरि हरिकर शिवथानक, थिरखरूप ठहराया है। सो स्वरूप शुचि स्वयंसिद्ध प्रभु, ज्ञानरूप मनभाया है ।। जयवंतो०॥३॥ यदपि अचेत तदपि चेतनको, चितस्वरूप दिखलाया है। कृत्याकृत्य जिनेश्वर' प्रतिमा पूजनीय गुरुगाया है । जयवंतो०॥४॥
(२४). बंदों जिनदेव सदा चरन कमल तेरे, जा . १ फेंका है।
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जैन पदसागर प्रथमभाग
प्रसाद सकल कर्म छूटत हैं मेरे ॥ टेक ॥ ऋषभ अजितसंभव अभिनंदन. केरे । सुमतिपद्म सुपार्श्व, चंदा प्रभुमेरे । बंदों ॥ १ ॥ पुष्पदंत शीतल श्रेयांस गुण घनेरे । वासुपूज्य विमल अनंतधर्म जग उजेरे । वेदों० ॥ २ ॥ शांतिकुंथु अरहमलि मुनिसुव्रत केरे 1 नमि नेमी श्वर पार्श्वनाथ महावीर मेरे | वंदों ॥ ३ ॥ लेत नाम अष्टयाम छूटत भवफेरे । जन्म पाय जादोंरायं चरननके चेरे| बंदों ० ॥ ४ ॥
(२५)
- जय श्रीवीर जिनेंद्र चंद्र, शत, इंद्र वंद्य जगतारं ॥ टेक ॥ सिद्धारथकुल कमल अमल रवि भवभूघरपवि भारं । गुनमनि कोष अदोष मोखप्रति, विपिनं कषाय तुषारं ! जयश्री० ॥ १ ॥ मदनकदन शिवसदन पद-नमित, नित अनमित यतिसारं । रमी अनंत कंत अंतककृत, अंत
संसाररूपी पहाड़को बड़े भारी वज्रसमान । २ कषायरूपी वनको तुषारकी समान । ३ अनंत मोक्ष लक्ष्मीके पति । ४ यमराजका अन्त
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह जंतु-हितकारं॥जयश्री० ॥२॥ फंदचंदनाकंदन दादुर, दुरित तुरित निर्वारं । रुद्ररचित अतिरुद्र उपद्रव, पवन-अद्रि-पतिसारं॥ जयश्री०॥३॥ अंतातीत अचिंत्य सुगुन तुम, कहत लहत को पारं । हे जगेमौलं दौल तेरे क्रम, नमैं शीश कर. धारं ॥ जयश्री०॥४॥
(२६) श्रीजिन पूजनको हम आये, पूजत ही दुखः द्वंद मिटाये ॥ श्रीजिन ॥ टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज, अदभुत सुख समता बरः पाये ।आधिव्याधि.अव दीखत नाहीं, घरमक: लपतरु आंगन थाये ॥ श्रीजिन ॥१॥ इतमें इंद्र चक्रधर इतमें, इतमें फनिंद खड़े सिरनाये । मुनिजन वृंद करै थुति हरषत, धन हम जनमें पद परसाये ॥ श्रीजिन॥२॥ परमौदारिक में करनेवाले । ५ चंदना सतीका फंद काटनेवाले । ६ समवशरनमें पुष्प लेकर जानेवाले मेंडकके पाप । ७ रुद्र द्वारा किए हुये उपद्रव । अनंत। जगतके मुकुट । १० चरण।.
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जैन पदसागर.प्रथमभाग परमातम, ज्ञानमयी हमको दरसाये। ऐसे ही हममें हम जानें, बुधजन गुन मुख जात न गायें ।। मुनिजन ॥३॥: .
(२७)
राग-अलहिया। चंदजिनेश्वर नाम हमारा, महासेनं सुत जगत पियारा ।। चंद०॥टेक ।। सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाही, चिदानंद पदवीका धारा॥ चंदजिनेश्वर० ॥१॥ चरन सरन बुधजन जे आये, तिनपाया अपना पद सारा ॥ मंगलकारी भवदुख हारी, स्वामी अद्भुत उपमावारा॥ चंदजिनेश्वर० ॥२ .
(२८)
.. राग-भैरों पूजत जिनराज आज आपदा हरी । दरस्यो तत्त्वार्थ मोहि धन्य या घरी ॥ पूजत०॥टेक॥ छलंबलं मद को मेरी उच्चता करी । अबलोंया जानत सो वात निरवरी०॥ पूजनः॥१॥राज़
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इजूरी प्रभाती पद-संग्रह पदवी छोरिक विरागता धरी । तासों जिनराज भये, दृष्टि या परी ॥ पूजन ॥२॥ आन. भावजन्म जन्म, कीन बहु बरी । यात गति चार बीच विपति अति भरी ॥ पूजत०॥३॥ बुधजनं जिन सरन गह्यो, मिटगई मरी। आपमाहिं आप लख्यो,शुद्धि आपरी०॥४॥
(२) . हजूरी पद संग्रह प्रथमभाग। १ | कविवर बनारसीदास कृत ।
१ राग काफी। । चिंतामन स्वामी सांचा साहिब मेरा,शोक हरें तिहुलोकको उठि लीजतु नाम सवेरा,चिंतामन०॥ टेक ॥ १ ॥ सूर समान उदोत है, जग तेज प्रताप घनेरा । देवत मूरत भावसों, मिट जातं मिथ्यात अंधेरा, चिंतामनः ॥२॥ दीनदयाल निवारिये, दुख संकट जोनि वसेरा । मोहि अभयपद. दीजिये. फिर होय नहीं भवफेरा, चिंतामन० ॥३॥बिंब विराजत आगरै; थिर
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(२)
२8 जैन पदसागर प्रथमभाग थानथयो शुभ वेरा । ध्यान धरै विनती करै, बानारसि बंदा तेरा, चिंतामन स्वामी० ॥४॥
कविवर दौलतरामजी कृत भज ऋषिपति ऋषभेश ताहि नित, नमत अमर असुरा । मनमर्थ-मथ दरसावतशिवपथ, वृषरथ-चक्रधुरा। भज० ॥ टेक ॥ जा प्रभुगर्भ छ मासपूर्व सुर करी सुवर्ण धरा । जन्मत सुरगिरघर सुरगनयुत हरि पयन्हवन करा ॥ भज. ॥१॥ नटत नर्तकी विलय देख प्रभु, लहि विराग सुथिरा । तबहिं देवऋषि आय नाय शिर जिनपदपुष्प धरा। भज०॥२॥ केवलसमय जास वचरविन, जगभ्रमतिमिर हरा । सुहेगबोध चारित्र-पोत लहि, भवि भवसिंधु-तरा। भज०॥३॥ योग सँघार निवार शेष विधि, १ मुनिनाथ । २ धर्मके ईस आदिनाथ भगवानको ३ । कामदेवको मथनेवाले । ४ मोक्षमार्ग। ५ इंद्र। ६ नीलांजना अप“सरा ७ लोकांतिक देव । ८ वचनरूपी सूरजने । रत्नत्रयरूपी जहाज 1.१० शेषके चार अघाति कर्म।.
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हजूरी प्रभातीपद-संग्रह २५ : निवसे वसुम धरा। दौलत जे याको जस गावै,ते : हूँ अज अमरा ॥ भज०॥४॥
__ (यह पद प्रभातीमें भी चलता है) चंद्रानन जिन चंद्रनाथके, चरन चतुर चितः ध्यावतु है। कर्मचक्र चकचूर चिदातम, चिनमूरतपद पावतु है । चंद्रा० ॥ टेक ॥ हाहा हूहू नारद तुंवर, जासु अमल जस गावतु हैं । पद्मा शची शिवा श्यामादिक, करघर वीन वजावतु है। चंद्रानन० ॥१॥विन इच्छा उपदेशमाहि. हित, अहित जगत-दरसावतु है । जा-पद-तट सुरनरमुनि-घट-चिर, विकट विमोह नशावतु है ॥ चंद्रानन० ॥२ ॥ जाकी चंद्रवरन तनः दुतिसों कोटिक सूरै छिपावतु हैं। आतमज्योतउद्योत मांहि सव,ज्ञेय अनंत दिपावतु है। चंद्रा: नन०॥३॥ नित्य उदय अकलंक अछीनसु मु. १ हाहा इहू नारद और तुंवर ये चार जातिके गन्धर्व देव हैं। २ सूरज । ३ पदार्थ । .
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जैन ' पदसागर प्रथमभाग
निउचित रमावतु है । जाकी ज्ञानचंद्रिका लोकालोक, माहिं न समावतु है। चंद्रानन० ॥ ४ ॥ साम्यैसिंधुवर्द्धन जगनंदन को शिर हरिगन नाव हैं। संशय विभ्रम मोह दौलके, हर जो जग भरमावतु हैं | चंद्रानन० ॥ ५ ॥
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जय जिन वासुपूज्य शिव-रमनी रमन मर्दैनदनुदारन हैं | बालकाल संजम संभाल रिपु मोहेव्याल - बलमारन हैं | जय जिन० ॥ टेक ॥ जाके पंचकल्यान भये चंपापुर में सुखकारन हैं। वासवैवृंद अमंद मोदधर, किये भवोदधि-तारन हैं ॥ जयजिन० ॥ १ ॥ जाके वैनसुधा त्रिभुवन जन, को भ्रमरोग विदारन है । जा गुन चिंतन अमल अनल मृतु, जनम- जराबन - जारन हैं ॥ जयजिन०॥२॥जाकी अरुन शांत छबि रवि भा
१ मुनिरूपी तारोंका चित २ समतारूपी समुद्रकोव दानेवाला । .. ३ जगतको आनंद करनेवाला चंद्रमा । ४ कामदेवरूपी राक्षसको मारनेवाले ! ५ मोहरूपी सांपका । ६ इन्द्रोंके समूह ।
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Swamirmire
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह दिवसप्रबोधप्रसारन हैं । जाके चरन शरन सुरतरु, वांछित शिवफल विस्तारन हैं ॥ जयजिन० ॥३॥जाको शासन सेवत मुनि जे, चार ज्ञानके धारन हैं । इंद्र फणींद्र मुकुटमणि दुति जल, जापद कलिल पखारन हैं ।। जय जिन ॥ ४॥ जाकी सेव अछेवै रमाकर, चहुं. गति-विपति-उधारन हैं। जा अनुभवधनसार सु आकुल, तापकलाप निवारन हैं॥ जय०॥५॥ द्वादश मो जिन चंद्र जासवर, जस उजासको पार न है। भक्तिभारतें नमें दौलके चिर-विभावदुख टारन हैं । जयजिन ॥६॥
... [५] .. कुंथुनके प्रतिपाल कुंथु जग, तार सार गुन घारक हैं। वर्जितग्रंथ कुपंथवितर्जित, अर्जितपथ अमारक हैं ॥ कुंथुनके० ॥ टेक ॥जाकी
१ पाप २ अक्षय (मोक्ष ) लदमीकी करनेवाली ३ जिनका अनुभवरूपी मलयागिरि चंदन | ४.छोटे ५ जीबोंके भी ५ परिग्रह रहित । ६ अहिंसामार्गके आर्जन करनेवाले ।
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२८ जैन पदसागर प्रथमभाग . समवसरन बहिरंग,रमा गर्नधार अपार कहैं।
सम्यग्दर्शन-बोध चरन अध्यात्म-रमा-भर-भारक हैं ॥ कुंथुनके०॥ ३॥ दशधाधर्मपोतेकर भव्यन, को भवसागर-तारक हैं । वर समाधि-वन-धनविभाव-रज, पुंजनिकुंजनिवारक हैं ॥ कुंथुनके० ॥२॥ जासु ज्ञाननभमें अलोकजुत,लोक यथा इक तारक है । जासु ध्यान हस्तावलम्ब दुख, कूप-विरूप-उधारक हैं। कुंथुनके० ॥३॥ तज छखंडकमला प्रभु अमला, तप-कमला-आगारक हैं । द्वादश सभासरोजसूर भ्रम, तर अंकूर उपारक हैं । कुंथुनके० ॥४॥ गुण अनंत कहि लहत अंत को ? सुरगुरुसे बुध-हारक हैं । नमें दौल हे कृपाकंद भव, द्वंद्व टार बहुबार कहैं । कुंथुनके ॥५॥
[६]. पास अनादि अविद्या मेरी हरनपास-पर१ गणधर । २ दशलक्षणधर्मरूपी जहाज द्वारा छहखंडकी राज्य लक्ष्मी । ३ तारा । ४ फांसी | ५ पार्श्वनाथ भगवान ।
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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह ___२९ मेशा हैं। चिद्विलाससुखरास प्रकाश-शवितरन त्रिभोनदिनेशा हैं ॥ टेक ॥ दुर्निवार कन्दर्पसर्पको, दर्पविदरनखगेशा हैं। दुठे शठ कमठउपद्रव-प्रलय-समार-सुवर्ण-नगशा हैं ।। पास० ॥१॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्शवल, सुख अनंत परमेशा हैं । स्वानुभूति रमनीवर भविभव, गिरपवि शिवसदमेशा हैं ॥ पास०॥ २॥ ऋषि मुनि यति अनँगार सदा तस, सेवत पर्दिकुशेसा हैं। वंदनचंद्रत झरै गिरामृत, नाशन जनमकलेशा हैं ।। पास० ॥ ३ ॥ नाममंत्र जे जपैं भव्य तिन, अंध-अहि नशत अशेषा हैं । सुर
१ चेतन ( जीव ) के विलासरूपी सुखकी राशि प्रकाशको प्रकाश दान करनेवाले तीन लोकके सूर्य । २ दुखसे निवारा जाय ऐसे कामरूपी सर्पका गर्व दूर करनेके लिये खगेश कहिं गरुड़ हो । ३ दुष्टमूर्ख कमठकृत उपसर्ग रूपी प्रलयकालकी आंधींको रोकनेकेलिये सुमेरु पर्वत हैं। ४ अनन्त दर्शन ज्ञान सुख वलरूपी लक्ष्मीके ईश | ५ आत्माकी अनुभूतिरूपी रमनीके पति । ६ भव्यजनोंके संसाररूपी पर्वतको तोड़नेके लिये वज्र ।.७ एक प्रकारके संयमी । चरण कमल । १ मुखरूपी चन्द्रमासे । १० वाणीरूपी अमृतः ११ पापरूपी सर्प नाश हो जाते हैं सबके सब ।
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३०
जैन पदसागर प्रथमभाग अहमिंद्र खगेंद्र चंद्र है, अनुक्रम होहिं जिनेशा हैं ॥ पास ॥ ४ ॥ लोक अलोक ज्ञेय-ज्ञायकर्षे रत निजभाव विदेशा हैं । राग विना सेवक जनः तारक, मारक मोह न देपा है ॥ पास० ॥५॥ भद्र-समुद्र-विवर्द्धन, अदभुत पूरन चंद्र सुवेशा हैं। दौल नमैं पद तासु जानु शिवथल समेद: अचलेशा हैं ।। पास०॥६॥
जय शिवकामिनिकंत वीरें भगवंत अनंत सुखाकर हैं। विधि गिरिगंजन बुध मनरंजनभ्रमतम-भंजन भाकर हैं ।। जय शिव० ॥ टेक॥ जिन उपदेश्यो दुविधर्म जो, सो सुरसिद्धरमाकर हैं। भविउर-कुमुदनिमोदन भवतप, हरन
१ लोक अलोक संबंधी समस्त पदार्थोके जानते हुए भी । २ चैतन्यरूपी निज भावोंमें ही मगन हैं | ३ कामदेव | ४ कल्याणरूपी समुद्रको बढाने वाले अद्भुत मनोहर चन्द्रमा हैं । ५ मोक्ष स्थान जिनका सम्मेद शिखर पर्वतराज है।
१ महावीर भगवान ।२ कर्मरूपी पर्वतके नष्ट करनेवाले ।३ सूर्य । ११ दो प्रकारका धर्म गृहस्थ और मुनिका । ५ वर्ग मोक्ष लक्ष्मीका करनेवाला १६ भव्यपुरुषोंकी हृदयरूपी कुमुदिनीको प्रफुल्लित कर
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हजूरी प्रभाती पद - संग्रह
३१
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अनूप निशाकर हैं || जय शिव० ॥ १ ॥ परम विरागि रहें जगतै पै, जगत-जंतु रक्षाकर हैं। इंद्र फनींद्र खगेंद्र चंद्र जगठाकर ताके चाकर हैं ॥ जय शिव० ॥ २ ॥ जासु अनंत सुगुन मणिगननित, गनत गनीगन थाक रहैं । जा प्रभुपद - नवकेवललब्धि सु, कमलाको कमलाकर हैं । जय शिव० ॥ ३ ॥ जाके ध्यानकृपान रागरुप,. पासहरन समताकर हैं। दौल नैम कर जोर हरन भव, वाघा, शिवराधाकर हैं ॥ जय शिव०॥४॥ (=) उरग-रग- नरईश शीस जिस आतपेत्र त्रिधरे । कुंदकुसुमैसम चमर अमरगन, ढारत मोद भरे ॥ उरग० ॥ टेक ॥ तरु अशोक जाको अवलोकत, शोक थोक उजरे । पारजात संतानकादिके, वरसत सुमन व रे ॥ उरगः ॥ १ ॥
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नेकेलिये संसाररूपी तापको हरनेकेलिये अनुपम चंद्रमा है । ७ घ्यानरूपी तरवार से राग रोपकी फांसी काटनेवाले । ८ समताकी खानि । १ छत्र । २ तीन धरे । ३ कुंदके फूल समान ।
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जैन पदसागर.प्रथमभाग सुमणि विचित्रपीठ अंबुजपर राजत जिन सुथिरे वर्ण-विगति जाकी.धुनिको सुनि, भविभवसिंधु तरे। उरग० ॥२॥ साढेवारहकोडिजातिक, वाजत तूर्य खरे। भामंडलकी दुति अखंडने, रवि शशि मंद करे ॥ उरग०॥३॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्शबल, शर्म अनंत भरे। करुणामृत पूरित पदजाके, दौलत हृदय घरे । उरग॥४॥
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भविनसरोरुहसूरै भूरिगुनपूरित अरहता। दूरितदोष मोखपद. घोषत, करत कर्मअंता ॥ भविन० ॥ टेक ॥ देशबोधते युगपतिलखि जाने जुभावऽनंता। विगताकुल जुतसुखअनंत, विन,-अंत शक्तिवंता। भविन०॥१॥जातन जोत-उदोत-थकी रवि, शशि दुति लाजता।तेज थोक अवलोक लगत है, फोक सचीकता ।। भविन० ॥२॥ जास.अनूपरूपको निरखत, हर- १ अक्षररहित । २ वाजे । ३ भव्यरूपी कमलोंको सूर्य । ४ दोष रहित । ५ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे । ६ आकुलतारहित । ७ फीका ! ८ इंद्र.। .
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--.:., हजुरी पद संग्रह |
饌
खत हैं संता । जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुन सुन, परंगैर उगलंता ॥ भविन० ॥ ३ ॥ दोल तौल विन जस तस वरमत, सुरगुरु अकुलंता ।
नामाक्षर सुन कान खानसे रॉक नाकगता ॥ भविन० ॥ ४ ॥
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(१०.)
| हमारी वीर हरो भव पीर | हमारी० ॥ टेक ॥ मैं दुख पतित दयामृतसर : तुम, लखि आयो तुम तीर । तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोहद'वानलनीरं । हमारी० ॥ १ ॥ तुम विन हेत नम्र.त उपकारी, शुद्ध चिदानंद धीर । गनपतिज्ञानसमुद्र न लंघे, तुमगुनसिंधु गँहीर | हमारी ● ॥ ॥ २ ॥ याद नहीं मैं विपत सही जो, घर घर अमित शरीर । तुम-गुन: चिंतत नशत दुःख भय ज्यों घन चलतः समीर | हमारी० ॥ ३ ॥ कोटिंबारकी अरज यही है, मैं दुख सहू अंधीर ।
!
१ अपने गुणोंका मनन करके । २ पररागरूपीं विपं । ३ अपरिर्मित
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8 वृहस्पति । ५. . रंक - नाचीज । ६. स्वर्ग गया । ७ बहुत ऊंडा ।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
हरहु वेदनाफेद दौलको, कतर करम-जंजीर ॥ हमारी० ॥ ४ ॥
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( ११ )
सब मिलि देखो हेली म्हारी है, त्रिशलाबाल वदन रसाल ॥ सव० ॥ टेक ॥ आये जुत सम वसरन कृपाल, विचरत अभय व्यालमराल | 'फलित भई सकल तरुमाल | सब मिल० ॥ १ ॥ नैन न हालै भृकुटी न चाले, वैन विदारै विभ्रम "जाल । छवि लख होत संत निहाल । सब मिल| " ॥ २ ॥ वंदन काज साज समाज, संगलिये वजन पुरजन ब्राज, श्रेणिक चलत है नरपाल ॥ सब मिल० ॥३॥ यों कहि मोद जुत पुरवाल लखन चाली चरम जिनपाल, दौलत नमत कर घर भाल || सब मिल० ॥ ४ ॥
. ( १२ )
अरि-र-रईसि हनन प्रभु अरहन, जैवंतो , जगमें | देव अदेव सेवकर जाकी, घरहिं मौलि
१। मोह । २. ज्ञानावरण दर्शनावरणकर्म । ३ अंतराय |
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हजूरी पद-संग्रह। ३५ पगमें ॥ अरिरज०॥ टेक ॥ जा तन अष्टोत्तर सहस्र लक्खन लखि कलिल शमै ।जा वच-दीपशिखातें मुनि विचर शिवमारगमैं । अरिरज० ॥१॥जास पासतें शोकहरनगुन, प्रगट भयो नर्गमें। व्यालमराल कुरंगसिंघको, जातिविरोध गमै ॥ अरिरज० ॥२॥ जा जस-गगन-उलं.
घन कोऊ, क्षमै न मुनीगनमैं । दौल नाम तसु • सुरतरु है या, भवमस्थलमगमैं ॥ अरि० ॥३॥
हे जिन तेरे मैं शरणै आया। तुम हो परम दयाल जगतगुरु, मैं अब भवदुखपाया॥ हे जिन ॥टेका। मोहमहादुठ घेरिरह्यो मोहि, भव कानन भटकाया। नित निजज्ञानचरननिधि विसरचो, तन धन करअपनाया है जिन०॥१॥निजा नंद अनुभव-पियूष तज, विषय हलाहल खाया। मेरी भूल मूल दुखदाई, निमितमोहविधियाया। ११ अशोक वृक्षों । २ समर्थ । ३ संसाररूपी मारवाङ्देशके बिकट मार्गमें। 2. अमृत।.
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३ जैनपदसागर प्रथमभागहे जिन० ॥२॥ सो दुठहोत शिथिल तुमरे ढिग
और न हेतु लखाया। शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुजश मुनीगन गाया ॥ हे जिन ॥३॥ तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया । भिन्न होहुं विधितै सो कीजे, दौल तुम्हें . सिर नाया ।। हेजिन०॥४॥
(१४) हेजिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै। हेजिन०॥ । टेक॥ रागरोषदावानल वत्रि, समतारसमें भीजै ॥ हे जिन० ॥१॥ परमें त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहुं छीजै । हे जिन० ॥२॥ कर्म कर्मफलमाहि नराचे, ज्ञानसुधारस पीजै ॥ ॥ हे जिन० ॥३॥ मुझ कारजके तुम कारन वर, अरज दौलकी लीजै ॥ हे जिन०॥४॥ .. . . . (१५) शामरियोके नाम जपेतें छूट जाय भवभामरिया शामरियांके टेक दुरित दुरित पुन पुरत-फुरत१ कर्मोसे । २ पार्श्वनाथभगवानके । ३. संसारका भ्रमण । १ पाप । ५ भगजाते हैं । ६ पूर्णतया स्फुरित होते हैं । . .:.
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हजूरीपद -संग्रह- 1. गुन, आतंमकी निधि आगेरियां। विघटत है। पर दाहचाह झट, गटकेत समस्सगागरिया । सामरिया के ॥ १ ॥ कटत कलंक कर मकलसायनि, प्रगटत शिवपुरडागैरिया | फटत घटाधनमोहछोह हट, श्रगटत भेदज्ञानघरियां ॥ शाम० ॥ २ ॥ कृपाकटाक्ष तुमारीतें ही, युगलनागविपदा टरिया । धार भए सो मुक्तिरमावर, दौल -नमैं तुव पागरियां | शामरियाके० ॥ ३ ॥
( १६ )
शिवमग दरसावन रार्वरी दरसे ॥ शिवमंग० ॥ ॥ टेक ॥ परपदचाहदा हगदनाशन, तुमवच भेषपान सरस | शिवमग० ॥ १ ॥ गुण चितंवत निज अनुभव प्रगटै, विघटे विधिठ दुविध
१ श्राग जाती है । २ गटकते वा पीते हैं । ३ कर्मरूपी कालिख | : ४ पगडंडी | ५ रागद्वेष । ६ निजपरज्ञानकी घड़ी । ७ तुमारा नामः धारण करके । ८ आपका । १ दर्शन । १० परद्रव्यकीचाह रूपी दाहरोगको नाश करनेकेलिये । ११ तुमारे वचनरूपी दवाईका 'पीना । १२ भावकर्म द्र्व्यकर्मरूपी ठग ।
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३५:
जैनपदसागर प्रथमभाग
तरस || शिवमग० ॥ २ ॥ दौल अवांची संपत्त: सांची, पाय र थिर राचि खेरस || शिव० ॥३॥ ( १७ )
मेरी सुध लीजै रिषभ स्वाम । मोहि कीजे शिव पथैगाम ॥ मेरी० ॥ टेक ॥| मैं अनादि भव भ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम । मोहि मोह घेरा चेरी कर, पेरा चहुंगति विदित ठाम ॥ मेरी० ॥ १ ॥ विषयनि-मन ललचाय हरी मुझ, शुद्ध-ज्ञान-संपति-लैलाम । अथवा यह जडको न दोष मम, दुख सुखता परनति सुकाम ॥ मेरी० ॥ २ ॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुगुर्नग्राम | परम विराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम || मेरी ● ॥ ३ ॥ निर्विकार-संपति कृति तेरी, छविपर वारों कोटि काम | भव्यनिके भव-हारन कारन,
१ अवाच्य - कहने में न आवे ऐसी सम्पत्ति । २ श्रात्मीकरसमें । ३. मोक्षमार्ग में चलनेवाला । ४ चेला । ५. श्रेष्ठ । ६ गुणोंका समूह । ७ गुणोंकी माला | ८ कामदेव |
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. . . हजूरी पद-संग्रह।, सहज यथा तमहरनघाम ॥मेरी॥४॥ तुमगुनमहिमा कथनकरनको, गिनत गणी निजबुद्धि खाम । दौलतणी अज्ञान परनती, हे जगत्राता. कर विराम ।। मेरी०॥५॥
(१८) मोहि तारोजी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजगं त्रिकालमै । मोहिगाटेक।। मैं भव उदधि परयो दुख भोग्यो, सो दुख जात कयो ना। जामन मरन अनंत तणो तुम, जाननमाहि छिप्यो ना ॥ मोहि० ॥१॥ विषय-विरसरस विषम भख्यो मैं, चख्यो न ज्ञान सलोनी । मेरी भूल मोहि दुख देवे, कर्म-निमित्त भलो ना ॥ मोहि० ॥२॥ तुम पद-कंज धरे हिरदै जिन, सो भवताप तप्यो ना । सुरगुरुहूके वचनकरनकरि, तुम जैस: गगन नप्यो ना ॥ मोहि ॥३॥ कुगुरु कुदेव .. १ अंधकार नाश करनेके लिये सूर्यका प्रकाश । २ गणधर । ६ निजबुद्धिकी कमी। ४ दौलतकी | ५ नाश । ६ स्वादिष्ट । ७ वचनरूपी हाथोंसे। - तुमारा यशरूपी आकाश ।
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जैनपदसांगर, प्रथमभाग
कुश्रुत सेये मैं, तुम मत हृदय धरयो ना। परम विराग ज्ञानमय तुम जाने विऩ काज सरयो ना ॥ मोहि० ॥ ४ ॥ मो सम पतित न अंवर दयानिधि, पतितैतार: तुमसो ना । दौलतणी अरदास यही है, फिर भक्वास वसो ना ॥ मोहि० ॥ ५ ॥
( १९ )
i.
मैं आयों जिन संरन तिहारी । मैं चिर दुखी विभांव भावते, स्वाभाविक निधि आप विसारी ॥ मैं० ॥ १ ॥ रूप निहार धार तुम गुन सुन, वैन सुनत भवि शिवमगचारी । यों भम कारजके कारन तुम, तुमरी सेव एव उर धारी ॥ मैं० ॥२॥ मिल्यो अनंत जन्मतै अवसर, अव विनऊं हैं
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भर्वैसरतारी । परमें इष्ट अनिष्ट कल्पना, दौल कहै झट-मेट हमारी । मैं आयो० ॥ ३ ॥
( २० )
मैं. हररूयो निररूयो मुख तेरो । नासान्यस्त
१. पापी । २ पापियोंका 'तारनेवाला । ३ अर्जी । ४ संसार समुद्रसे तारनेवालें । “५'नासिकापर लगाई है दृष्टि जिसने ।
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हजूरी पद- संग्रह |
४.१.१
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नयन - हलय न, वैयन निवारन मोह-अंधेरो । मैं. हररूयो० ॥ १ ॥ परमें कर मैं निजबुधि अवलों, भवसर मैं दुख सह्यो घनेरो । सो दुख-भानन स्वपर पिछानन, तुम बिन कारन आन न हेरथो || मैं हररूयो० ||२|| चाह भई शिवहिला हकी गयो उछाह असंजमके । दौलत हितविराग-चित आन्यो, जान्यो रूप ज्ञानदृग मेरो | मैं हरख्यो० ॥ ३ ॥
3
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(. २१ )
| प्यारी लागे म्हाने जिन छवि थारी || प्यारी ० ॥ टेक ॥ परम निराकुल- पद-दरसावत, वर विरागता-कारी | पट-भूषन-विन पै सुंदरता, सुरनरमुनिमनहारी ॥ प्यारी || १ ||जांहि विलोकत भवि निजनिधि-लहि, चिरविभावता टारी । निर्हेनिमेपते देख सचीपति, सुरंता सफल विचारी ॥ प्यारी ॥ २ ॥ महिमा अंकथ होतं लखि जाको,
२१ न हिलते नहीं । २ वचनं । ३ मोक्षमार्गके लाभकी । ४ टिमकाररहित । ५ इन्द्रने । ६. अपना देवपणां ।
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४२.
जैनपदसागर प्रथमभाग
पशुसम समकितधारी । दौलत रहो ताहि निर खनकी, भवभव देव हमारी ॥ प्यारी० ॥ ३ ॥ ( २२ )
निरखि सुख पायो, जिनमुखचंद ॥ नि० ॥ टेक ॥ मोह-महातम नाश भयो है, उरे - अंबुज प्रफुलायो । ताप नश्यो बढि उदधि- अनंद || निरखि० ॥ १॥ चकवी कुमति विछुरि अति वि लखे, आतमसुधास्त्रैवायो । शिथिल भए सब विधिगणफेद || निरखि० ॥ २ ॥ विकट भवोद धिको तट निकट्यो, अघतरुमूल नशायो । दौल लह्यो अब स्वपद स्वछंद ॥ निरखि० ॥३॥
. ( २३ )
निरखि सखि ऋषिनको ईश यह ऋषभ जिन, परखिके खपर परसोंजें छारी। नैन नाशाधरि मैनें विनशायकर, मौनजुत खास दिशिसुरभिकारी ॥ निरखि० ॥ १ ॥ घरासम शांति
. १. हृदयरूपी कमल । २ आत्मारूपी अमृत भरने लगा । ३ पर परनति । ४ कामदेव । ५ दिशाओंको सुगंधित करने वाली
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४३.
हजूरी पद-संग्रह । जुत नरामरेखचरनुत, विर्युतरागादिमद दुरितहारी | जॉस क्रमपास भ्रमनाश पंचास्य मृग,. वत्सकरि प्रीतिकी रीति धारी ॥ निरखि०||२||. ध्यानद माहि विधिदारु प्रजराहिं सिर, केश शुभ, जिमि धुआं दिशि विर्थारी | फसे जगपंक जनरंक तिन काढने, किधौं जगनाह यह वांह सारी. ॥ निरखि० ॥ ३ ॥ तैहाटकवरन वसन विन आभरन, खरे थिर ज्यों शिखर, मेरुकारी ।. . दौलको दैन शिवधौले जगमाल जे, तिन्हें कर जोर वंदन हमारी । निरख० ॥ ४ ॥
( २४ )
यौनकृपानपानि गहिनाशी त्रेसठ प्रकृति अरी । शेष पचासी लागरही है ज्यों जेवरी जरी
4. mad
१ मनुष्य देव विद्याधरोंसे वंदनीय । २ रहित रागादि मदसे । ३ पापको हरनेवाले । ४ जिसके चरणोंके पास । ५ सिंह । ६ ध्यानरूपी अग्निमें । ७ कर्मरूपी ईंधन । ८ विस्तारा है । १ पसारी । १० तपाये हुये सोनेकांसा रंग । ११ सुमेरु पर्वतका शिखर । १२ मुक्तिरूपी महल । १३ जगनके शिरोमणि । १४ ध्यानरूपी तलवार हाथमें लेकरि । १५ घातिया कर्मोंकी १६ श्रघातिया कर्मोकी पचासी प्रकृतियां ।
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जैनपदसागर. प्रथमभांग॥ध्याना टेक॥दुठ अनंग-मातंग-भंगकर, है: प्रबलंग-हेरी। जा-पदभक्ति भक्तजन दुख-दावानलमेघ झरी ॥ ध्यान ॥ १॥ नवल धवल पले सोहै कलम, क्षुधतृपव्यापिटरी। हलत न पलक अलेक नख वढतन,गति नभांहि करी। ध्यान० ॥३॥ जा-विन-शरन मरन जर घर घर, महा असात भरी। दौल तास पद दास होत है वास-मुक्ति नगरी ॥ध्या.. ३॥
___(२५) दीठा भागनतें जिन-पाला, मोहनाशनेवाला। दीठााटेक॥ शुभग निसंक रागविन यातें, वसन न आयुध वाला ॥ दीठा०॥९॥ जास ज्ञानमें. जुगपत भासत, सकल पदारथमाला ॥ दीठा० '॥२॥ निज़में लीन हीन इच्छा पर, हितमित
११ कामदेवरूपी हाथीको मारनेवाले । २ प्राबल सिंह । ३ मांस रुधिर । ४ शरीरमें। ५ केश.नख । ६ जरा बुढापा । ७ सम्यग्दृष्टीसे. लगाकर बारहवें गुणस्थान तकके जीव जिन कहलाते हैं उनका रक्षक। स्त्री।
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. हजूरी पद-संग्रह। वचन रसाला ॥ दीठा०॥३॥ लखि जाकी छवि आतम-निधि-निज, पावत होत निहाला ॥दीठा० ॥४॥ दौल जांसगुन चिंततरत है, निकट विकट भवनालां ॥ दीठा०॥५॥ . . .(२६). : ...
थारै तो बैनामें सरधान घणोछै म्हारै, छवि निरखत हिय सरसावै । तुम धुनिधन परचहनदहनहर, वरसमतारसझर बरसावै॥थारैतो० ॥ ॥१॥ रूप निहारत ही बुध है सो निजपर चिह्न जुदे दरसावै । मैं चिदंक अकलंक अमल थिर, इंद्रिये सुख-दुख-जड़ फरसावै ॥ थारै तो० ॥२॥ ज्ञानविरागसुगुनतुम-तनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै। मुनि बडभाग लीन तिनमैं नित, दौल धवल उपयोग-रमावै थारै तो० ॥३॥ "१ । वचनोंमें । २ आपका वचनरूपी मेघ । ३ परपदार्थोकी 'चाहरूपी अग्निको बुझानेवाला है। १ चैतन्यखरूप । ५ इंदियों के सुखदुख जड़का स्पर्श करते हैं, मेरा नहीं मुझे सुखदुख- होते नहीं । ६ इंद्र । ५ विशुद्ध वा शुद्ध।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
(२७) । त्रिभुवन आनंदकारी जिन छवि, थारी नैन निहारी॥त्रिभुवनाटिका ज्ञान अपूरव उदय भयो अब, यादिनकी बलिहारी । मो उर मोद वढयो . जुनाथ तस, कथा न जात उचारी ॥ त्रिभुवन ॥१॥ सुन धनघोर मोर-मुद-ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी । जाहि लखत झट झरतमोह-रज, होय सो भवि अविकारी ॥ त्रिभुवन
॥२॥ जाकी सुंदरता सुपुरंदरे,-शोभ-लजावन - 'हारी । निज अनुभूति-सुधा छवि पुलकित, वदन मदन-अरि-हारी । त्रिभुवन० ॥३॥ शूल दुकूल न बाला माला, मुनि-मन-मोद-प्रसारी । अरुन 'न नैनन सैन भ्रमै न न, बंक न लंके सम्हारी ॥ 'त्रिभुवन ॥४॥ तातै विधि-विभाव-क्रोधादि, न लखियत हे जगतारी । पूजत पातकपुंज पला. वत, ध्यावत शिव-विस्तारी॥ त्रिभुवन ॥५॥ कामधेनु सुरतरु चिंतामणि, इकभव सुख-करतारी । तुमछवि लखत मोदत.जो सुर, सोतुम .. १ । मयूरका हर्ष । २ इंद्रकी शोभाः। ३ त्रिशूल। ४ वस्त्र । ५कमर।
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. हजूरी पद-संग्रहः ।. :१७ पद-दातारी ॥ त्रिभुवन०॥६॥ महिमा कहत न लहत पार सुर-गुरुहकी बुधिहारी और कहै किम ? दौल चहै इम, देहु दशा तुम धारी॥ त्रिभुवन० ॥७॥
(२८) जिन छवि तेरी यह, धन जगतारन, जिन० ॥ टेक ॥ मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न, शमदम कारन भ्रमतमवारन ।। जिनछवि०॥१॥ जाकी प्रभुताकी महिमाते, सुरै-अधीशता लागत सार न ॥ अवलोकत भवि-थोक मोख-मग, चरत वरत निज-निधि उरधारन । जिनछवि० ॥२॥ जत भजत अघतो को अचरज,समकित पावन भावन-कारन । तासु सेवफल एव चहत नित, दालत जाके सुगुनउचारन ।। जिनछवि०॥३॥
(२९) . आज मैं परम पदारथ पायो, प्रभुचरनन १ जटा वा वल्कल । २ फूलोंकी माला -1३ बन्न । ४ इन्द्रपणा। ५ आँपके पूजनेसे यदि पाप भाग जाते हैं तो इसमें कौनसा आश्चर्य है। .
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"४८ बैनपदसागर प्रथमभागचितलायो आज मैंगाटेक ॥ अशुभ गये शुभ प्रगट भएं हैं, सहज कल्पतरु छायो ।आज०॥ .॥१॥ ज्ञान शक्ति तप ऐसी जाकी, चेतन-पद दरसायो । आज मैं०॥२॥ अष्ट कमरिघु जोधा जीते, शिवअंकूर जमायो॥ आज॥३॥
(३०) नैमिप्रभूकी श्यामवरन छवि, नैनन छाय रही ।। नेमि०॥टेक ॥ मणिमय तीन पीठपर अंबुज, तापर अधर ठही । नेमि०॥१॥ मार मार तप धार जार विधि, केवलरिद्धि लही। चार तीस अतिशय दुति-मंडित, नवदुर्गदोप नहीं ॥ नेमि ० ॥ ३॥. जाहि सुरासुर नमत सततै, मस्तकतें परस मही। सुरगुरुवर-अंबुजा प्रफुलावन, अदभुतभान-सही । नेमि० ॥४॥ धर अनुराग विलोकत:जाको, दुरित नसें सब ही। दौलत महिमा अतुल जासकी, कापै जात कही। नेमि०॥४॥ -- - .. १ कामदेवको मारकर। २ नवदुगुण-अष्टादश दोष नीरतर । ४ पृथिवी । ५ अपूर्व सूर्य ।
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हजूरी पद - संग्रह । : ३१] अहो नमिजिनपे नित नमतशत सुरंप कंदैर्प- गजदर्प- नासन प्रवल पनलपैन । अहो ! ॥टेक॥ नाथ ! तुम वानंपयपान करत भवि, नसै तिनकी जरा-मरन - जामन- तपन ॥ अहो ० ॥ - ॥ १ ॥ अहो शिवभौन तुम चरनचिंतौन जे, करत तिन जरत भावी दुखदभवविपनं । हैं भुवनपाल तुम विशदंगुनमाल उर घरें, ते लहैं
कामें पन | अहो नमि० ॥ २ ॥ अहो गुनतूपं तुमरूप चखसहसकर, लखत संतोष प्रापति भयो नाकर्षं न । अर्जे अकले तज सकल दुखद परिगह कुर्गेह, दुसहपरिसह सही घार व्रतसारपन || अहो नमि० ॥ पाय केवल सकल लोक करवत लख्यो, यो वृष द्विधा सुनि नसत
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४९
१ नमिनाथ भगवान । २ सौद । ३ कामदेव । ४ पंचानन सिंह । ५ भविष्यमें दुख देनेवाले । ६ संसार वन । ७ खच्छ । श्रेष्ठ -ता । ६ गुणोंके समूह । १० इन्द्र । ११ जिसका श्रागेको जन्म न हो । १२ निष्पाप । १३ खोटे · ग्रह । १४ उपदेश्यो ।
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५० जैनपदसागर प्रथमभागअमतम-झपन । नीच कीचक कियो मीचते रहित जिम,दासको पास ले नाश भवपासपन ॥ अहो नमि०॥४॥
(३२) भु मोरी ऐसी बुधि कीजिये, रागदोष दावानलसे बच, समतारसमें भीजिए॥ प्रभु०॥ टेक॥ परमै त्याग अपनपोनिजमें, लागन कबहूं लीजिए। कर्मकर्मफलमांहि न राचत, ज्ञानसुधारस.पीजिए ॥ प्रभु०॥१॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरननिधि, ताकी प्रापति कीजिए। मुझ कारजके तुम बडकारन, अरज दौलकी लीजिए। प्रभु०॥२॥
(३३). 'हेजिन तेरोसुजसं उजागर गावत हैं मुनिजन बानी, हे जिन० ॥ टेक ॥ दुर्जय मोह-महा-भट जाने, निज-नस कीने जगपानी । सो तुम "-१ ढक्कन २ मृत्युसे। ३ दौलतको । ४ पंचपरिवर्तनरूप संसारकी . फांस। ५ इस. पदके दौलतरामजीकृत होनेमें संदेह है । ६ न्यून होवै।
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हजूरी पद संग्रह..
१५४१२
"ध्यानकृपान पानि गहि, ततछिन ताकी थिति भानी ॥ हे जिन० ॥ १ ॥ सुप्त अनादि अविद्या: निद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी । है सचेत तिनि निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुम वानी ॥ हे जिन० ॥ २ ॥ मंगलमय तू जगमें उत्तम, तुही सरन शिवमगदानी | तुम-पद-सेवा परम औपत्री, जन्मजेरामृत -गद-हानी ॥ हे जिन० || ३ || तुमरे पंचकल्यानकमाहीं, त्रिभु वन-मोद-दशा ठानी | विष्णु, विदंवर, जिष्णु, दिगंबर, बुध. शिव, कहि ध्यावत ध्यानी ॥ हे जिन० ॥ ४ ॥ सर्व- दर्व गुनपर जय-परनति, तुम सुबोंधर्मे नहिं छानी । तातें दौलदास उरआशा, प्रगट करो निजरससानी ॥ हें जिन० ॥ ५ ॥
( ३४ )
हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिनजी, मो भवजलधि क्यों न तारत हो ? हो तुम० ॥टेक॥ अर्जुन कियो निरंजन तातैं, अधम उधार- विरद धारत
१ जन्मजरामरनरूपी रोग । २ अंजनचोरको । ३ कर्मरहित- 1:
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. ५२
जैनपदसागर प्रथमभाग
हो । हरि वरोह मर्कट झट तारे, मेरी बेर ढील पारत हो ॥ हो तुम ० ॥ १ ॥ यों बहु अधम उधारे तुम तो, मै कहा अधम न ? मुहि टारत हो। तुमको करनो परत न कछु शिव, -पथ लगाय भव्यनि सारत हो । हो तुम ० ॥ २ ॥ तुम छवि निरखत सहज टरै अघ, गुण चिंतत विधि-रज झारत हो । दौल न और चहै मो दीजै, जैसी आप भावनारत हो । हो तुम० ॥ ३ ॥ .
(३५)
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और अबे न कुदेव सुहावै, जिन थांके चरनन - रति जोरी ॥ और० ॥ टेक ॥ काम-कोह-वश गर्दै असन असि, अंक निशंक घरै तिय गौरी । औरनके किम भाव सुधारें ?, आप कुभाव-भारघर -घोरी || और० ॥१॥ तुम विनमोह अको हैछोहबिन, छके शांतरसपीय कटोरी । तुम तर्ज सेय 'अमेयँ भरी जो, विपदा जानत हो सब
१ सिंह । २ सूअर । ३ बंदर । ४ गोदमें । ५ क्रोधरहित । ६. तुम्हें छोडकर जो मैं दूसरेकी सेवा करके । ७ अपरिमाण !
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AAD
- हजूरी पद-संग्रह।..: ५३ 'मोरी॥और ॥२॥तुम तज तिन्हें भजे शठ जो
सो, दाख न चाखत.खात निमोरी। हे जगतार! उधार दौलको, निकट विकट-भव-जलधि हिलोरी । और०॥३॥
(३६) प्रभु थारी आज महिमा जानी, प्रभुथारी॥ ॥ टेक ॥ अवलों मोहमहामद पिय मैं, तुमरी सुध विसरानी । भागजोगतुम शांति छवी लखि जडतानींद बिलानी ॥ प्रभु०॥१॥जग-विजयी दुखदाय रागरुष, तुम तिनकी थिति भानी। शांतिसुधासागर गुनागर,परम विराग विज्ञानी ॥ प्रभु०॥३॥ समवसरन अतिशय कमलाजुत, पै निरग्रंथ निदानी। कोह-विना दुठमोहविदारक; त्रिभुवनपूज्य अमानी॥प्रभु०॥३॥ एकखरूप सकलज्ञेयाकृतं, जगउदास जगज्ञानी। शत्रुमित्र सवमैं तुम सम हो, जो दुखसुखफलथानी ॥ प्रभु०॥४॥ परम ब्रह्मचारी है प्यारी, तुम हेरी १ भवसमुद्रकी लहरें।
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१ जैनपदसागर प्रथमभागशिवरानी है कृतकृत्य तदपि तुम शिवमग, उपदेशक-अगवानी । प्रभु०॥५॥ भई कृपा तुमरी तुममें यह, भक्ति सु मुक्तिनिशानी। है दयाल अब देह दौलको, जो तुमने कृति ठानी ॥ प्रभु०॥६॥ .. . (३७) 'तुम सुनियो श्रीजिनराजा! अरज इक मेरीजी ॥ तुम० ॥ टेक ।। तुम विनहेत-जगतउपकारी वसुकर्मन मोहि कियो दुखारी, ज्ञानादिक निधि हरी हमारी, द्यावो सो ममकेरीजी॥ तुम० ॥१॥ में जिन! भूलि तुमहिं सँगै लाग्यो,तिनकृत करन विषयरसपाग्यो, तातै जन्मजरादव-दाग्यो करि समता मम नेरीजी ॥ तुम०॥ ॥वे अनेक प्रभु मैं जु अकेला, चहुंगतिविपतिमाहि मोहि पेला, भाग जगे तुमसे भयो भेला, तुम होन्यायनिवेरी जी ॥ तुम०॥३॥ तुम दयाल बेहाल, इमारो, जगतपाल निज बिरद सँभारो, ढील . १ कोंके संग।
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हजूरी पद-संग्रह। न कीजै वेगि निवारो, दौलतणी भवफेरी जी ॥ तुम०॥४॥
(३८) जय वीर जिनवीर जिनवीर जिनचंद,कलानिकंद मुनिहदसुखकंद॥जयगाटेका सिद्धारथ नंद त्रिभुवनको दिनेंद चंद, जावचकिरन भ्रमः तिमिरनिकंद । जय०॥१॥ जाके पद अरविंद सेवत सुरेंद्र बूंद, जाके गुन रटत फटत भवन फंद ॥ जय० ॥२॥ जाकी शांतमुद्रा निरखत. हरखत रिखि, जाके अनुभवत लहत चिदानंद
जय॥३॥ जाके घातिकर्म विघटत प्रघटत भये, अनंतदरस-वोध-वीरज-अनंद॥जय० ॥४ लोकालोकज्ञाता पै स्वभावरत राता प्रभु, जगको कुशल-दाता त्राताप अद्वंद ॥ जय० ॥५॥ जाकी महिमा अपार गणी न सके उचार, दौलत नमत सुख चहत अमंद ॥ जय० ॥६॥
(३९) जय श्रीरिषभजिनंदा, नासतो करौखामी मेरे
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५६. जैनपदसागर प्रथमभागदुखदंदा टेका। मातु मरुदेवी प्यारे, पिता नाभिके दुलारे, वंश तो इक्ष्वाक जैसें नम वीच चंदा. ॥ जय० ॥१॥ कनक वरन तन, मोहत भविक जन, रवि शशि कोटि लाजै, लाजै मकरंदा॥ ॥ जय० ॥२॥दोष तो अठारा नासे, गुन छियालीस भासे, अष्टकमकाट स्वामी, भये निरफंदा ॥ जय० ॥३॥ चार ज्ञानधारी गनी, पार नहिं पावै मुनी. दौलत नमत सुख चाहत अमंदा ॥ ॥ जय० ॥४॥
सुधि लीज्योजीम्हारी.मोहि भवदुखदुखियाजान के,सुधि लीज्योजीम्हारी॥टेकातीनलोक खामी नामी तुम, त्रिभुवनकेदुखहारी। गनधरादितुव सरन लई लखि, लीनी सरन तिहारी ॥ सुधि ॥१॥जो विधि अरीकरी हमरी गति,सोतुमजानत सारी! यादकिये दुख होत हिये ज्यों, लागत कोट कसरी ॥ सुधिः ॥२॥ लन्धिअपर्याप्त र कामदेवें ।
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हजूरीपद - संग्रह | निगोदमें, एक उसासमझारी । जनममरन नव दुगुन विथाकी, बात न जात उचारी ॥ सुधि० ॥ ३ ॥ भू जल ज्वलन पवन प्रत्येक तरु, विकलः त्रयतनधारी | पंचेंद्री पशुनारकनरसुर, विपति भरी भयकारी ॥ सुधि० ॥ ४ || मोहमहारिपु नेक न सुखमें, होन दई सुधि थारी । सो दुठ मंद भयो भागनतें, पाये तुम जगतारी ॥ सुधि० ॥ ५ ॥ यदपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगट करतारी | न्यों रविकिरन सहज मगदर्शक, यह निमित्त अनिवारी ॥ सुधि० ॥ ६ ॥ नाग छाग गज बाघ भीलदुठ, तारे अधम उधारी । सीस नवाय पुकारत अब तो दौल अधमकी वारी ॥ ॥ सुधि० ॥७॥
( ४१ )
जाऊं कहां तज शरन तिहारे, जाऊं ॥ टेक ॥ चूक अनादितणी या हमरी, माफ करो करुणा गुणधारे ॥ जाऊं० ॥ १ ॥ डूबत हों भवसागर में अब, तुम विन को मुहि बार निकारे । तुम सम
१ अठरह । २ पृथिवीकाय । ३ अग्निकाय
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जैनपदसागर प्रथमभागदेव अवर नहिं कोई, तातें हम यह हाथ पसारे ॥ जाऊं० ॥२॥ मोसम अधम अनेक उधारे, वरमत हैं श्रुत शास्त्र अपारे। दौलतको भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे॥जाऊ॥३॥
३। भागचंदकृत पद।
. (४२) वीतराग जिन महिमा थारी, वरन सकेको जन त्रिभुवनमैं ॥ वीतराग० ॥ टेक ॥ तुमरे अतट चतुष्टय प्रगटयो, निःशेषावरनच्छय छिनमैं। मेघपटल विघटनतें प्रगटत, जिम मार्तंडप्रकाश गगनमें ॥ वीतराग ॥ १॥ अप्रमेय ज्ञेयनके ज्ञायक, नहिं परिणमत तदपि ज्ञेयनमें । देखत नयन अनेकरूप जिम, मिलत नहीं पुनि निज विषयनमैं ॥ वीतराग०॥२॥निज उपयोग
आपणे स्वामी, गाल दिया निश्चलआपनमैं । है असमर्थ वाह्य निकसनको, लवण घुला जैसे जीवनमैं ।। वीतराग०॥३॥ तुमरे भक्त परम १ सूर्यका प्रकाश ..२ जलमें।.
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हजूरी पद-संग्रह सुख पावत, परत अभक्त अनंत दुखन मैं । जैसो मुख देखो तैसा है, भासत जिम निर्मल दरपन"मैं ॥ वीतराग० ॥ ४ ॥ तुम कषाय विन परम शांत हो, तदपि दक्ष कर्मारिहतनमें | जैसे अति शीतल तुषार पुनि, जार देत द्रुमभारें गहन में । ॥ वीतराग॥५॥ अव तुम रूप जथारथ पायो, अव इच्छा नहिं अन कुमतनमैं । भागचन्द अमिरत रस पीकर, फिर को चाहै विप निज मनमैं || वीतराग० ॥ ६ ॥
४३ । राग जंगला ।
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तुम गुनमनिनिधि हो अरहंत । तुम० ||१|| ॥ टेक ॥ पार न पावत तुमरो गनपति, चार ज्ञानघर संत ॥ तुम गुन० ॥ १ ॥ ज्ञानकोष सब दोषरहित तुम, अलख अमूर्ति अचिंत ॥ तुम गुंन० ॥ २ ॥ हरिगन अरचत तुमपद-वारिज, परमेष्ठी भगवंत ॥ तुम गुन० ॥ ३ ॥ भागचंद के १ चतुर । २ कर्मशत्रुयोंके मारनेमें । ३ हिम - बरफ | ४ वृक्षोंका समूह | ५ वनमें |
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जैनपदसागर प्रथमभाग
घटमंदिर, बसहु सदा जयवंत ॥ तुमगुन ०४ ४४ । राग जंगला |
म्हांके जिनमूरति हृदय बसी बसी ॥ टेक ॥ यद्यपि करुणारसमय तद्यपि, मोहशत्रुहन-असी: असी || महांके || २ || भामंडल ताको अति निर्मल, निष्कलंक जिम ससी ससी ॥ म्हां कै० ॥ ॥ २ ॥ लखत होत अति शीतलमति जिम, सुधाजलधिमैं घसी घसी ॥ म्हांकै० ॥ ३ ॥ भागचंद जज ध्यानमंत्रसों, ममता नागन नसी नसी ॥ म्हाँकै ॥ ४ ॥
४५ । राग सोरठ।
.. इष्ट जिनकेवली, म्हांकै इष्टजन केवली, जिन सकल कलिमल दली ॥ टेक ॥ शांत छबि जिन की विमल जिम, चंद्रदुति मंडली | संत-जनः मन के कि-तर्पन, सघन घन पोटली ॥ इष्टजिन ॥ १ ॥ स्यात्पदांकित धुनि सु. जिनकी, बंदनतें
*. १६१. मानरूपी मयूरको खुश करनेके लिये । २ मेघपटलं । ३ स्याद्वाद से चिह्नित ।
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• हजरी पद-संग्रह... . निकली । वस्तु तत्त्वप्रकाशिनी जिम, भानु किरनावली । इष्टजिन० ॥२॥जास-पद-अरविंदकी, मकरंद अति निरमली। ताहि प्रान करें नमित हरि,मुकुटद्धतिमनि,अली ॥ इष्टजिनः॥३॥ जाहि जजत विराग उपजत, मोहनिद्रा टली। ज्ञानलोचनत प्रगट लखि, घरत शिक्वटगली ॥ इष्टजिनः॥४॥जासु गुन नहिं पार पावत, बुद्धिरिद्धिबली । भागचंद सु अल्पमति जन, की तहां क्या चली । इष्टजिन०॥५॥ •
४६ : राग सोरठ । खामी मोहि अपनो जान तारो, या विनती अब चित धारो।। टेक ।। जगत उजागर करुनासागर, नागर नाम तिहारो ॥ स्वामी० ॥१॥ भव अटवीमें भटकत भटकत, अब मैं अति ही हारचो।। स्वामी० ॥२॥ भागचन्द स्वच्छंद ज्ञानमय, सुख अनंत विस्तारो॥स्वामी० ॥३॥ १ चरण कमलकी । २ सुगंधित रज । ३ उसको सूंघते हैं नमित हुये इंद्रोंके मुकुटाके मणि रूपी भवरे । ४ बुद्धिरिद्धिके धारक ।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
४७. राग सोरठ। · खामीजी तुम गुन अपरंपार, चंद्रोबल अवि कार । स्वामी जी० ॥ टेक ।। जवै तुम गर्भमाहि आये, तवै सब सुरगन मिल धाये, रतन नग. रीमै वरसाये, अमित अमोध सु ढार ॥ स्वामी जी०॥१॥जनम प्रभु तुमने जब लीना, न्हवन मंदरपै हरि कीना, भक्ति कर सची सहित: भीना, बोला जयजयकार ॥ खामीजी० ॥ २॥ जगत जव छनभंगुर जाना, लियो तव नगनवृती बाना, स्तवन लोकांतिकसुर ठानात्याग राजको भार ॥ स्वामीजी० ॥ ३ ॥ घातिया प्रकति जवै नासी, चराचर वस्तु सबै भासी, धर्मकी वृष्टि करी खासी, केवलज्ञान
भंडार ॥ स्वामीजी० ॥ ४॥ अघाती प्रकृति .. सुविघटाई; मुक्तिकांता तब ही पाई, निराः कुल आनंद असंहाई, तीनलोकसरदार । स्वामीजी०॥५॥ पार गनधर हू नहिं पावै, कहां लगि भागचंद गावे, तुमारे चरनांबुज.
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हजूरी पद-संग्रहः । ६३ ध्यावे, भवसागरसों तार ॥ स्वामी जी०॥६॥
(४८) राग धनाश्री . प्रभु थांको लखि मम चित हरपायो ॥ टेक॥ सुंदर चिंतारतन अमोलक, रंक पुरष जिम पायो । प्रभु थाँको०१॥ निर्मल रूप भयो अब मेरो, भक्ति नदी जल-न्हायो । प्रभु थाँको०॥ २॥ भागचंद अब मम करतलम, अविचल शिवथल आयो ॥ प्रभु०॥३॥
(४९) रागमल्हार । प्रभु म्हाकी सुधि, करुना करि लीजै ॥टेक॥ मेरे इक अवलं-वन तुम ही, अव न विलंब करीजै ॥ प्रभु०॥१॥ अन्य कुदेव तजे सब मैने, तिनत निजगुन छीजै ॥ प्रमु० ॥२॥ भागचंद तुम सरन लियो है, अब निश्चल. पद दीजै.।।. प्रभु ॥३॥
. (५०) राग कहरवा-कलिंगड़ा । • केवलजोति सुजागीजी, जब श्रीजिनवरकै ॥ केवल० ॥ कः ॥ लोकालोकविलोकत
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६४
जैनपदसागर प्रथमभाग
जैसे, हस्तामल बडभागी जी ॥ केवल ० ॥ १ ॥ हरिचूडामणिशिखा सहज ही नमत भूमितें लागीजी ॥ केवल० ॥ २ ॥ समवसरन रचना सुर कीनी, देखत भ्रम जन त्यागीजी ॥ केवल० || ३ || भक्तिसहित अरचा तब कीनी, परमधरम अनुरागीजी ॥ केवल० ॥ ४ ॥ दिव्यं ध्वनि सुनि सभा दुवादश, आदरसमें पागीजी ॥ केवल० ॥ ५ ॥ भागचंद प्रभुभक्ति चहत है, और कछू नहिं मांगोजी ॥ केवल० ॥ ६ ॥ ( ५१ ) ख्याल |
विन काम ध्यान मुद्राभिराम तुम हो, जगनाकजी ॥ टेक ॥ यद्यपि वीतरागमय तद्यपि, हो "शिवदायकजी ॥ विन काम० ॥ १ ॥ रागीदेव 'आपही दुखिया सो क्या लायकजी ॥ विन काम० - ॥२॥ दुर्जय मोहशत्रु हनवेको, तुम वच - शायकजी ॥ विनकाम० ॥ ३ ॥ तुम भवमोचन ज्ञान सुलोचन, केवलक्षायकजी ॥ विनकाम० ॥४॥ भागचंद भागन तैं प्रापति, तुम सब ज्ञायक जी ॥ बिनकाम० ॥ ५ ॥
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हज़री पद - संग्रह |
५२ | भावना |
प्रभूपै यह वरदान सुपाऊं, फिर जंगकीच वीच नहि आऊं ॥ टेक ॥ जल गंधाक्षत, पुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुंदर ल्याऊं । आनंद जनक- कनक-भाजन धरि, अर्ध अनर्घ बनाय चढाऊं ॥ प्रभूपै० ॥ १॥ आगमके अभ्यासमांहि पुनि, चित एकाग्र सदीन लगाऊं । संतनिकी संगति तजि में, अंत कहूं इक छिन नहिं जाऊं || प्रभूपै ० ॥२॥ दोपवाद मैं मौन रहूं फिर, पुण्यपुरुषगुन निशदिन गाऊं । मिष्ट स्पष्ट सबहिसों भापों, वीतराग निज भाव वढाऊं ॥ प्रभूपैः ॥ '३ ॥ वाहिजदृष्टि चके अंतर, परमानंद स्वरूप लखाऊं । भागचंद शिव प्राप्त न जोलों, 'तोलों तुम चरणांबुज ध्याऊं ॥ प्रभूपै० ॥४॥ ( ५३ ) .
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मैं तुम शरनलियो, तुम सांचे प्रभु अरहंत । मैं तुम० ॥ टेक ॥ तुमरे दर्शन - ज्ञान- मुकर मैंसकल ज्ञेय झलकंत | अतुल निराकुल सुख आ १ यातो अपना विरद भूल जावो या मेरी अर्ज़ सुनलो ।
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६६ जनपदसागर प्रथमभागखादन, बीरज अतुल अनंत ॥ मैं तुम० ॥१॥ रागशेष-विभाव नाश भए, परम समरसी संत । पद देवाधिदेव पाए किय, दोष क्षुधादिक अंत ॥ मैं तुम०॥२॥ भूषण वसन शस्त्र कामादिक, करनविकार अनंत । तिन विन तुम परमौदारिक तन, मुद्रा सम शोभंत ॥ मैं तुम०॥३॥ तुम बानीतें धर्मतीर्थ जग,-माहि त्रिकाल चलंत। निज कल्याण हेतु इंद्रादिक, तुम पद सेव करत ॥मैं तुम०॥४॥तुम गुन अनुभवतें निज-परगुन, दर्शत अगम अचिंत । भागचंद निजरूप प्राप्ति.अब, पावें हम भगवंत॥मैं तुम०॥५॥ - , ५४ । राग दीपचंदी।
कीजिए कृपा मोहि दीजिए खपद, मैं तो थांको ही सरन लीनो हे नाथजी ॥ टेक ॥ दूर करो इह मोह शत्रुको, फिरत सदा जो मेरे साथ जी। कीजिए॥१॥ तुमरे वचन कर्मगद मोचन, संजीवन औषधी काथजी॥ कीजिए १। इंद्रियोंके विकारः ।
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हजूरीपद - संग्रह. IT ॥ २ ॥ तुमरे चरनकमल बुध ध्यावत, नावत
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हैं पुन निज माथजी | कीजिए || ३ || भागचंद मैं दास तिहारो, ठाडो जोडूं जुगल हाथजी ॥ कीजिए ॥ ४ ॥
(५५)
सोई है सांचा महादेव हमारा, जाके नाहीं रागरोष-मद-मोहादिक विस्तारा ॥ सोई है || टेक ॥ जाके अंग न भस्म लिप्त है, नहिं रुंडन - .कृतहारा । भूषण व्याल न भालं चंद्र नहिं, शीशजटा नहिं धारा || सोई है ० ॥ १ ॥ जाके गीत न नृत्य न मृत्यु न, बैल तणो न सवारा । नहि कोपीन न काम कामिनी, नहि धन धान्य पसारा ॥ सोई है ० ॥ २ ॥ सो तो प्रगट समस्त वस्तुको, देखन जाननहारा । भागचंद ताही को व्यावत, पूजत वारंवारा ॥ सोई है० ॥ ३ ॥
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. (५६ )
स्वामी रूप अनूप विशाल, मन मेरे बसत । स्वामी ॥ टेक ॥ हरिगन चमरवृंद ढोरत तह,
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जैनपदसागर प्रथममागउज्वल जेम मराल ॥ स्वामी० ॥१॥ छत्रत्रय ऊपर राजत पुनि, सहित सु मुक्तामाल ॥ स्वामो० ॥२॥ भागचंद ऐसे प्रभुजीको, नावत माथ त्रिकाल ॥ स्वामी० ॥३॥
(५७.) आनंदाश्रु बहै लोचनतें, तातै आनन न्हाया । गद्गद शुद्ध वचन जुत निर्मल, मिष्ट गान सुरगाया। आनंदाश्रु०॥टेक ॥ भववनमैं बहु भ्रम न कियो तह, दुखदावानल ताया। अब तुम भक्ति-सुधारस-वापी,-मैं अवगाह कराया। आनंदाश्रु॥१॥ तुम वपुदपनमें मैने । अब,आत्मस्वरूप लखाया। सर्व कषाय नष्ट भये अब ही, विभ्रम दुष्ट भगाया। आनंदाश्रु॥२॥ कल्पवृक्ष मैंने निजघरके, आंगन मांझउगाया। वर्ग विमोक्ष विलास वास पुनि, मम करतलमें आया ॥ आनंदाश्रु०॥२॥ कलिमलपंक सकल अब मैंने, चितसे दूर बहाया। भागचंद तुम चरणांबुजको, भक्तिसहित सिर नाया ॥ आनंदोश्रु०॥४॥
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हजूरी पद - संग्रह 1. (५८)
मोसम कौन कुटिल खल कामी, तुमसमः कलिमल दलन न नामी ॥ टेक ॥ हिंसक झूठ: वाद-मति विचरत, परधन - हर परवनितागामी । लोभितचित्त वित्त नित चाहत, धावत दशदिश करत न खामी ॥ मोसम० ॥ १ ॥ रागी देव बहुत हम जांचे, राचे नहिं, तुम सांचे स्वामी । बांचे श्रुत कामादिक-पोपक, सेये कुगुरु सहित धन धामी || मोसम० ॥ २ ॥ भाग उदयसे मैं. प्रभु पाये, वीतराग तुम अंतरजामी । तुम धुनि सुनि परजयमें परगुण, जाने निजगुणचित विसरामी || मोसम० || ३ || तुमने पशुपक्षी सब तारे, तारे अंजन चोर सुनामी । भागचंद करु णाकूर सुखकर, हरना यह भवसंतति लामी ॥ मोसम० ॥ ४ ॥
कबि भूधरदासकृत पद | ५९ । रागगौरी |
६९.
अजित जिनेश्वर अघहरणं, अघहरणं अश रन शरणं ॥ अजित० ॥ टेक ॥ निरखत नयन
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___जैनपदसागर प्रथममाग
memins तनक नहिं त्रिपते, आनंदजनक कनक-वरण ॥ अजित०॥१॥ करुणा भीजै वायक जिनके गणनायक उर आभरणं । मोह महारिपु घायक सायक, सुखदायक दुखछय करणं । अजित ॥ २॥ परमातम प्रभु पतित-उधारन, वारणलन्छन-पगधरणं । मनमेथमारण, विपति विदा रंण, शिवकारण तारणतरणं ॥ अजित० ॥३॥ भव-आताप-निकंदन-चंदन, जगवंदन बॉछा भरणं । जय जिनराज जगत वंदत जिह, जन सुघर वंदत चरणं ॥ अजित० ॥ ४॥
राग काफी। - सौमघर खामी, मैं चरननका चेरा। इस असार संसारमै कोई, अवर न रच्छक मेरा॥ सीमंघर०
टेका। लख चौरासी जोनिमें में, फिर फिर कीना फेरा। तुम महिमा जानी नहीं प्रभु, देख्या दुःख धनेश । सीमंघर० ॥ १॥ भाग उदयतें पाइया ..९ वचन १ २ नाश करनेवाला । ३ बा-तीर । " हाथीको बिहः । . लासको मारनेवालें । ६.अपार । ।
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हजूरी पद-संग्रह। : अच, कीजै नाथ निवेरा । वेगिदयाकरि दीजिए मुझ, अविचल-थान-बसेरा । सीमंधर०॥2.0 नाम लिए अर्थ ना रहै ज्यों, उगे भान अंधेरा, भूधर चिंता क्या रही जब, समरथ साहिब तेरा ॥ सीमंधर० ॥३॥
६१ । राग धमाल। . देखे देखे जगतके देव राग-रिससों भरे। काके सँग कामिनि कोऊ, आयुधवान खरे॥ ॥ देखे देखे० ॥ टेक ।। अपने अवगुन आपही हो, प्रगट कर उघरे। तऊ अबूझन बूझहि देखो, जनमृग-भोरेप रे॥ देखे देखे०॥१॥ आपं भिखारी लै किनही हो, काके दरिद हरे । चंदि पाथरकी नावपै कोई, सुनिए नाहिं तरे। देखे ॥२॥ गुन अनंत जा देव मैं औ, ठारह दोष टरे। भूधर ता-प्रति भावसोंदोऊ, कर निज़ सीस घरे॥ देखे देख० ॥३॥ i..
...६२ । राग ख्याल कानडी। ..... : एजी मोहि तारिये शांति जिनंद॥ एजी० ॥ १ मोह स्थान । २ पाप । ३ भोलापन । .
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२. जैनपदसागर प्रथममाग॥टेक ॥ तारिए तारिए अधम उघारिए, उथाः रिए, तुम करुनाके कंद ॥ एजी० ॥१॥ हस्तिनापुर जनमें जग जाने, विश्वसेननृपनंद। एजी० ॥२॥धनि वह माता एरा देवी, जिन जाए जगचंद ॥ एजी० ॥३॥ भूधर विनवे । दूर करो प्रभु, सेवकके भवदंद ॥ एजी०॥४॥ । ६३ । राग धनासरी।
शेष सुरेश नरेश र तोहि, पार न कोई पावे. जू ॥ शेष ॥टेक ॥ काँपै नपत व्योम विलसत सों, को तारे गिन लावै जू ॥ शेष० ॥१॥ कान सुजान मेध-बूंदनकी, संख्या समुझ सुनाने
॥ शेष० ॥२॥ भूधर सुजस-गीत-संपूरन गणपति भी नहिं गावैजू ॥ शेष०॥३॥
...... ६४ । राग रामकली। 'आदिपुरुष मेरी आस भरो जी। अवगुन मेरे माफ करो.जी.आदि० ॥टेक ॥ दीनदः, गाल विरदं विसरो जी,कै विनतीमोरी श्रवण १ किससे । २ आकाश । ३ विलस्तोंसे । ४ गणधर:
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हजूरी पद-संग्रह। घरोजी॥ आदि०॥१॥ काल अनादि वस्यो जगमाही, तुमसे जगपति जाने नाहौँ। पॉप न पूजे अंतरजामी, यह अपराध क्षमाकर खामी ॥ आदि० ॥२॥ भक्तिप्रसाद परम पद है है, बंधी बंधदशा मिटि जैहै । तबन करों तेरी फिर पूजा, यह अपराध छमो प्रभु दूजा।। ॥ आदि०॥३॥ भूधर दोष किया बकसावे, अरु आगैंको लारे लावै। देखो सेवककी ढिठंवाई, गरुवे साहिबसौं बनियाई ॥ आदि०॥ ॥४॥
६५ । राग ख्याल करवा । म्हे तो थांकी आज. महिमा जानी, अबलौं उरनहिं आनी । म्हेतो० ॥ टेक ॥ काहेको भववनमें भ्रमते, क्यों होते दुखथानी ॥म्हेतो॥१॥ नामप्रताप तिरे अंजनसे, कीचकसे अभिमानी . ॥ म्हेतो० ॥२॥ ऐसी साख बहुत सुनियत है,
१ माफ कराता है। २ धीटताः। ३ बडेमारी मालिकसे भी। ४ बनियापन । करता है।
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जैनपदसागर प्रथमभागजनपुराण बखानी ॥म्हेतो०॥३॥ भूधरको सेवा: वर दीजै, मैं जाचक तुम दानी ॥ म्हेतो०॥४॥
. ६६ । राग सोरठ। : . खामीजी सांची सरन तिहारी ॥स्वामीजी०॥ टेक॥ समरथ शांत सकल गुन पूरे, भयो भरोसो भारी॥ स्वामीजी० ॥१॥ जनमजरा जगवैरी जीते, टेव मरनकी टारी । हमहूको अजरामर करियो, भरियो आस हमारी ॥ स्वामीजी० ॥ ॥ २॥ जनमें मरै धरै तन फिर फिर, सो साहिव संसारी । भूधर परदालिद क्यों दलि है, जो है आप भिख री ॥ स्वामीजी० ॥३॥
६७। राग ख्याल। - नैननिको बान परी दर्शनकी ॥ टेक ॥जिनमुखचंद चकोर चित्त मुझ, ऐसी प्रीति करी ॥ नैननिको ॥ १॥ अवर अदेवनके चितवनकी अब चितचाहटरी । ज्यों सब धूलि दबै दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ॥ नैननिको० ॥२॥ छबी समाय रही लोचनमें, विसरत नाहि
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हजूरी पद-संग्रह । .. ७५ घरी। भूधर कहै यह टेव रहो थिर, जनमः जनम हमरी ।। नैननिको० ॥३॥ . :
___ द्यानतरायकृत पद। .
. (६८)
• अब हम नेमिजीकी सरन । अब० ॥ टेक ॥
और ठोर न मन लगत है, छाडि प्रभुके चरन । अव०॥१॥ सकल भवि-अध-दहन-वारिद, विरद तारन तरन । इंद चंद फनिंद ध्यावे, पाय सुख, दुखहरन ॥ अव० ॥ २ ॥ भरम तमहरतरनिदीपति, करमगन छयकरन । गणघरादि सुरादि जाके, गुन सकेत नहिं वरन । अब० ॥३॥जा समान त्रिलोकमैं हम, सुन्यो अवर न करन । दास द्यानत दयानिधि प्रभु, क्यों तजेंगे परन ? ॥ अव०॥४॥
६९ । राग काफी। तूजिनवर स्वामी मेरा, मैं सेवक प्रभु हों १ भव्य जीवोंके अधरूपी अग्निके लिये मेध | २ भ्रमरूपी अंधकारको नाश करनेकेलिये सूर्यके प्रकाशकी समान । ३'कानोंसे। .४ अपना प्रण वा प्रतिज्ञा।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
तेरा ॥ टेक ॥ तुम सुमरनविन मैं बहु कीना, नानाजोनि बसेरा | भाग- उदय तुम दर्शन पायो, पाप भज्यो तजि खेस ॥ तू जिनवर० ॥ १ ॥ तुम देवाधिदेव परमेश्वर, दीजे दान सवेरा । जो तुम मोख देत नहिं हमको, कहाँ जाँय किंह डेरा ॥ तू जिनवर० ॥ २ ॥ मात तात तू ही वड़ भ्राता, तोसों प्रेम घनेरा । द्यानत तार निकार जगततें, फेर न है भवफेरा ॥ तू जिनवर०॥३॥
७० । राग सोरठ कडखा ।
"रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुंगतिविषै, आज जिनराज तुम सरन आयो । रुल्यो ॥ टेक ॥ सह्यों दुख घोर, नहिं छोर आवै कहत, तुमसों कछु छिप्यो नहिं तुम बतायो ॥ रुल्यो० ॥ १ ॥ तुही संसार-तारक नहीं दूसरो, ऐसो मुहि भेद न किन्ही सुनायो ॥ रुल्यो० ॥ २ ॥ सकल सुर "असुर नरनाथ वंदत चरनं, नाभिनंदन निपुन सुनिन ध्यायो || रुल्यो० ॥ ३ ॥ तुही अरहंत भगवंत गुणवंत प्रभु, खुले मुझ भाग अब दरश
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हजूरी पद-संग्रह। पायो । रुल्यो० ॥ ४॥ सिद्ध हों, शुद्ध हो बुद्ध अविरुद्ध हों, ईश जगदीश बहु गुणनि गायो॥ रुल्यो०॥५॥ सर्व चिंता गई, बुद्धि निर्मल भई, जबहि चित जुगल चरनन लगायो॥ रुल्यो० ॥६॥ भयो निहर्चित धानत चरन-शनगहि, तार अब नाथ ! तेरो कहायो॥ रुल्यो० ॥७॥
___७१ । राग रामकली। : प्रभु तुम कहियत दीनदयाल ॥ प्रभुतुम० ॥ टेक ।। आपन जाय मुकतिमें बैठे,हम जुरुलत जगजाल ॥ प्रभुतुम०॥१॥ तुमरो नाम जपैं हम नीके, मनवच तीनों काल । तुम तो हमको कछू देत नहि, हमरो कोन हवाल ॥ प्रभुतुम०॥२॥ बुरे भले हम भगत तिहारे,जानत हो हम चाल। अवर कछु नहिं यह चाहत है, रागरोपको टाल :॥ प्रभुतुम० ॥३॥ हमसों चूक परी सोवकसो,
तुम तो कृपाविशाल । धानत एकवार प्रभु . जगतै, हमको लेहु निकाल ॥ प्रभुतुम० ॥४॥
१। माफ करो।
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७८ •
जैनपदसागरं प्रथमभाग
७२ । राग ख्याल। : . मैं नेमिजीका बंदा मैं साहिबजीका वंदा॥ में नेमिजी० ॥ टेक । नैनचकोर दरसको तरसै; खामी पूनमचंदा ॥ मैं नेमिजीका० ॥ १॥ छहों दरबमें सार बतायो, आतम आनंदकंदा। ताको अनुभव नितप्रति करते, नासै सब दुख दंदा॥ ॥ मैंनेमिजीका० ॥२॥ देत धरम उपदेश भविक 'प्रति, इच्छा नाहिं करंदा । रागरोष मद मोह नहीं नहिं, क्रोध लोभ छलछंदा॥में नेमिजीका? ॥३॥जाकोजस कहि सकैन क्योंही, इंदफनिंद . नरिंदा । सुमरन भजन सार है द्यानतं, अवर बात सब फंदा ।। मैं नेमिजीका०॥४॥
(७३) बंदों नेमि उदासी, मद मारवेको।बंदोंगाटेका रजमतिसी तिन नारी छारी, जाय भए बनवासी ॥ बंदों०॥१॥ हयगय रथ पायके सब छांडे, तोरी ममता फांसी । पंच महाव्रत दुर्द्धर पारे १'धंदा' ऐसा भी पाठ है।
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हजूरी पद-संग्रह। राखी प्रकृति पचासी ॥ वंदो० ॥॥ जाके दरशन ज्ञान विराजत, लहि वीरज सुखरासी।जाकों 'वंदत त्रिभुवननायक, लोकालोक-प्रकाशी। 'वंदों ॥३॥ सिद्ध शुद्ध पर-मातम राजै, अविचल-थान निवासी। धानत मन-अलि प्रभुपदपंकज, रमत रमत अघ जासी ॥ बंदों ॥४॥
(७४) मेरी वेर कहा ढील करी जी॥ मेरीवेर० ॥ टेक ॥ सुलीसों सिंहासन कीनो.सेठसुदर्शनविपतिहरी जी। मेरीवर ॥शासीतासती अगनिमें पेंठी, पावक नीर करी सगरीजी। वारिषेण पै खडग चलायो,फूलमाल कीनी सुथरीजी ।। मेरी वेर॥२॥ धन्या वापी पस्यो निकारयो, ताघर ऋद्धि अनेक भरीजी। सिरीपाल सागरतें तारयो. राजभोगकर मुकति वरीजी॥ मेरीवेर०॥ ॥ सांपकियो फूलनकी माला, सोमापर तुम दया घरीजी । द्यानत मैं कछू जांचतं नाही, कर वैरा'ग्यदशा हमरीजी ॥ मेरीबेर०॥४॥
१ धन्यकुमार । २ सोमा सतीघर
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जैनपदसागर प्रथमभाग(७५) हमको प्रभु श्रीपास सहाय || हमको ०॥ जाको दर्शन करते जबहीं, पातक जाय पलाय ॥ हमको० ॥ जाको इंद फनिंद चक्रधर, बंदै सीस नवाय. | सोई स्वामी अंतर - जामी, भव्यनिकों सुखदाय || हमको ० ॥ १ ॥ जाके चार घातिया बीते, दोष जु गए विलाय । सहित अनंत चतु ठ साहिब, महिमा कही न जाय ॥ हमको० ॥ ३ ॥ कियो बडो मिल्यो है हमको, गहि रहिये मनलाय । द्यानत अवसर वीत जायगो, फेर न कछू उपाय | हमको ० ॥ ४ ॥ ( ७६ )
ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी नेमजी ! तुमही हो ज्ञानी ॥ ज्ञानी० ॥ टेक ॥ तुम्ही देव गुरु तुम्ही हमारें, "सकल दरब जानी ॥ ज्ञानी ॥ १ ॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीनभवन छानी । आप तरे भविजीवनितारे, ममता नहिं आनी ॥ ज्ञानी •
१ सहारा आश्रयस्थान अर्थात् दो गांवके बीच में ठहरनेकी जगह है।
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हजूरी पद- संग्रह । २ || अवर देव सब रांगी द्वेषी, कामी कै मानी तुम हो वीतराग अकपायी, तजि राजुल रानी ॥ ज्ञानी ॥ ३ ॥ यह संसार दुःख ज्वाला तुजिं, भये मुकति थानी । द्यानत दास निकास जगततैं हम गरीब प्रानी ॥ ज्ञानी० ॥ ४ ॥
(७७).
देख्या माने नेमिजी प्यारा || देख्या०॥टेक॥ मूरति ऊपर करों निछावर, तनः धन जोबन सारा ॥ देख्या० ॥ १ ॥ जाके नखकी शोभा आगें, कोटे- कामछवि डारों द्वारा । कोट- संख्य रविचंद छिपत हैं, वपुकी द्युति है अपरंपारा || देख्या ० ||२|| जिनके वचन सुने जिन भविजन, : तजि घर मुनिवरका व्रत धारा । जाक्की जस 'इंद्रादिक गावें, पार्वै सुख नारौं दुखभारा। देख्या ० ॥ ३ ॥ जाके केवलज्ञानं विराजत, लोकालोक | प्रकाशनहारा । चरण गहेकी लाज निवाहो, - प्रभुजी द्यानत भंगत तिहारा ॥ देख्या ॥ ४ ॥
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१ करोडों कामदेवोंकी सुंदरता
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जैनपदसागर प्रथमभाग
(७८) प्रभु अब हमको होहु सहाय ॥ प्रभु०॥टेक।। तुम बिन हम बहु जुग दुख पायो, अब तव परसे पांय॥प्रभु०॥॥तीनलोकमें नाम तिहारो; है सबको सुखदाय । सोई नाम सदा हम गावे, रीझ जाहु पतियायः॥ प्रभुना२॥ हम तो नाथ कहाए तेरे, जावें कहां सु बताय । बांह गहेकी लाज निवाहो, जो हो त्रिभुवनराय ।। प्रभु०॥३॥ द्यानत सेवकने प्रभु इतनी, विनती करी बनाय। दीनदयाल दया घर मनमें, जमत लेहु बचाय।। प्रभु०॥४॥
(७९) . प्रभु मैं किहविधिथुति करूं तेरी॥प्रभुनाटेका गणधर कहत पार नहिं पावत,कहा बुद्धि है मेरी ॥प्रभु०॥१॥ शक्र-जन्मधर सहस जीमकर, तुम जस होत न पूरा । एकजीभ कसैं गुण गावै उलू कहै किम सूरी ॥ प्रभु०॥२॥ चमर छत्र
१ इन्द्रका जन्म धरकर । २ उल्लू पक्षी। ३. सूरज | :
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. हजूरी पद-संग्रह। : ९३ सिंहासन वरनों, ये गुण तुमते न्यारे । तुमगुण कहन वचनबल नाही, नैन गिनें किम तारे । प्रभु०॥३॥
(८०)
दरसन तेरा मन भावै । दरसन० ॥ टेक ॥ तुमकों देखि तृपति नहिं सुरपति, नैन हजार बनावै ॥दरसन॥१॥ समवसरनमें निरखै सचि पति, जीभसहस गुनगावै। क्रोड़ कामको रूप छिपत है, तेरो दरश सुहावै ।। दरसन० ॥२॥ आंख लगै अंतर है तो भी, आनंद उर नसमा वै। ना जानों कितनों सुख हैरिको जो नहिं पलक लगावै ।। दरशन० ॥३॥ पाप नाशकी कौन बात है, द्यानत सम्यक् पावै ।आसन ध्यान अनूपम स्वामी । देखे ही बनि आवै ।।दरशन ॥४॥
' (८१)
हो. स्वामी जगत जलधित तारो॥ होखामी० १ इस पदमें एक कडी रह गई दिखती है । २ इन्द्र । ३ इन्द्रको ।
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४ जैनपदसागर प्रथमभाग॥टेका मोहमच्छ अरु कामकच्छतें, लोभलहर तें उबारो॥ हो स्वामी०॥१॥ खेद खारजल, दुखदावानल, भरमभंवरभय टारो ॥ होखा मी० ॥२॥द्यानत वारबार यों भाषे,तूही तारन हारो। हो स्वामी० ॥३॥ . . . :
८२ । राग वसंत है, . . ! ! : मोहितारो हो देवाधिदेव,मैं मनवचतनकरि करों सेवाटिकातुम दीनदयाल अनाथ नाथ,हम हुको राखहु आप साथ मोहिला॥ यह मारवाडं संसार देश, तुम चरणकल्पतरु हरकलेश
मोहि० ॥२॥ तुम नाम रसायन जीव पीय, द्यानत अजरामर भवतरीय ।। मोहि०॥३॥ :. . . ...,८३, राग वसंत ! ....... - तुम ज्ञान विभव फूली वसंत, यह मन मधुकर सुखसों रमंत ॥ तुम० ॥ टेक ॥ दिन बड़े भए वैरागभाव, मिथ्यामनरजनीको घटाव । तुम ॥ १॥ बहु फूली फैली सुरुचि बेल, ज्ञातीजन .: १.अजर अमर होजाता है।
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हजूरी पद-संग्रह। ' समता संग केलि ॥ तुम० ॥२॥ द्यानत वानी
पिकमधुररूप, सुरनर पशु आनंद घन-खरूपः । ॥ तुम०॥३॥ . '
.. ८४। रागगौरी। · देखो भाई श्रीजिनराज विराज । देखो ॥ टेक ॥ कंचन मणिमय सिंहपीठपर, अंतरीछ प्रभु छाजें। देखो०॥१॥ तीन छत्र त्रिभुवन
जस जैप, चौसठि चमर समाजै । वानी जोजन । घोर मोर सुनि, डर अहि:पातक भाजै ॥देखो. : ॥२॥ साढे बारह कौडि दुंदुभी, आदिक बाजे वाजै । वृक्ष अशोक दिपत भामंडल, कोटि सूर शशि लाजै ।। देखो०॥३॥ पहुपवृष्टि जल मंद पवन कर, इंद्र सेव नित साजै । प्रभु न बुलावै द्यानत जावे, सुरनर पशु निजकाजै ।देखो०४.
८५। राग गौरी। . ..। : · अव मोहि तार लेहु महावीर ॥अबगाटेका। : सिद्धास्थ-नंदन जगवंदन, पापनिकंदन धीर । . १ अधर आकाशमें । २ कहते हैं । ३ पापरूपी सर्पः।
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जैनपदसागर प्रथमभागअब०॥१॥ ज्ञानी ध्यानी दानी जानी, वानी । गहर गंभीर।मोखके कारन दोष निवारन, रोष विदारन, वीर ।। अब० ॥२॥ आनंद पूरत समतामूरत, चूरत आपदपीर ॥वालजती दृढ व्रती समकिती, दुखदावानल नीर ॥ अव०॥३॥ गुन अनंत भगवंत अंत नहि, शशि कपूर हिम हीर। धानत एकहु गुन हम पावें, दूर करै भव... भीर ॥ अब० ॥४॥
८६ राग गौरी। जय जय नेमिनाथ परमेश्वर।जय जयगाटेक॥ उत्तम पुरुषनिको अति दुर्लभ, बालशील धरनेश्वर ॥ जय जय० ॥ ॥ सेव करें नारायण बहु
नृप, जय अघतिमिरदिनेश्वर । तुम जस महिमा । हम कहा जाने, भाखत सकल सुरेश्वर ॥ जय
जय० ॥२॥ इंद्र सबहिं मिल पूर्जे ध्यावे, जय भ्रमतपतनिशेश्वर । गुन अनंत हम अंत न पावें वरनन सकत गनेश्वर ।। जय जय० ॥३॥ गण: १ सूर्य १२ चंद्रमा । ३ गणधर । । ............
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: हजूरी पद-संग्रह। घर सकल करै थुति ठगढे, जय भवजलपोतेश्वर । द्यानत.हम स्थि कहा कहैं, कहन सकत. सर्वेश्वर ॥ जय जय० ॥४॥ . .
८७। राग गौरी। श्रीआदिनाथ तारनतरनं ॥ श्री० ॥ टेक॥ नाभिराय मरुदेवी नंदन, जनम अयोध्या अघहरनं ॥श्रीआदि० ॥१॥ कलपवृक्ष गये जुगल दुखित भये, करमभूमिविधि सुख-करन । अपछरनृत्य-मृत्यु लखि चेते,भवतन भोग जोगधरनं ॥ श्रीआदि०॥ कायोत्सर्ग छमास धरयो दिढ, वन-खग-मृग पूजतचरनं। धीरजधारी बरस अहारी, सहम वरस तपआचरनं ॥श्री
आदि०॥ करम नास परगासि ज्ञानको, सुरपति कियो समोसरंन । सबजनसुख दे शिवपुर पहुंचे, धानत भवितुमपदसरन ॥ श्री० आदि० ॥४॥
(८८) .प्रभु.तेरी महिमा किह मुख गावें ॥प्रमुगाटेक १.संसाररूपी समुद्रसे तारने वाली जहानके खामी। २ अल्पज्ञानी ।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
गरस छमास अगाउ कनकेनग, सुरपति नगर बनावें । प्रभु०|१| क्षीर उदधिजल-मेरु सिंघासन, * मल मल इंद्र न्हुलावें । दीक्षा समय पालकी बैठो, इंद्र कहार उठावें | प्रभु तेरी ॥ २ ॥ समवसरन रिधि ज्ञानमहातम, किंहविधि सर्व बतावें । आपन जातकी बात कहा, शिववात सुने भवि जावें ॥ प्रभु तेरी || ३ || पंच कल्यानक थानक खामी, जे तुम मन वच ध्यावें । द्यानत तिनकी कौन कथा है, हम देखे सुख पावें ॥ प्रभु तेरी ॥ ४ ॥ (८९). प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥टेक॥ श्रुति करि सुखी दुखी न निंदातें, तेरे समता भाय ॥ प्रभु तेरी ॥१॥ जो तुम घ्यावें थिर मनलावें, सो. किंचित् सुखपाय । जो नहिं ध्यावत ताहि करत, हो, तीनभुवनको राय ॥ प्रभु तेरी० ॥ २ ॥ अंजन चौर महा अपराधी, दियो स्वर्ग पहुंचाय।
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१ सुवरण और रत्नोंसे नगरीको बनाते हैं । २ अपमे जन्मकी । .. ३. जो तुम्हे न ध्यानकर अपनी आत्माका ध्यान करता है, उसको
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हजूरी पद - संग्रह | कथानाथ श्रेणिक समदृष्टी) कियो नरक दुखदायं ॥ प्रभु तेरी० ॥ ३ ॥ सेव असेव कहा चलै जियकी, जो तुम करो सुन्याय । द्यानत सेवकगुन गहि लीजै, दोप सबै छिटकाय । प्रभुतेरी 118 11
९० | राग विलावल !
प्रभु तुम सुमरनहीतें तारे ॥ प्रभु० ॥ टेक ॥ सूकर सिंह न्यौल बानर जे, कहो कौन व्रत धारे ॥ प्रभुः ॥ १ ॥ सांप जापकर सुरपद पायो, स्वानश्यालभय जारे । भेकै बोके गज अमर कहाए, दुरगति भाव विदारे ॥ प्रभुः ॥ २ ॥ भील चौर मातंग जु गनिका, बहुतनिके दुख टारे । चक्री भरत कहा तप कीनो, लोकालोक
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निहारे ॥ प्रभु तुम० ॥ ३ ॥ उत्तम मध्यम भेद न कीनों, आये शरन उंवारे । द्यानत रागरोष विन स्वामी, पाये भाग हमारे ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ ..
१ न्योला । २ मेंढक । ३ बकरा | ४ चंडाल ! .
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जैनपदसांगर प्रथमभाग
(९१). . · मानुष जनम सफल भयो आज।मानुष०ाटेक सीस सफल भयो ईस नमतही, श्रवन सफल जिन-वचन समाज ॥ मानुष० ॥१॥ भोल सफल जु दयाल तिलकतें, नयन सफल देखे जिन राज।जीभ सफल जिनवान गानतें, हाथ सफल कर पूजन साज ॥ मानुष०॥२॥ पांय सफल जिन भौन-गौनत, काय सफल नाचे बल गाज। वित्त, सफल. जो प्रभुको लागै, चित्र सफल प्रभु ध्यान इलाज ।। मानुष०॥३॥ चिंतामन चिंतत वरदाई, कलपवृच्छ कलपनतें काज। देत अचिंत अकल्प महा सुख, द्यानत भक्ति गरीबनवाज ॥ मानुष०॥४॥ . . (९२) .
अपनो जानि मोहि तारले, शांति कुंथु अर देव ॥ अपनो० ॥ टेक ॥ अपनो जानिके भक्त
१ भगवानको। २. ललाटं | ३भगवानके मंदिर जानेसे ।
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• हजूरी पद-संग्रह। पिछानकै सुरपति कीनी सेव । कामदेव जिन चक्रवर्तिपद,-तीन भोगि खयमेव । अपनो०॥१॥ तीन कल्यानक हथिनापुरमैं, गरम जनम तप भेव । दशदिशा दशधर्म-प्रकाश्यो, नाश्यो अघतम एव ॥ अपनो ॥२॥ सहस अठो तर नाम सुलच्छन, अच्छ विना सुख बेव। द्यानत दास आस प्रभु तेरी,नास जनम मृत टेव।। अपनो ॥३॥
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हे जिनरायजी, मोहि दुखते लेहु छुडाय ॥ टेक ॥ तनदुख मनदुख खजनदुख, धनदुख कह्यो न जाय॥हे जिनरायजी० ॥ १ ॥ इष्ट वियोग अनिष्ट समागम, रोग सोग बहु भाय। गरभ जनम-मृत बाल-विरध-दुख, भोगे धरि धरि काय ॥ हेजिनरायजी० ॥२॥ नरक निगोद अनंती विरियां, करि करि विषय कषाय पंचपरावर्तन बहु कीने, तुम जानो जिनराय॥ ॥ हे जिन० ॥३॥ भवबन-भ्रमतम, दुखदव जम
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९२ जैनपदसागर प्रथमभागहर, तुम विन कौन सहाय । द्यानत हम कछु चाहत नाहीं । भव भव दरस दिखाय॥ हे जिनरयजी ॥४॥
(९४) :
श्रीजिनदेव न छाडि हों, सेवा मनवचकाय हो श्रीजिनगाटेक॥सव देवनके देव हो, सब गुरुके गुरुराय हो ॥श्रीजिन० ॥१॥ गर्भ जनम तप ज्ञान शिव, पंचकल्यानक ईश हो। पूजें: त्रिभुवनपति सदा, तुमको श्रीजगदीश हो। श्रीजिन०॥२॥ दोष अठारह छय गये, गुणहि छियालिसखान हो । महा दुखीको देत हो, बड़े रत्नको दान हो ॥ श्रीजिन० ॥३॥ नाम थापना दरबको, भाव खेत अरु काल हो । षट विध मंगल जे करें, दुख नासै सुखमाल हो। श्रीजिनः ॥ ४॥ एक दरव कर जो भजै, सो पावै सुखसार हो। आठ दरबले हम जजें, क्यों नहिं उतरें पार हों॥ श्रीजिन ॥ ५॥ गुण अनंत भगवंतजी, कहिन सके सुररायहो..बुद्धिः
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__ हजूरी पद-संग्रह । .. .. ९३ तनकसी मोविषै। तुमही होउ सहाय हो ॥ श्रीजिनदातातें बदूं जग गुरू, वंदो दीन दयाल हो । वंदों खामी लोकके, बंदूं भविजनपाल हो ॥ श्रीजिन० ॥७॥ विनती कीनी भावसों, रोम रोम हरपाय हो । या संसार असारमैं, द्यानत भक्ति उपाय हो ॥८॥ : . ९५। राग सोरठ। ' जिनराय! मोहि भरोसो भारी। जिन०॥टेक॥ सुरनरनाथ विभूति देहु तो, अब नहिं लागत प्यारी । जिन० ॥१॥ सिरीपाल भूपाल विथा गई, लहि संपति अधिकारी । सूली सेठ अगनि तँ सीता, कहा भयो जो उबारी । जिन ॥२॥ विदित रूपखुर तस्कर : तुमतें, भए अमर अवतारी। भविसुदच अर सालभद्रकी, किंहकारण रिघ सारी ॥ जिनराय० ॥३॥ भेक श्वान गज़ सिंह भए सुरं, विषयरीति. विस्तारी। कृष्णपिता मुंत बहुरिधिपाई, विनाशीक तुम धारी । जिनं १। रूप छिपानेवाला अंजन चोर । २. मेंडकर.३ प्रद्युम्न ।
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९४
जनपदसागर प्रथमभाग
॥४॥जातिविरोध जात जीवनके, मूरति देख तिहारी। मानतुंगके बंधन टूटे, यह शोभा तुम न्यारी । जिनराय० ॥५॥ तारन तरन सु विरद तिहारो, यह लखि चिंता डारी । द्यानते शिवपद आपहि देहो, बनी सुवात हमारी
॥जिनराय०॥६॥....
..
त्रिभुवनमें नामी, कर करुना जिनस्वामी।। त्रिभुवनमें॥टेक ॥ चहंगति जन्म मरनकिम भाख्यो, तुम सब अंतरजामी । त्रिभुवन में ।। करमरोगके वैद तुमहि हो, करों पुकार अकामी । त्रिभुवनमें ॥२॥धानत पूरव-पुण्य उदयतें, सरन तिहारी पामी । त्रिभुवनमैं ॥३॥
९७। राग धमाल। . मैं बंदा स्वामी तेरा ॥ मैं॥टेक ॥ भवमः जन आदि निरंजन, दूर दुःख मेरा। मैं॥शी नाभिराय नंदन जगवंदन, मैं चरननका चेरा। मैं.॥२॥ बानत ऊपर करना कीजे दीज़े.शिवपुर डेरा ॥ मैं०॥३॥
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हजूरीपद-संग्रह । ।
(९८) - स्वामी श्रीजिन नाभिकुमार ! हमको क्यों न उतारो पार ॥ स्वामी० ॥टेक॥ मंगल मूरत है अविकार, नामभ® भजै विघन अपार । स्वामी० ॥१॥ भवभयभंजन महिमासार, तीनलोक जिय तारनहार ॥ स्वामी० ॥२॥द्यानत आए शरन तुम्हार, तुमको है सब शरम हमार ॥ स्वामी० ॥३॥
(९९) नेमजी तो केवलज्ञानी, ताहीकों मैं ध्याऊ ।। ॥नेमिजी० ॥ टेक । अमल अखंडित चेतनमंडित, परम पदारथ पाऊं । नेमिजी० ॥१॥ अचल अवाधितं निज गुण छाजत, वचनन कैसे बताऊं। नेमिजी०॥२॥ द्यानत ध्याइए शिवपुर जाइए, बहुरि न जगमैं आऊं। नेमिजी०॥३॥.
(१००) हम आए हैं जिनभूप ! तेरे दरशनको। हम
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१६
जैनपदसागर प्रथमभाग
॥ टेक ॥ निकसे घर आरतिकूप तुम पद-परशनको ॥ हम० ॥ १ ॥ वैननिसों सुगुन निरूप, चाहें दर्शन को || हम० ॥२॥ द्यानत ध्यावें मन रूप, आनंद वरसनको ॥ हम० ॥ ३ ॥
(- १०१ )
तुम तार करुना धार स्वामी आदिदेव निरंजनो ॥ तुम० ॥ टेक ॥ सार जग आधार नामी, भविकजनमनरंजनो ॥ तुमं० ॥ १ ॥ निराकार जमी अकामी, अमल देह अमंजनो ॥ तुम० ॥ २ ॥ करहु द्यांनत मुकतिगामी, 'सकलं भवभयभंजनो ॥ तुम० ॥ ३ ॥ PACL * (१०२)
16
1. इक अरज सुनो साहिब मेरी ॥ इक० ॥ टेक ॥ चेतन एक बहुत जड घेरचों, दई आपदा “बहुतेरीं ॥ इकः ॥ १ ॥ हम तुम एक दोन इन कीने, विनकारन बेरी गेरी ॥ इकः ॥ २ ॥ द्यानत तुम तिहुं जंगके राजा, करो ज कछु "करुणा नेरी ॥ इक० ॥ ३ ॥
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हजूरी प्रद-संग्रह
(१०३.) :
1
- "जिन साहिब मेरे हो, निवाहिये दासको । जिन० ॥ टेक ॥ मोहमहातम घोर भरयो है, कीजिये ज्ञानप्रकाशको ॥ जिनः ॥ १ ॥ लोभ्र रोगके वैद प्रभुजी, औषध द्यो गर्दनासको ॥ जिन० ॥ २ ॥ द्यानत क्रोधकी आग बुझावो, चरस छिमाजलरासको ॥ जिन० ॥ ३ ॥ ( १०४ ) : सांचे चंद्रप्रभू सुखदाय ॥ सांचे० ॥ टेक ॥ भूमि सेत अम्रत वरपाकरि, चंद नामतें शोभा पाय ॥ सांचेः ॥ १ ॥ नरवरदाई कौन बडाई, पशुगन तुरत किये सुरराय ॥ सांचे ॥२॥ द्यानत चंद असंखनिके प्रभु, सारेथ नाम जप मनलाय ॥ सांचे० ॥ ३ ॥
"
(१०)
काम सरे सब मेरे, देखे पारसस्वाम ॥ काम? ॥ टेक ॥ सप्तफना अहि सीस-विराजै, सात
"""""
- 3.
१ रोग । २ यथा नाम तथा गुणा ।
५
A
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जैनपदसागर भयमभागपदारथ धाम । काम०॥ १॥ पदमासन शुभ बिंब अनूपम, श्यामधटा अभिराम काम॥२॥ इंद फनिंद नरिंदनिस्वामी, धानत मंगल ठाम ।। काम० ॥३॥
जिनरायके पाँय सदा सरन । जिनरायके॥ देका भवजलपतित-निकारन कारन,अंतर पापतिमिरहरनं ॥जिनरायके ॥१॥ परसी भूमि भई . तीरथ सो,देवमुकुटमनि-छविधरन।जिनरायके० २॥धानत प्रभु-पग-रज कर पावै, लागत भागत है मरनं ॥ जिनरायके० ॥३॥ . . . . (१०७). . .. . .: . . मोहि-तारो जिनसाहिबजी ॥ मोहिलाका दास कहाऊं क्यों दुख पाऊं, मेरी ओर निहारो ॥ मोहि० ॥१॥ षटकाया प्रतिपालक खामी, सेवकको न विसारो॥ मोहि० ॥२॥ द्यानत तारन-तरन विरद तुम, अवर न तारनहारो॥ मोहि०॥३॥ .
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- हजूरी पद-संग्रह । (१०८).
दास तिहारो हूं, मोहि तारो श्रीजिनराय ॥ दास तिहारो भक्त तिहारो, तारो श्रीजिनराय || दास०॥ टेक ॥ चहुँगति दुखकी आगतैं अब, लीजे भक्त वचाय ॥ दास० ||१|| विषय - कषायठगनि ठग्यो, दोनोंतें लेहु छुडाय ॥ दास०॥२॥ द्यानत ममता नाहरीतें, तुम विन कौन उपाय ॥ दास० ॥ ३ ॥
...
"
९९
( १०९ )
1
जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय, न जाय !! जिनवर ० ॥ टेक ॥ रोम रोम लखि हरख होत है, आनंद उर न समाय ॥ जिनवर० ॥ १ ॥ शांत रूप शिवराह वतावै, आसन ध्यान उपाय ! जिनवर० ॥ २ ॥ इंद फ़निंद नरिंद विभव सब, दीसत हैं दुखदायं ॥ जिनवर० ॥ ३ ॥ द्यानत पूजे ध्यावै गावै, मन वच काय लगाय ॥ जिन 11.201
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जैनपदसागर प्रथमभाग
(११०) प्रभु तुम चरन सरन लीनों, मोहि तारो करुणाधार ॥ प्रभु०॥टेक॥ सातं नरकतें नवग्रीवकलों, रुल्यो अनंती बार ॥प्रभु॥१॥ आठ करम : बैरी बड़े तिन, दीनों दुख अपार ॥ प्रभु०॥२॥ धानतकी यह वीनती मेरो,जनम मरन निरवार
॥ प्रभु०॥३॥ . १११ । राग-कन्हारा । . . :: .. :
शरन मोहि वासुपूज्य जिनवरकी॥शरन०॥ टेक ॥ अधम-उधारनं पतित-उबारन, दाता रिद्धि अमरकी॥शस्न०॥१॥असरन-सरन अनाथनाथजी, दीनदयाल नजरकी। शरन ॥२॥द्यानत बालजती जगबंधू, बंधहरन, शिवकरकी ॥३॥ .. ... . (११२) .. . .. . अब मोहि तारले शांतिजिनंद अब०॥टेक कामदेव तीर्थकर चक्री, तीनोंपद सुखवृंदाअव० ॥१॥ सुरनरजुत घरमामृत बरसत, शोभा
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इजूरीपद संग्रहा: ११ पूरन चैद॥अबकाशाद्यानत तीनों लोक विधन छय, जाको नाम करंद ।। अब० ॥२॥
अब मोहि तारले कुंथु जिनेश ।अबधाटेक॥ बुंथादिक पानी प्रतिपालक, करुणासिंधु महेश अव०॥१॥ सम्यकरत्नत्रयपदधारक, तारक जीव अशेष । अब० ॥२॥द्यानत शोभासागर स्वामी, मुक्ति-वधू-परमेश ॥ अब०॥३॥
(११४) ''. अब मोहि तारलै अर भगवान अबाटिक दीप विना शिवराह-प्रकाशक, भवतम नाशकभान ॥ अव०॥ १॥ ज्ञानसुधाकरजोत सदा घर, पूरनशशि.सुखदान । अब०॥२॥भ्रमतपवारन जंगहित कारन, यानत मेघ समान । अब०॥३॥
(११५) भजरे मनुवा प्रभु पारसको॥ भजरेगा टेक॥ मन-वच काय लाय लो इनकी, छांडिसकल भ्रम
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: १६२
जैनपदसागर. प्रथमभाग
. आरसको ॥ भजरे० ॥ १ ॥ अभयदान दे दुख सब हरले, दूर करे भवकारसको ॥ भज़रे ० ॥२॥ द्यानत गावै भगति बढावै, चाहै पावै ता रसको : ॥ भजरे० ॥ ३ ॥
( ११६ )
लगन मोरी पारससों लागी ।लगन०॥टेक॥ कमठ मान-भंजन मनरंजन, नाग किये बडभागी ॥ लगन० ॥ १ ॥ संकट-चूरत मंगल पूरत, परमघरम अनुरागी ॥ लगनः ॥ २ ॥ द्यानत नाम सुधारस खादत, प्रेम-भगति-मति पागी ॥ लगन •
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॥8३ ॥
( ११७ ) प्रभुजी मोहि फिकर अपार ॥ प्रभुजी ० ॥ टेक ॥ दानव्रत नहिं होत हमपैं, होंहिंगे क्यों पार ॥ प्रभुजी ० ॥ १ ॥ एक गुनधुति कहि सकत नाहीं, तुम अनंत भंडार । भगति तेरी बनत नाहीं, शुकतिकी दातार || प्रभुजी ० ॥ २ ॥ एक भवके : १ संसाररूपी कालिमा । .
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- 'हजूरी पद-संग्रह। १०३ दोष केई, थूल कहूं पुकार । तुम अनंत जनम निहारे, दोष अपरंपार ॥ प्रभुजी० ॥३॥ नांव दीनदयाल तेरो, तरनतारनहार । बंदना द्यानतः करत है, ज्यों बनै यों तार ॥ प्रभुजी०॥४॥
(११८) ... . .. प्रभुजी प्रभू सुपास जगंवासतें दास निकास ॥प्रभु०॥ टेक ॥ इदक स्वाम पनिंदके स्वाम, नरिंदके चंदके खाम । तुमको छांडके किस जावें, कौनको ढूंढें धाम ॥ प्रभुजी०॥ १॥ भूप सोई दुख दूर करै है, साह सों दे दान । वैद सोई सब रोग मिटावै, तुम्ही सबै गुनवान ।। प्रभुजी० ॥२॥ चोर अंजनसे तार लिये हैं, जार कीचसे राव । हम-तो सेवक सेव करें हैं, नाम जपै मन चाव ॥ प्रभुजी० ॥३॥ तुम समान हुये न होंगे, देव त्रिलोकमशार । तुम दयाल देवोंके देव हो, धानतको सुखकार ॥ प्रभुजी०॥४॥ तेरी भक्ति बिना धिक है जीवनी ॥तेरी०॥
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व जैनपदसांगर प्रथमभाग॥ टेक॥जैसे वेगारी दरजीकों,पर घर कपडोंका सीवना। तेरी ॥१॥ मुकुट बिना अंबर सब. पहिरे, जैसे भोजनसें.घीव ना। तेरी॥२॥ धाचत भूप.बिना सब सेना, जैसैं मंदिरकी नीव . ना॥ तेरी०॥३॥:..: :- (१२०:) :: :: :उपननइंच हजूरीपदसंग्रह। . : . म्हे तोथांपरवारी; वारी वीतरागीजी,शांत छवी शांकी आनंदकारीजी० ॥ हेंतो॥टेक। इंद नारदः फनिंद मिलि सेवत, मुनि सेवत ऋषिः धारीजी ॥ म्हैतो० ॥२॥ लखि अविकारी परउपकारी, लोकालोक निहारीजी ॥म्हैतो॥२॥ संब त्यागीजी कृपा तिहारी, बुधजन ले बलिहारीजी ॥ म्हें तो० ॥३॥ . . (१२१) .. :: :राग-अलहिया बिलावल- ताल धीमा तेताला । . .
श्रीजिनपूर्जनको हम आए, पूजत ही दुखद्वंद मिटाए ॥ श्रीजिनगाटेका विकलप गयो प्रगट
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१०५
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हजूरीपद - संग्रह 15: भयो धीरंज, अद्भुतः सुखसमत्ता बरसाए। आधि ब्याधि अंब दीखत नाहीं, घरमकलपतरु आंगन छाए ॥ श्रीजिन० ॥ १ ॥ इतमें इंद्र चक्रधर, इतमें, इतमै फनिंद खडे सिरनाए । मुनिजनवृंद करें श्रुति हरखत, धनि हम जनमें पदपरसाए ॥ श्री जिन० ॥ २ ॥ परमोदारिकमै परमातम, ज्ञानमयी हमको दरसाए । ऐसे ही हममें हम जानें, बुधजन गुनमुख जातः न गाए ॥ श्रीजिन० ॥ ३ ॥ .. - (१२२.) )
राग आसावरी जोगिया ताल घीमो वेतालो ।
करम देत दुख जोर, हो सांइयां ॥ करम-टेक ॥
+
कई परावृत पूरन कीने, संग नै छांडत मोर, हो सांइयां ॥ करम ० ॥ १ ॥ इनके वशर्तें मोहि बचाओ, महिमा सुनी अति तोर, हो साइयां ॥ करम ॥२॥ बुधजनकी विनती तुमहीसों, तुमसा प्रभु नहिं और, हो साइयां ॥ करम० ॥ ३ ॥ १२३ ॥ राग असावरी । अरज म्हारी मानोजी, याही म्हारी मानों,
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१.०६ जैनपदसागर प्रथमभागभवदधिसे तारना म्हारा जी ॥ अरज०॥ टेक॥ पतित-उधारक पतित पुकारें, अपनो विरद पिछानो० ॥ अरज०॥१॥ मोहमगरमछ दुख दावानल, जनम मरन जल जानो।गति गति असण वरमैं डूबत, हाथ पकरि ऊंचो आनो। अरज०॥जगौं आनदेव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । बुधजनकी करुणा ल्यो साहिब, दीजै अविचल थानो॥ अमर०॥३॥ . .:
(१२४.). · राग असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। · थे ही मोनै तारोजी, प्रभुजी कोई न हमारो ॥टेका। हूं एकाकि अनादिकालते, दुख पावत हूं भारोजी॥थे ही०॥१॥ विन मतलवके तुमही स्वामी, मतलबको संसारो.। जगजनमिल मोहि जगमै राखें, तूही काढनहारो॥थेई०॥ बुधजः नके अपराध. मिटाओ, शरन गह्यो छै थाले। भवदधिमाही डूबत. मोकों,. करगहि आप निकारों॥थे. ही ॥३॥..
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हजूरी-पद-संग्रह।
(१२५.) राग-आसावरी मांश ताल:-धीमो एकतालो। प्रभूजी अरज़ म्हारी उरघरो॥प्रभूजी॥१॥ प्रभूजी नरकनिगोद्यां मैं रुल्यो,पायोदुःख अपार ॥ प्रभूजी०॥१॥ प्रभूजी हूं पशुगतिमैं उपज्यो, पीठ सह्यो अति भारः ॥प्रभूजी०॥२॥प्रभूजी विषयमगनमैं सुर भयो, जात न जान्यो काल । प्रभूजी०॥३॥ प्रभूजी नरभव कुल श्रावक लह्यो, आयो तुम दरबार॥ प्रभूजी०॥४॥ भवभरमन बुधजनतनों, मेटो करि उपगार ॥ प्रभूजी०
., (१२६) राग सारंगकी मांझ-चाल दीपचन्दी। म्हारी सुणज्यो दीनदयालु,तुमसों अरज करूं ॥म्हारी०॥ टेक ॥ आन उपाव नहीं या जगमें, जगतारक जिनराज, ते पाय पलं ॥म्हारी ॥शा सार्थ अनादिलांग विधि मेरी, करत रहत बेहाल ।इनकों कोलों भरों.॥म्हारी०॥२॥करि
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२०८, जैनपदसागर प्रथमभागकरना करमनकों काटो, जनममरन दुखदाय, इन बहुत डरूं । म्हारी० ॥ ३॥ चरनं सरन तुम पाय अनूपम, बुधजनमांगत येह, गतिगति नांहि फिरूं । म्हारी॥४॥ . (१२७) । .:. : :::
__राग लूहरि सरंग। अरज करूं (तसलीम करूं) ठाडो विनऊ चरननको चेरो॥ अरज० ॥ टेक ।। दीनानाग दयाल गुसाई, मोपर करुणा करकै हेरो। अरज ॥१॥ भववनमैं मोहि निरबल लखिकै, दुष्ट करम सब मिलके घेरयो। नानारूप बनाकै मेरो; गति चारोमें दयो है फेरो ॥ अरज०॥२॥ दुखी अनादि कालको भटकत,सरनो आय गह्यो मैं तेरो । अब तो कृपा करो बुधजन,हरोवेगि संसारबसेरो॥ अरज०॥३॥
(१२८) : . राग लूहरि सारंग जल्द वेवालो। मोकों तारोजी तारोजी तारोजी किरपाकरिके।
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हजूरी पद-संग्रह। १०९ मोकोंगा टेका। अनादिकालको दुखी रहत हों, टेरतहूं जमतें डरिकै ॥ मोकों ॥१॥ भ्रमत. फिरत चारों गति भीतर, भवमाही मरि मरि करिके । इवत अगम अथाह जलंधिम, राखो हाथ पकर करिकै ॥ मोकों॥२॥ मोह भरम विपरीत वसत उर, आप नजानों निजकरिकै। तुम सवज्ञायक मोहि उबारो, बुधजनको अपनो करिकै ॥ मोको० ॥३॥
१२९ । राग सारंग। हम शरन गयो जिनचरनको ॥ हम०॥ टेक ॥अव अवरनकी मान न मेरे, डरहू रह्यो नहिं मरनको ।। हम०॥२॥ भरमविनाशन तत्वप्रकाशन, भवदधि-तारनतरनको । सुरपति नरपति ध्यान घरत वर, करि निश्चय दुखहरनको ॥ हमगाशा याप्रसाद ज्ञायक निजमान्यो, जान्यो तन जड परनको । निश्चय सिधसो पै कषायतें, पात्र भयो दुख भरनको ।। हम० ॥३॥ प्रभुविन अवर नहीं याजगमैं, मेरे हितके करनको । बुध
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११० जैनपदसांगर. प्रथमभागजनकी अरदास यही है, हर संकट मवफिरनको। हम०॥४॥ · .
१३० । राग लूहरि मीणाकी चालमें । · अहो देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छवि भली या विराजै हो, भली या विराजै हो ॥अहोगाटेक॥ सुरनरमुनि याकी सेव करत हैं, करम हरनके काजै हो ।। अहो० ॥१॥ परिगहरहित प्रातिहारजजुत, जगनायकता छाजै हो। दोष विना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि मुखतें गाजैहो। अहो० ॥२॥चितमें चितवत ही छिन माहीं, जन्म जन्म अघ भाजै. हो। बुधजन याकों कबहु न विसरो, अपने हितके काजै हो॥ अहो० ॥॥३॥.
१३१ । राग-सारंग लूहरि। .. श्रीजिनतारनहारा येतो मोनै प्यरा लागो राज श्रीजिन०॥ टेक ॥ बारह सभा विच गंधकुटीमें, राज.रहे महराज ॥श्रीजिन॥१॥अनँतकालका भरम मिटत है, सुनतहिं आप अवाज ॥ श्री.
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हजूरी पद-संग्रह। ॥२॥बुधजन दास रावरो विन, थांस्यु सुधरै काज ।। श्रीजिन० ॥३॥
१३२ । राग-पूरवी नल्द तितालो। हरना जी जिनराज मोरी पीर । हरना॥ टेक। आनदेव सेये जगवासी, सस्यो नहीं मेरो काज. ॥ हरनाजी० ॥१॥जगमैं वसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविधसमाज । तिन इष्ट
अनिष्ट कल्पना, मेटोगे महाराज ॥ हरनाजी० .॥२॥पुदगलराचि अपनपौ मूल्यो, बिरथा करत इलाज । अवहि.यथाविधि वेग वनाओ, बुधजनके सिरताज ॥ हरनाजी० ॥३॥. . . .
१३३ । राग-धनासरी धीमा तेतालो।. ... :: प्रभु थांसू अरज हमारी हो.॥ प्रभु० ॥ टेक॥ भैरे हितून कोऊ जगतमें तुमही तो. हितकारीहो
प्रभुः ॥१॥ संग.लग्यो मोहि नेक न छां है, देत.मोह दुख भारी । भववनमांहि नाचावतं मोकों, तुम जानत हो सारी ॥ प्रभु० ॥२॥ थांकी महिमा अगम अगोचर, कहि न सके
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११२ जैनपदसागर प्रथमभागबुधि म्हारी हाथ जोरिके पांय परत हुँ,आवा. गमन निवारी हो॥ प्रभुः॥३॥.....:
... .१३४ । राग जंगला। : . : मेरो मनुवाअति हरषाय तोरे दरसनसों। मेरे ॥ टेक ।। शांति छवी लखि शांतभाव है, आकुं. लता मिटजाय, तोरे दरशनसों । मेरो ॥१॥ जबलों चरन निकट नहिं आया, तब आकुलता थाय । अब आवत ही निजनिधि पाया, निति नव मंगल थाय, तोरे दरशनसों । मेरोगाबुष जन अरज करें करजोरे, सुनिए श्रीजिनरायः। जबलों मोख होय नहिं तबलों, भक्ति करों गुन गाय, तोरे दरशनको ॥.मेरो०॥३॥
..... १३५॥ राग खमाचः। .: - छवि जिनराई राजै छ । छवि० ॥टेक॥ तर अशोकतर सिंहासन बैठे, धुनिघन गाजे है ॥छवि०॥ १॥ चमर छत्र भामंडलदुति, कोटिभान दुति लाजै छ। पुष्पवृष्टिः सुरनभत दुंदुभि मधुर मधुर सुर बाजें है ॥ छवि० ॥२॥
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- हजूरी पद-संग्रहः .. ११३ सुरनर मुनि मिलि पूजन आवे, निरखतं ननड़ो गजेछ। तीनकाल उपदेश होत है, भवि बुधजन हित काजै छै॥ छवि०॥३॥
१३६ । राग-गारों कानरो। शांका गुण गास्यांजी आदिजिनंदा यांका० वाटक । वचन सुण्या प्रभु मून, म्हारा निजगुण भास्यांजी॥ आदि०॥१॥ म्हांका सुमन-कमलमें निसदिन,यांका चरन वसास्यांजीआदि० ॥२॥ याही मूने लगन लगी छ, सुख द्यो दुःख नसास्यांजी। आदि।। बुधजन हरख हिये अधिकाई, शिवपुरवासा पास्यांजी ॥ आदि०॥ ' . १३७ । राग-सोरठ।।
म्हारी कोन सुने, थे तो सुन ल्यो श्रीजिनराज .म्हारी॥टेका अवर सरव मतलब गाहक, म्हारो सरत न काज।मोसे दीन अनाथ रंकको, तुम बनत इलाजः ।.म्हारी० ॥१॥ निजपर नेकु दिखात. नाहीं, मिथ्यातिमिर समाज । चंद्र प्रभू परकाश करोउर, पाऊं धाम.निजाज॥
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११५ जैनपदसागर प्रथमभागम्हारी ॥२॥ थकित भयो.हूंगति गति फिरता, दर्शन पायो आज । बारंवार वीनवै बुधजन; सरन गहेकी लाज ।। म्हारी०॥३॥....
..१३८ । राग-सोरठ। ' बेगि सुधि लीज्यो म्हारी, श्रीजिनराज ॥ ब्रेगि०॥ टेक ॥ डरपावत नित आपु रहत है, संग लग्या जमराज०॥ वेगि०॥१॥ जाके सुरनर नारक तिरजग, सव भोजनके साज। ऐसो काल हरयो तुम साहब, यात मेरी लाज़ ।। बेगि०॥२॥ परघर डोलत उदर भरनको, होत प्राततै सांज । डूवत आश अथाह जल धिम, यो समभाव जिहाज़: ।। वेगि०॥ धनादिनाको दुखी. दयानिधि, अवसर पायो आज। बुधजन सेवक ठाडो विनवै,कीज्यों मेरा-काज ॥ ब्रेगिः ॥४॥ ..
...(.१३९). : श्राका गुन गास्यांजी ज़िनज़ीराजथांका दर सनतें अघ नास्या ॥ थांकाः ॥टेक ॥ था सां:
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... हजूरी पद-संग्रह ११५ रीखा तीनलोकमें, अवर न दूजा भास्याजी ।। जिनजी०॥१॥ अनुभव, रसतै सींचि सींचित कैं, भवआताप बुझास्यांजी। बुधजनका विकलप सब भाग्या , अनुक्रमतें शिव पास्यांजी ॥ जिनजी०॥२॥
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(१४०)
भजि जिन चतुरवि संति नाम ।भजिटेका। जे भजे ते. उतरि भवदधि, लयो-शिवसुखधाम । भज० ॥१॥ ऋषभ अजित संभव स्वामी, अभिनंदन अभिराम । सुमति पदम सुपास चंदा, पुष्पदंत प्रनाम ॥ मज ॥२॥ शीतल श्रेयान् वासुपूज्य,विमल अनंत सुनाम । धर्मसांति जु कुंथु अरहा, मल्लिं राखै माम।। भज०॥ ३॥ मुनिसुवृत्त नमि नेमिनाथा, पार्स सन्मति खाम। राखि निश्चय जपो बुधजन, पुरै संबकी कामः॥ भजः ॥ ४॥. . . . .
... १४१ । राग-कानडो। आज मनरी वनी छ जिनराज ॥आज०॥ टेका थांको ही सुमरनाथांको ही पूजन, थांको
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जैनपदसागर. प्रथमभाग
ही तत्त्व विचार | आज० ॥ १ ॥ थांके विछुरे अति दुख पायो, मोपे कह्यो न जाय । अब सनमुख तुम नयनों निरखे, धन्य मनुष्य परजाय ॥ आज ● ॥ २ ॥ आजहि पातक नास्यो मेरो, ऊतरस्यों. भवपार । यह प्रतीत बुधजन उर आई, लेस्यों शिवसुख सार || अंज• ॥
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१४२ | रेखता ।
ऋषभ तुमसे खाल मेरा, तुही है नाथ जगकेरा ॥ ऋषभ० ॥ टेक ॥ सुना इंसाफ है तेरा, विगर मतलब हितू मेरा० ॥ ऋषभ० ॥ १ ॥ हुई अर होयगी अब है, लखो तुम ज्ञानमें सब
। इसी से आपसे कहना, औरसे गरज क्या लहना ॥ ऋषभ० ॥ २ ॥ न मानी सीख सतगुरुकी, न जानी बाट निजघरकी । हुवा मदमोहमें माता, घने विषयन के रँगराता ॥ ऋषभ० ॥ ३ ॥ गिना परद्रव्यको मेरा, तबै बसु कर्मने घेरा । हरा गुन ज्ञानधन मेरा, करा विधि जीवको चेरा ॥ ऋषभ० ॥ ४ ॥ नचावै स्वांग रचि
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. . हजूरी पद-संग्रह। ११७ मोकों, कहूं क्या खवर सब तोकों । सहज मह बात अति वांकी, अंधमको आपकी झांकी ।। ऋपभ० ॥५॥ कहूं क्या तुम सिफत सांई धनत नहिं इंद्रसों गाई । तिरे भविजीव भवसर ते,तुमारा नांव उर धरतें ॥ ऋषभ० ॥ मेरा मतलब अवर नाही, मेरा तो भाव मुझमाहीं। वाहिपर दीजिये थिरता, अरज बुधजन यही करता ऋषभ० ॥६॥ .
" . १४३ रेखता। " चंदजिन विलोकवेत फदं गलि गया, धंदसब जगतके विफल, आज लखि लिया । चंद०॥टेक॥ शुद्धचिदानंद खंध, पुद्गलके माहि; पहिचान्या हममें हम, संशय भ्रम नाहि ॥ चंद० ॥शीसोनईस सो नदास, सोनहीं हैं रंक। ऊंच नीच गोत नाहि, नित्य ही निशंक चंद॥२॥ गंध वर्न फरस खाद, बीसगुन नहीं। एक आतमा अखंड, ज्ञान है सही ॥ चंद॥४॥ परकों जानि ठानि परकी, वानि पर भया।. परकी. साथ
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९१%
जैनपदसागर प्रथमभाग
दुनियामै खेदको लया ॥ चंद० ॥ ३ ॥ काम
क्रोध कपट. मान, लोभकों करा । नारकी
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नर देव पशू होय फिरा ॥ चंद ॥ ४ ॥ ऐसे बखत के बीच ईश, दरश तुम दिया। मिहरवान होय दास, आपका किया ॥ चंद ॥ ५ ॥ जोलौं कर्म काट, मोखधाम ना गया । तौलौं बुधजनको सरन राख करि मया ॥ चंद० ॥ ६ ॥
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१४४ | राग - मल्हार ।
जगतपति तुम हो श्रीजिनराई ॥ जगतं ॥
टेक || अवर सकल परिगहके धारक, तुम त्यागी हो सांई ॥ जगत० ॥ १२ ॥ गर्भ मास पंदरे लों धनपति, रतनवृष्टि बरसाई । जनम समय गिरिराज-शिखर पर, न्हौंन करयों सुरराई ॥ जगत० ॥ २ ॥ सदन त्यागि बनमें कचलोंचत इंद्रनि पूजा रचाई। सुकलध्यान तें केवलि उप ज्यो, लोकालोक दिखाई ॥ जगत० ॥ ३ ॥ सर्व कर्म हरि प्रगदिः शुद्धता, नित्य निरंजनताई।
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--... हजूरी प्रद- संग्रह |
१.१९
मनवचतन बुधजन वंदत है, द्यो समता सुख
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दाई ॥ जगत० ॥ ४ ॥
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१४५ | राग-रेखता । - अरज जिनराज यह मेरी, इस्या अक्सर बतावोगे ० ॥ अरज• ॥ टेक ॥ हरो इन दुष्ट करमनको, सुकतिका पद दिलावोगे ॥ अरजः ॥ १ ॥ करूं जब भेष मुनिवरका, अवर विकलप विसारूंगा । रहूंगा आप आपेमैं, परिग्रहको विद्यारूंगा || अरज• ॥२॥ फिरचा संसार सारेमैं दुखी मैं सब लख्या दुखिया । सुनत जिन चानि गुरुमुखिया, लख्या चेतन परम सुखिया ॥ अरजः || ३|| पराया आपना जाना, बनाया क़ाज मनमाना । गहाया कुगति तैखाना, लहाया विपति विललाना || अरज० ॥ ४ ॥ जगतमें जन्म अर मरना, डरा मैं आ लिया शरना । मिहिर बुधजनपै या करना, हरो परतें ममत धरना ॥ अरज० ॥ ५ ॥
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जैनपदसागर प्रथमभाग
( १४६ ) आयो प्रभु तोरे दरवार, सब मो कारज सरि या || आयो० ॥ टेक ॥ निरखत ही तुम चर नन ओर, मोहतिमिर मो हरिया || आयो० ॥ || मैं पाई मेरी निधि सार, अबलों रह्या विसरिया । अब हूवा उर हरष अपार, कृत्य कृत्य तुम करिया || आयो० || २ || जड चेतन नहिं प्रान्या भेद, राग रोष जब धरिया । तब हुवा ये निपट कुज्ञान, करमबंधमैं परिया || आयो० ॥ ३ ॥ इष्ट अनिष्ट संयोगन पाय, दुष्ट दवानल जरिया । तुम पाए वडभाग़न जोग, निरखत हिय गय हरिया || आयो० ॥ ४ ॥ धारत ही तुम बानी कान, भरमभाव सब गरिया । बुध जनके उर भई प्रतीत, अब भवसागर तरिया || 27170 11.4:11
१९०
( १४७ )
.. ऐसे प्रभुके गुन को कैसे कहै | ऐसे० ॥ टेक ॥ दरश ज्ञान सुख वीर्य : अनंता, अवर अनंत
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हजूरीपद-संग्रह । : १२१ गुन जामै रहै । ऐसे०.१.१॥ तीन काल परजाय द्रव्य गुन, एक समय जाको ज्ञान गहै।। ऐमे० ॥जो निज शक्ति गुफ्त छी अनादी, सो सब प्रगट अब लहलहै ॥ ऐसे०॥ ३ ॥ नंतानंत काललों जाको, सांत सुथिर उपयोग बहै। ऐसे०॥४॥ मन-वच-तनतें बंदत वुधः जन, ऐसे गुननको आप चहैं ॥ ऐसे०॥५॥
(१४८) तुम विन जगमैं कौन हमारा तुमगाटेक जोलों वारथ तोलों मेरे, विन स्वारथ नहिं देत सहारा ।। तुमविन० ॥१॥ अवर न कोई है या जगमें, तुमही हो सबके उपगारा ॥तुमविना २॥ इंदं नरिंद फनिंद मिल सेवत, लखि भवः सागर-तारनहारा ॥ तुमविन० ॥३॥ भेदविज्ञान होत निज परका, संशय भरम करत निरवारां ।। तुम०॥४॥ अनंत जन्मके पातक नाशत,बुधजनके उर हरषअपारा तुम०॥५॥
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१२२ जनपदसागर प्रथमभाग.: . .:१४९) .. .. । तूही तूही याद मोहि आवै जगतमैं ॥ तूही ॥टेक ॥ तेरे पदपंकज सेवत हैं, इंद नरिंद फर्निद भगतमै ।। तूही०॥१॥ मेरा मन निशदिन ही राच्या, तेरे गुन-रस गान पगतमैं ॥ तूही० ॥२॥भव अनंतका पातक नास्सा, तुम जिनवर छवि दरस जगतमैं ॥३॥ मात तात परिकर सुत दारा, ये दुखदाई देख भगतम ।। तूही०॥४॥बुधजनके उर आनंद आया, अब तो हूं नहिं जाऊं कुगतमैं ॥ तूही तूही०॥५॥
. १५० । राग-रेखता। • तिहारी याद होते ही, मुझे अग्रत वरसता है जिगर तपता मेरा भ्रमसों, तिसें समता सर सता है ॥ तिहारी० ॥१॥ दुनीके देव दाने
सब,कदम तेरे परसता है । तिहारे दरश देख * नको, हजारों चंद तरसता है ॥ तिहारी० ॥२॥
तुम्हींने खूब भविजनको, बताया.भिस्त-रसती .१ वर्गका रास्ता ।
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... हजूरी: पद -संग्रह ।... है । उसी रेस्तै चलें सायर, तुमारे बीच बसता है ॥ तिहारी ॥ ३ ॥ विमुख तुमसों भए जितनें, तिते दोजकमें घसता है । मुरीद तेरा सदा बुध जन, आपने हाल मुसता है ॥ तिहारी० ॥ ४ ॥ १५१ । राग- अडाणो । '
तुम चरननकी शरन आय सुख पायो ॥ तुम० ॥ टेक ॥ अवलों चिरभव बनमें डोल्यो, जन्म जन्म दुख पायो ॥ तुम० ॥ १॥ ऐसो सुख सुर प्रतिके नाहीं, सो मुख जात न गायो । अब सब संपति मो उर आई, आज परमपद लायो || तुम० ॥ मनवचतनतैं, दृढकरि राखों, कबहुं न न्या विसिरायो । बारंबार बीन वै बुधजन, कीजे मनको भायो ॥ तुम० ॥ ३ ॥ ( १५२)
आनँद भयो निरखत मुखः जिनचंद | आनँद ॥ टेक ॥ सब आताप गयो ततखिन ही, उपज्यो हर अमंद ॥ १॥ भूलथकी रागादिक कीने, तब
१ नरकमें । २ दास वा । शिष्यं । ।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
बाँधे विधिनंदे | इनकी कृपातें अब मिटि जैहैं, विपदाके सब फेद || आनंद० ||२|| केवल खेत सुभग सुछतापर, वारों कोटिक चंद । चरनकमल बुधजन उर भीतर, ध्यावै शिवसुखकंद || आनंद० ॥ ३ ॥
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१५३ । राग - ईमन जल्द विताको । : शरन गही मैं तेरी, जग-जीवन जिनराज जग पति ॥ शरन०॥ टेक ॥ तारनतरन करन पावन लग, हरन करम-भवफेरी ॥ शरन || १|| ढूंढत फिरयो भरचो नानादुख, कहूं न मिली सुखसेरी यातें तजी आनकी सेवा, सेव रावरी हेरी ॥ शरन ॥ २ ॥ परमैं मगन विसारचो आतम, घरचो भरम जगकेरी | ये मति तजूं भजूं परमातम, सो बुधि की मेरी ॥३॥
१५४ | पंजाबी भाषामें ।
- करमूंदों कुपेंच मेरे है दुखदाइयां हो ॥ टेक ॥ करम हरन महिमा सुन आयो, सुनिए मैंडी
१ कर्मवंद । २ कर्मोका । ३. मेरी ।
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.: . हजूरी पद-संग्रह। साइयां हो ॥ करमुंदा ॥१॥ कबहुंक इदं नरिंद बनायो, कबहुंक रंक बनाइयां.। कबहुंककीट गयंद रचायो, ऐसे नाच नचाइयां। करमूंदा०॥ ॥जो कुछ भई सो तुमही जानो, मैं जानत हूंनाइयां । कर्मवध तुम काटे जाविधि, सो विधि मोहि दिवाइयां । करमूंदा॥३॥
इति हजूरीपद-संग्रह समाप्त ॥ २॥
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१२६ जैनपदसागर प्रथमभाग
(३)जिनवाणी स्तुतिपदसंग्रह। ..... दौलतरामजीकृत शास्त्र स्तुति।
जिनबैन सुनत, मोरी मूल भगी । जिनवैन ।। टेक । कर्मखभाव भाव चेतनको, भिन्नपि. छानन सुमति जगी। जिनवैन० ॥१॥ ज़िनअनु भूति सहज ज्ञायकता,सो चिर तुष-रुष-मैल पगी यादबाद-धुनि-निर्मल जलतें, विमल भइ सम. भाव लगी। जिनबेनगा॥ संशय-मोह-भरमत विघटी, प्रगटी आतमसौंजे संगी। दौल अपू. एब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंसे उमगी। जिनबैन०॥३॥
(२) जय जय जग-भरमतिमर-हरन जिनधुनी ॥ जय जय० ॥ टेक ॥ याविन समुझे अजौं न सौंज-निजमुनी। यह लखि हम निजपर अवि, वेकता लुंनी॥२॥जय जय०॥शाजाको गनराज अंग,-पूर्वमय चुनी। सोई कही है कुंदकुंद,-. १ निज परणति । २ इच्छा । ३ अभ्यस्त की ४ । काटदी ।
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जिनवाणी स्तुति पद-संग्रह। १२७ प्रमुख बहुमुनी ॥ जय जय० ॥२॥ जे चर जड भए पीय, मोह वारुनी। तत्वपाय चेते जिन, थिर सुचित सुनी ।। जय जय० ॥३॥ कर्ममल पखारनेहि, विमल सुरधुनी। तजि विलंब अंई. करो, दोल उरघुनी ।। जय जय० ॥४॥
अब मोहिं जान परी, भवोदधि तारनको हैं जैन ॥अव०॥ टेक ॥ मोहतिमिरतें सदा काल, के, छाय रहे मेरे नैन । ताके नासन हेत लियो मैं, अंजन जन सु ऐन ॥ अव०॥१॥ मिथ्या मती भेषको लेकर, भाषत है जो वैन । सो के वैन असार लखे मैं, ज्यों, पानीके फैन ॥ अव० ॥२॥ मिथ्यामती बेल जगफैली, सो दुखफलकी दैन । सतगुरु-भक्ति-कुठार हाथ लै, छेद लियो अति चैन । अव०॥३॥जा विन जीव सदैव कालतें, विधिवस सुख न लहै न । अश; .१ जीव २ । मोहरूपीमदिरा । ३. धोनेके लिये । ४ माता ।
५ पुनीत-पवित्र । ६ शास्त्र जिनवाणी।
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१२८ 'जनपदसागर.प्रथमभागरन-शरन अभय दौलत अब, भजो रैन दिन जैन ॥ अब० ॥४॥
.. [१] . सुनि जिनवैन, श्रवन सुख पायो । सुनि०॥ ॥ टेक ॥ नस्यो तत्वदुरअभिनिवेशतम, स्याद उजास कहायो। चिर विसरचो लह्यो आतम रैन ॥ श्रवन० ॥१॥ दह्यो अनादि असंजम दवतें, लहि व्रत सुधा पिरायो। धीर धरी मन जीतन मैन ।। श्रवन० ॥२॥ भए विभाव अभाव सकल अब, सकल रूपचिंत लायो । दौल लह्यो अव अविचल चैन । श्रवन० ॥३॥
‘नित पीज्यो घी धारी, जिनवानि सुधासम जानकै ॥ नित्य ॥ टेक ॥ वीरमुखारविन्दतें अंगटी, जन्मजरागर्दैटारी । गौतमादि गुरु-उर. घटव्यापी, परम सुरुचि-करतारी॥ नित पीज्यो.
१ आत्मरत्नं २ । कामदेव । ३ महावीरस्वामीके मुखकमलसे । १। रोग।
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जिनवाणीस्तुतिप्रद - संग्रह।
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॥ १ ॥ सलिले समान कलिलमल - गंजन, बुधमनंरजनहारी । भंजन विभ्रम धूलि प्रभजन, मिथ्या जलद निवारी || नित पीज्यो० ॥ २ ॥ मंगलतरु उपावन धरनी, तरनी भवजल-तारी । वधैविदारन पैनी छैनी, मुक्तिनसैनी सम्हारी ॥ नित पीज्यो० ॥ ३ ॥ स्वपर-स्वरूप - प्रकासनको यह, भानु - किरन अविकारी । मुनिमैन - कुमुद निमोदन - शशिभा, शममुख सुमन सुवारी ॥ नित 'पीज्यो० ॥ ४ ॥ जाको सेवत वेवतं निजपद, नसत अविद्या सारी । तीनलोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ॥ नित पीन्यो० ॥ ५ ॥ कोटि जीभसों महिमा जाकी, कहिन सकै पवि
१ जलके समानं । २ पापरूपी मैलको नष्ट करनेवाली । ३ नष्ट - करनेके लिये भ्रमरूपीधूल व मिथ्यात्वरूपी बादलको उडानेवाली · हवा (आंधी ) 18 कर्मबंधन छेदनेको तीक्ष्ण छेनी । ५ मुनियोंके मनरूपी कमोदनीको प्रफुल्लित करनेकेलिये चन्द्रमाकी रोशनी # ६ समतारूपी सुख- पुप्पोंको पैदाकरनेकेलिये चक्छी बाटिका ७ मानते वा अनुभव करते हैं. श्रात्मीक रस । तीन भुवनकें - राजाइ न्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रादि ।
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जैनपदसागर प्रथमभांग
धोरी । दौल अल्पमति केम कहें यह, अधमउधारनहारी ॥ नित पीज्यो ॥ ६ ॥
६ | राग चर्चरी ।
सांची तो गंगा यह वीतरागवानी, अविच्छन्न धारा निजधर्म की कहानी ॥ सांची० ॥ टेक ॥ जामैं अतिही विमल अगाध ज्ञानपानी । जहां नहीं संशयादि पंककी निशानी || सांची० ॥ १॥ सप्त भंग जहँ तरंग, उछलत सुखदानी | संतचित्त मराल वृन्द, रमैं नित्य ज्ञानी ॥ सांची० ॥ २ ॥ जाके अवगाहनतें, शुद्ध होय प्रानी । भागचंद निचे, घटमांहिं या प्रमानी ॥ सांची० ॥ ३ ॥ ७ । राग - ईमन ।
महिमा है अगम जिनागमकी, ॥ महिमा है० ॥ ॥ टेक ॥ जाहि सुनत जन भिन्नं पिछानी, हम चिनमूरति आतमकी ॥ महिमा०॥१॥ रागादिकदुखकारन जाने, त्याग बुद्धि : दीनी भ्रमकी | ज्ञानजोति जागी उर अंतर, रुचि वाढी पुनि
१. वज्रधारी - इंद्र।
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- 'जिनवाणीस्तुतिपद-संग्रह। १३१ शमदमकी ।। महिमा० ॥२॥कर्मबंधकी भई निर्जरा, कारण परंपराक्रमकी। भागचंद शिव लालचलाग्यो, पहुंच नहीं है जहं जमकी ॥ महिमा०॥३॥
. . ८। राग-सोरठ देशी।
थांकी तो वानीमैं हो, जिन स्वपरप्रकाशकज्ञान । थांकी तो० ॥ एकीभाव भये जड चेतन, तिनकी करत पिछान ॥ थांकी तोगाशासकलं पदार्थ प्रकाशत जाम, मुकुर तुल्य अमलान ॥ • थांकी तो० ॥२॥ जगचूड़ामन शिव भये तेही, तिन कीनो सरधान ॥ थांकी तो० ॥३॥ भागचंद बुधजन ताहीका, निश दिन करत बखानं ॥थांकी तो०॥४॥
. ९ राग-सोरठ। ... म्हाकै घर जिनधुनि अब प्रगटी॥म्हाके घर०
॥ टेक ॥ जाग्रत दशा भई अब मेरी, सुप्त-दशा.. विघटी। जगरचना दीसत अब मोकों, जैसी.. रहँन्टघटी । म्हाकै घर० ॥१॥विभ्रम-तिमिर
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जैनप्रदलांगर प्रथतमांग
हरन निज हगकी, जैसी अँजन वटी । तातें स्वानुभूति प्रापतितैं, परपरनति सब हटी ॥ | म्हाके घर० ॥ २ ॥ ताके विन जो अवर्गम चाहै, सो तो शठ कपटी । तातैं भागचंद निशिवासर, इक ताहीको रटी || म्हारे घर० ॥ ३ ॥
१० । राग - मल्हार ।
बरसत ज्ञान सुनीर हो, श्रीजिनमुखघनसों बरसत० ॥ टेक ॥ शीतल होत सुबुद्धि मेदिनी, मिटत भवातप पीर ॥ बरसत० ॥ १ ॥ स्याद्वाद नयदामिनि दमकै, होत निनाद गंभीर ॥ वरसत. ॥ २ ॥ करुना नदी बहै चहुंदिशिर्तें, भरी सो दोई तीर ॥ बरसत० ॥ ३ ॥ भागचंद अनुभव मंदिरको, तजत न संत सुधीर ॥ बरसत० ||४||
११ राग - मल्हार ।
मेघघटासम श्रीजिनवानी ॥ मेघघटा० ॥ ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला चमकत जामैं, बरसत ज्ञान सुपानी ॥ मेघघटा०॥१॥ धर्मसेस्य जातें बहु
. १ पदार्थोंका ज्ञान । २ धर्मरूपी अन
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जिनवाणी स्तुति पद -संग्रह । बाढे, शिवआनंद फलदानी ॥ मेघघटा० ॥ २ ॥ मोहनवूल दबी सव यातें, क्रोधानल सु बुझानी ॥ मेघघटा० ॥ ३ ॥ भागचंद बुधजन केकीकुल, लखि हरखे चित ज्ञानी ॥ मेघघटा० ॥ ४ ॥ १२ । लावनी ।
धन्यधन्य है घड़ी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि टरी ॥ धन्यधन्य० ॥ टेक ॥ जडतें भिन्न लखी चिन्मूरत, चेतन स्वरस भरी । अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, पर मैं सब परिहरी ॥ धन्य धन्य० ॥ १ ॥ पापपुण्य विधिबंध अवस्था, भासी अति दुख भरी । वीतराग विज्ञानभावमय, परनति अति विस्तरी ॥ धन्य धन्य ॥ २ ॥ चाहदाह विनसी: बरसी पुनि, समतामेधझरीं । वाढी प्रीति निरा कुलपदसों, भागचंद हमरी ॥ धन्यधन्य० ॥३॥ - ( १३ )
: समझत क्यो नहिं वानी अज्ञानी जन ॥ समझत• ॥ टेक ॥ स्यादवाद अंकित सुखदायक,
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१३४ः । जैनपदसागर प्रथमभागभाषी केवलज्ञानी,समझताशाजाहि लखे निर्म- . लपद पावै, कुमतिकुगतिकी हानी । उदय भया जिहिमैं परकासी, तिहँ जानी सरधानी ।। समः झत०॥२॥ जामैं देव धरम गुरु वरने, तीनों मुकति-निसानी । निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला पानी ॥ समझत० ॥३॥ या जगमाहि तुझे तारनको, कारण नाव बखानी । धानत सो गहिए निहसों, हज ज्यों शिवथानी ॥ समझत०॥४॥
(१४) - वे पानी सुज्ञानी जिन जानी जिनवानी वे॥ टेक ॥चंदसूर हु दूरकरैं नहिं, अंतर तमकी हानी ॥०॥१॥ पच्छ सकल नय भच्छ करत हैं, स्यादवादमै सानी ॥ वे॥२॥द्यानत तीन भवन मंदिरमैं दीवट एक बखानी ॥ ३०॥३॥.
(१५) तारनको जिनवानी ॥ तारनको० ॥ टेक ॥. मिथ्यात. चूरै समकित. पूरै, जनम जरामृतु हानी
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जिनवाणीस्तुतिपद - संग्रह । ॥ तारंनको ० ॥ १ ॥ जंडता नाशै ज्ञान प्रकाशै, शिवमारग अगवानी ॥ तारनको ० ॥ २ ॥ द्यानत तीनों लोक विथाहर, परमरसायन मानी' तारनको० ॥ ३ ॥
'१६ | राग- आसावरी जोगिया । कलिमेँ ग्रंथ बडे उपगारी ॥ कलिमैं ० ॥ टेक ॥ देवशास्त्र गुरु सम्यक सरधा, तीनों जिनतें घारी' ॥ कलिमैं० ॥ १ ॥ तीन बरस वसुमास पंद्रदिन, चौथाकाल रहा था । परमपूज्य महावीर स्वामि तव, शिवपुरराज लहा था ॥ कलिमैं ● ||२|| केवलि तीन पांच श्रुतकेवलि, पीछे गुरुनि विचारी । अंगपूर्व अब है न रहेंगे, बात लखी थिरकारी ॥ कलिमै ० ॥ ३ ॥ भविहितकारन धर्मविथारन, आंचारजों बनाये | बहुतनि तिनकी टीका कीनी, अदभुत अरथ समाये ॥ कलिमैं० ॥ ४ ॥ केवलि श्रुतकेवलि यहां नाहीं, ". मुनिगुन प्रगट न सूझैं । दोऊं केवलि आज यही हैं, इनहीको मुनि बूझें ॥ कलिमै ० ॥ ५ ॥ बुद्धि
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६३६ : जैनपदसागर प्रथममार्गप्रगट करि आप बांचिये, पूजा वंदन कीजै। दरक स्वरचि लिखवाय सुधायसु, पंडितजनकों दीजै ।। कलिमैं ॥६॥ पढतै सुनतें चरचा: करत, है संदेह जु कोई। आगम माफिक ठीक करै के, देख्यो केवलि सोई । कलिमें० ॥७॥ तुच्छबुद्धि कछु अरथ जानिक, मनसों विंग उठाये। औधिज्ञान श्रुतज्ञानी मानों, सीमंधर मिलि आये ॥ कलिमैं० ॥ ८॥ ये तो आचारज हैं सांचे, ये आचारज झूठे। तिनिके ग्रंथ. पढ़ें नित बेर्दै, सरधा ग्रंथ अपूठे॥ कलिमैं॥९॥
सांचझूठ तुम क्योंकर जान्यो, झूठ जान क्यों . . पूजो । खोट निकाल शुद्धकर राखो, अवर
बनावो दूजो ॥ कलिमैं० ॥१०॥कोन सहामी बात चलावे, पूछ आनमती तो। ग्रंथ लिख्यो तुम क्यों नहि मानो, ज्वाब कहा कहि जीतो ॥ कलिमैं ॥ ११ ॥ जैनी जैनग्रंथके निंदक, हुँडासर्पिनी जोरा । धानत आप जानि चुप रहिये, जगमैं जीवन थोरा०॥ कलिमैं० ॥१२॥ १ आजकल-'सुधवाय छपाकर' कहना चाहिये ।
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जिनवाणीस्तुतिपद-संग्रह। १३७ ... १७ । राग-विलावल इकतालो। • सारद ! तुम परसादतें, आनंद उर आया. ॥ सारद ॥ टेक ॥ ज्यो तिरसातुर जीवको अग्रतजल पाया ।। सारद० ॥१॥नय परमान निछेपतै, तत्त्वार्थ बताया। भाजी भूल मिथ्यातकी, निजनिधि दरसाया॥ सारद० ॥२॥ विधना मोहि अनादित चहुंगति भरमाया । ता:: हरिवेकी विधि सबै, मुझमांहि बताया ॥सारद. ॥३॥गुन अनंत मति अलपते, मोते जात न गाया। प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरखाया ॥ सारद०॥४॥ : . (१८)
भवदधि तारक नवका, जगमाही जिनबान ॥ भवदधि० ॥ टेक । नयप्रमान पतवारी जाकै, खेवट आतमध्यान । भवदधि०॥ १॥ मनः वचतन सुधिजे भविधारत, तेपहुंचत शिवथान। परत अथाह मिथ्यातभँवर ते. जे नहिं गहत अजान ॥ भवदधि०॥२॥विन अक्षर जिन
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१३८९ जैनपदसागर प्रथमभागमुखतें निकरी, परी वरनजुत कान । हितदायक बुधजनको गनधर,गूथे ग्रंथ महान। भविदधि०॥३॥
१९। राग-ललित जल्द तितालो। · हो जिनवाणीजू तुम मोकों तारोगी॥ हो ॥टेक ॥ आदि अंत अविरुद्ध वचनतें, संशय भ्रम निरवारोगी॥ हो० ॥१॥ ज्यों प्रतिपालत गाय वत्सकों, त्योंही मुझको पारोगी। सनमुख कालबाध जब आवै, तब तत्काल उबारोगी॥ हो ॥२ ।। बुधजन दास बीनवै माता, या विनती उर धारोगी॥ उलाझ रह्यो हूं मोहजालमैं, ताकों तुम सुरझारोगी ॥ हो० ॥३॥ - २० । राग-विलावल कनडी।
मनकै हरष अपार, चितकै हरष अपार, वानी सुन ॥ टेक ॥ज्यों तिरषातुर अंमृत पीवै, चातक अंबुदधार ॥ वानीसुनि० ॥१॥. मिथ्यातिमिरि गयो ततखिनही. संशयः भरम निवार। ....१ बादलकी धावा. बूंद ।
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जिनवाणीस्तुतिपद-संग्रह। १३९ तत्वारथ अपने उर दरश्यो, जान लियो निजसार । वानीसुन० ॥२॥ इंद नरिंद फनिंद पदीघर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद बुधजनके उर, उपज्यो अपरंपार ।।वानीसुनि०॥३॥
(२१) जिनवानीके सुनसों मिथ्यात मिटै, मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै| जिनवानीके० ॥ टेक ॥ जैसे प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सव दूर फटे। जिनवानीके०॥१॥ कालअनादिकी भूल मिटावै, अपनी निधि घटमैं प्रगटै । त्याग विभाव सुभाव सु धारै, अनुभव करतां कर्म कटै जिनं० ॥२॥ अवर काम तजि सेवो याकों, या विन नाहिं अज्ञान घटै।बुधजन या भव परभव माही, वाकी हुंडी तुरत पटै । जिनवानीके ॥३॥
. २२ । रेखता। . परम जननी धरम कथनी, भवार्णवपारकों तरनी।परम०॥ टेक॥अनक्षरिघोष आपतकी,
:१ अनक्षरी धुनि । २ातकी-सच्चे देवकी।
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१४० · जैनपदसागर प्रथमभागअछरजुत गनघरों बरनी॥ परम०॥॥ निरखेपोनयन जोगनतें, भविनको तत्वअनुसरनी । विथैरनी शुद्ध दरसनकी,मिथ्यातम मोहकी हरनी परम०॥२॥ मुकतिमंदिरके चढनेकों सुगमसी, सरल नीसरनी । अंधेरे कूपमें परता, जगत उद्धारकी करनी॥ परम०॥३॥ तृषाके ताप मेटनकों,करत अमिरत वचन झरनी। कथंचितवाद आचरनी, अवर एकांत परिहरनी॥परम०॥४॥ तेरा अनुभव करत मोकों,बहुत आनंद उरभरनी। फिरयो संसार दुखिया हूं, गही अब आन तुम. संरनी०॥ परम०॥५॥ अरज़ बुधजनकी सुनि जननी, हरो मेरी जनममरनी । नमूं करजोर मनवचत, लगाके सीसको धरनी॥परम०॥६॥
; २३ । राग-परज मारू । . . जिनवानी प्यारी लागै छै महराज, सब दुख हारी अतिसुखकारी ॥ जिनवानी० ॥ टेक। अनंत जनमके कर्म मिटत हैं, सुनतहि तनक १ निक्षेपनयके अनुयोगसे । २ विस्तारनी। ३ नसैनी । ४ स्याद्वादं
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जिनवाणी स्तुति पद-संग्रह । २४१ अवाज ॥ जिनवानी० ॥१॥ षटद्रव्यनको कथन करत है, गुन-परजाय समाज। हेया हेय वतावत सिगरे, कहत है काज अकाज ।। जिनवानी० ॥२॥ नय-निक्षेप-प्रमाण-वचनतें, परमत-हरत-मिजाज । बुधजन मनवांछा सव पूरै, अमृत स्याद अवाज ।। जिनवानी० ॥३॥
२४ । राग-ठुमरी। सुनकर वानी जिनवरकी म्हारे, हरष हिये न 'समाय जी ॥ सुनकर० ॥ टेक ॥ काल अनादिकी तपन बुझाई, निजनिधि मिली अघाय जी ॥सुनकर० ॥१॥ संशय मर्म विपर्जय नास्या, सम्यक-बुधि उपजाय जी ॥ सुनकर॥२॥ अव निरभय पद पाया उर मैं, वंदों मनवचकायजी॥ सुनकर०॥३॥ नरभव सुफल भया अब मेरा, बुधजन भेटत पांय जी ॥ सुन० ॥४॥ .
२५ । राग-दीपचंदी। म्हारा मनकै लगगई मोहकी गांठ, मैं तो जिन आगमसँ खोलों ॥ म्हारा० ॥ टेक ॥ अनादि
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१४२
जैनपदसागर प्रथमभाग
कालकी धुलरही गाढी, ज्ञानछुरीसों छोलों || म्हारा० ॥ १ ॥ अष्टकरम ज्ञानावरणादिक, मो- आतम- ढिग जोलों । रागरोप विकलपं नहिं त्यागूं, तोलों भववन डोलों || म्हारा० ॥२ भेदविज्ञान की दृष्टि भई जब, परपद नाहिं टटो लों । विषय कषाय-वचन हिंसाका, मुखतें कबहूं न बोलों || म्हारा० ॥ ३ ॥ धन्य जथारथ वचन जिनेश्वर, महिमा बरनू कोलों । बुधजन जिनगुन कुसुम गूंथिकै विधिकर कंठमैं पोलों ॥ म्हारा० ॥ ४ ॥
२६ | राग अलहिया विलावल । वानी जिनकी बखानी, होजी, वाकों सव मुनि मनमैं आनी ॥ वानी० ॥ टेक ॥ मिथ्याभानी सम्यकदानी, म्हारा घटमैं बसो हितदानी ॥ वानी० ॥ १ ॥ निश्चय व्योहार जितावनहारी,. नय निक्षेपमानी । तुहि जाने विन भववन भटक्यो, करहु कृपा सुखदानी ॥ वानी० ॥२॥ जिते तिरे भवि भवदधिसेती, तिन निश्चय उर आनी ।
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जिनवाणीस्तुतिपद-संग्रह। १.४३ अव हूं तरि हैं बुधजन तुमतें, अंकित स्याद निशानी।। वानी०॥३॥
भैया भगवतीदासजीकृत। .
२७-राग-धनाश्री। 'जिनवानी को को नहिं तारे ॥ जिनवानी०॥ टेक ॥ मिथ्यादृष्टी जगत निवासी, लहि समकित निजकाज सुधारे । गौतम आदिक श्रुतके पाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे ।। जिनवानी ॥१॥ परदेशी राजा छिनवादी, भेद सु तत्त्व-भरम सब परे । पंच महाव्रत धर तू भैया, मुक्तिपंथ मुनिराज सिंधारे॥जिनवानी०॥२॥
२८ । राग-धनाश्री। जिनवानी सुन सुरत संभारे ॥ जिनवानी०॥ टेक ॥ सम्यग्दृष्टी भवननिवासी,गहि व्रत केवल तत्त्व निहारे । जिनवानी० ॥ १॥ भये धरनेंद्र पद्मावति पलमें, युगल नाग प्रभु पास उबारे ।। बाहूबलि वहुमान घरत सो, सुनत वचन शिव १ पाक्षणिकवादी वोधमती।
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१४४ : जनगदसागर प्रथमभागसुख अवधारे ॥जिनवानी०॥२॥ गनधर सबहि प्रथम धुनि सुनकर, दुबिध परिग्रहसंग निवारे। गजसुकुमाल बरर्ष बसुहीके, दीक्षा गहत करम सब टारे ॥ जिनवानी० ॥३॥ मेघॉवर श्रेणिकको नंदन, वीरवचन निज भवहिं चितारे,
औरहु जीव तरे जे भैया, ते जिनवचन सबै उपगारे । जिनवानी०॥४॥ .. . २९ । राग-ठुमरी झिझोटी । .: जिनधुनि सुनि दुरमति नसि गईरे, नय
स्यादवादमय आगम. ॥ टेक ॥ विभ्रम सकल तत्त्व दरसावत, यह तो भविजनके मन वशगई रे॥ नय० ॥ चिर-भ्रम-ताप-निवारण-कारण, चंद्रकलासी दरसगईरे॥ नय० ॥२॥ अघमल पावनकारण 'मानिक' मेघघटासी बरसि गई २॥ नय०॥३॥
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जिनवाणीस्तुतिपद-संग्रह। . १४५
(३०) जब वानी खिरी महावीरकी तव,आनंद भयो अपार हो। सव मानी मन ऊपजी हो, धिकधिक यह संसार । जव० टेक ।। बहुतनि समकित आदरयो हो, श्रावक भये अनेक । घर तजिके बहु बन गये हो, हिरदै धरयो विवेक जव०॥१ केई भावै भावना हो, केई गहें तप घोर । केई जर्षे प्रभु नामको, भाजै कर्म कठोर ॥ जव॥२॥ बहुतक तप करि शिव गये हो, वहुत गये सुरलोय । धानत तो वानी सदा हो, जयवंती जग होय। जव०॥३॥
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जैनपदसागर प्रथमभाग
(४) गुरुस्तुति - पदसंग्रह
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( १ ) रेखता । जिन रागरोष त्यागा वह सतगुरू हमारा ॥ ॥ जिन० ॥ टेक ॥ तज राजरिद्ध तृणवत, निज काज सँभारा ॥ जिन० ॥ १ ॥ रहता वह वन खंडमैं, धरि ध्यान कुठारा। जिन मोह महातरु को, जडमूल उखारा ॥ जिन० ॥ २ ॥ सर्वाग तज परिग्रह, दिग अंवर धारा । अनंतज्ञान गुणसमुद्र, चारित्रभंडारा ॥ जिन०॥३॥ शुक्लाग्निको प्रजालकै, वसुकर्मबन जारा! ऐसे गुरु को दौल है, नमोस्तु हमारा ॥ जिन० ॥ ४ ॥
[२]
घनि मुनि जिनकी, लगी लौ शिव ओरेने ॥ धनि० ॥ टेक ॥ सम्यग्दर्शनज्ञान चरननिधि, धरत हरत भ्रमचौर ॥ घनि० ॥१॥ यथाजात
१ लगन । २ 'नै' विभक्ति सब जगह 'को' के अर्थमैं है । ३ नग्नदिगम्बर मुद्रा |
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'गुरुस्तुतिपद- संग्रह।
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मुद्राजुत सुंदर, सदन विजन गिरिकोरनै । तृनकंचन - अरिस्वजन गिनत सम, निंदन और निहोरने ॥ धनि० ॥ २ ॥ भवसुखचाह सकल तजि वल सजि, करत द्विविध तप घोरनै । परम विरागभाव - पेवितैं नित, चूरत कर्मकठोरने ॥ धनि० || ३ || छीन शरीर न हीन चिदानन, 'मोह मोहझकोरने | जग तप-हर भविकुमुदेंनिशाकर, मोदन दौलचकोरनै ॥ धनि० ॥ ४ ॥
(३)
घनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना ॥ धनि० ॥ टेक ॥ तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जाना ॥ धनि० ॥ १ ॥ एक विहारि नकेल - ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना। सब सुख कों परिहार सार सुख, जानि रांगरुष भाना ॥ धनि० ॥ २ ॥ चित्स्वभावको चिंत्य प्रान निज,
: १ स्तुति वा प्रसंशाको । २ वज्रसे। ३ कर्मरूपी कठोर पर्वतको ४ भव्यरूपी कमोदिनीकूं खिलानेवाले चंद्रमा । ५ ऐश्वर्य
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MANAV
१४८ जैनपदसागर प्रथमभागविमल-ज्ञान-हगसाना । दौल कौन सुख जान लयो तिन, कियो शांतिरस पाना॥धनि०॥३॥
धनि मुनि निज आतम हित कीना। भव असार तन असुचि विषयविष, जान महाव्रत लीना धनि मुनि०॥टेक।एकाविरारी परिगह छारी, परिसह सहतअरीनापूरव तन तप-साधनमान न, लाज गनी परवीना ॥धनिमुनि०॥१॥ शून्यसदन गिरगहनगुफाम, पद्मासन आसीना। परभावन” भिन्न आप पद, ध्यावत मोहविहीना ॥ धनिमुनिः ॥२॥ स्वपरभेद जिनकी बुधि निजमैं, पागी बाह्य लगी ना । दौल तास पद-वारिज-रैजनै, किस अघ करे न छीना ॥धनि मुनि०॥३॥
५भावन। • कबधों मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं
१ सम्यग्ज्ञानसम्बग्दर्शनसे सन गये । २ चरणकमलोंकी धूलिने ३ किसके। १ पाप। .
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह । १४९ भवदधिपारा हो ॥ कवधों०॥ टेक ॥ भोगउदास जोग जिन लीनो, छांडि परिग्रह-भारा हो। इंद्रियदमन वमनमद कीनो, विषयकषायनिवारा हो ॥ कवघों० १॥ कंचन काच बरावर जिनक, निंदक बंदक सारा हो । दुद्धर तप तपि सम्यक निजघर, मनवचतनकर धारा हो ॥ कबधों०॥ २ ॥ ग्रीषमगिरि हिम सरितातीरें, पावंस तरुतरठारा हो । करुणा भीने चीन त्रसथावर, ईपिंथ समारा हो ॥ कवधों० ॥३॥ मार-मार व्रतधार शीलदृढ, मोहमहामल टारा हो । मास मास उपवास वास वन, प्रामुक करत अहारा हो ॥ कवधों ॥ ४॥ औरतरौलेश नहिं जिनके, धर्म-शुक्ल चितधारा हो । ध्यानारूढ गूढ निज-आतम, शुधउपयोग विचारा हो ॥ कबधों०॥ ५॥ आप तरहि अवरनकों तारहिं, भवजलसिंधु अपारा हो । दौलत ऐसे १ सव ।करुणारससे भीजे हुये । ३ कामदेवको मारकर । ४ आर्तध्यान । ५ रौद्रध्यान । ६ धर्मध्यान 1.७ शुक्लध्यान | .
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१५० जैनपदसागर प्रथमभागजैनजतीको नितप्रति ढोक हमारा हो ॥ कवघो०॥६॥
६।
:- धनधन जैनी साधु अबाधित, तत्त्वज्ञानवि:
लासी हो॥ धनधन० ॥ टेक ॥दर्शन बोधमयी निज मूरति, अपनी जिनको भासी हो । त्यागी अन्य समस्त वस्तुमैं, अहंबुद्धि दुखदासी हो। धनधन ॥ १॥ जिन अशुभोपयोगकी पर. नति, सत्तासहित-विनासी हो । होय कदाचि शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो॥धनधन० ॥ २ ॥ छेदत जे अनादिदुखदायक, दुविध-बंधकी फाँसी हो। मोह क्षोभ विन जिनकी परनति,विमल मयंक-कैलासी हो, धनधन०॥३॥ विषय-चाहदवेदाह-बुझावन, साम्यसुधारसरासी हो। भागचंद ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ॥ धनधन०॥४॥ १ निर्मल चंद्रमाकी कला समान । २ विषयोंकी चाहरूपी दावानिको बुझानेके लियेः।:३. समतारूपी अमृतरसकी राशि ।.४ प्रसन।
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गुरुस्तुतिपद - संग्रह | ७ राग सारंग । श्रीमुनि राजत समतासंग । कायोत्सर्ग समाहित अंगं ॥ श्रीमुनि० ॥ टेक ॥ करतें नहिं कछु कारज तातैं, आलंबित भुज कीन अभंग । गमः नकाज कछु हू नहिं तातें, गति तजि छाकें निजरसरंग ॥ श्रीमुनि० ॥ १ ॥ लोचनतें लखिवो कछु नाहीं, तातैं नाशादृग अचलंग । सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातें प्राप्त इकंत सुचंग ॥ श्रीमुनि ॥ २ ॥ तह मध्याह्नमाहि निज ऊपर, आयो उग्रप्रताप पतंगे । कैधों ज्ञान: पवनवलप्रजुलित, ध्यानानलमों उछल फुलिंग ॥ श्रीमुनि० ॥ ३ ॥ चित्त निराकुल अतुल उठत जँह, परमानंद - पियूप-तरंग, भागचंद ऐसे श्रीगुरुपद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ॥ श्रीमुनि० ॥ ४ ॥
1
१५१
८। .
ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो वसो
१ सूरज हैं । २ मानों ज्ञानरूमी पवनके बलसे जलाई हुई । ..
"
३ | ध्यानरूपी ध्यानिका फुलिंगा ही हैं ।
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१५२ जैनपदसागर प्रथमभाग॥ऐसे०॥टेक ॥ जिन समस्त परद्रव्यनिमाही, । अहंबुद्धि तज दीनी । गुनअनंत ज्ञानादिक मम
पुनि, स्वानुभूति लखलीनी ॥ ऐसे०॥१॥ जे निजबुद्धिपूर्वरागादिक, सकल विभाव निवारें . पुनि अबुद्धिपूर्वक नाशनको, अपनी शक्ति सम्हारै ॥ ऐसे०॥ २ ॥ कर्म-शुभाशुभ-वंध विषयमैं, हर्ष विषाद न राखें । सम्यग्दर्शन-ज्ञानचरन-तप, भाव-सुधारस चाखें ॥ ऐसे जैनी० ॥३॥ परकी इच्छा तजि निजवल सजि, पूरक कर्म खिरावें । सकल कर्म” भिन्न अवस्था, सुखमय लखि चितचावें ॥ ऐसे० ॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत, सबके दृष्टा ज्ञाता । वाहिज रूप नगन समता कर, भागचंद सुखदाता॥ ऐसे०॥५॥
९। राग-जंगला। शांतिवरन मुनिराई वर लखि शांतिगाटेका उचर गुनगनसहित मूलगुन,,सुभग बरात १ अबुद्धिपूर्वक हुये रागद्वेषादि भावोंको नाश करनेके लिये। .
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह ।
१५३
सुहाई || शांति० ॥ १ ॥ तपरथपै आरूढ अनूपम, धर्म सुमंगलदाई || शांति० ॥ २ ॥ शिवरमनीको पाणिगहन कर, ज्ञानानंद उपाई ॥ शांति० ॥ ३ ॥ भागचंद ऐसे वैनराको, हाथ जोरि शिरनाई || शांति० ॥४॥
१० । राग खमाच ।
ज्ञानी मुनि हैं ऐसे स्वामी गुनरास ॥ ज्ञानी० ॥ टेक ॥ जिनके शैल नगर मंदिर पुनि, गिरि कंदर सुखवास ॥ ज्ञानी० ||१|| निःकलंक परयेक शिला पुनि, दीपमृगांके-उजास || ज्ञानी० ॥ २ ॥ मृग किंकर करुणा वनिता पुनि, शील सलिल तप ग्रास ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ भागचंद ते हैं गुरु हमरे, तिनहीके हम दास ॥ ज्ञानी ॥ ४ ॥
११ । राग- समाच
श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे, वीतराग गुनधारी वे | श्री गुरु० ॥ टेक ॥ स्वानुभूति - रमनी सँग कीड़े, ज्ञानसंपदा भारी बे ॥ श्रीगुरु ० ॥ १ ॥
१ दुलहाको । २ चंद्रमाका उजाला । ३ खेलें ।
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१५४ जैनपदसागर प्रथमभागध्यानपींजरामें जिन रोक्यो, चितखग चंचल चारी बे॥श्री गुरु०॥२॥ तिनके चरनसरो. रहे ध्यावै, भागचंद अघटारी वे ॥श्रीगुरु॥३॥
१२ । राग-परज । सम-आराम-विहारी, साधुजन सम-आराम विहारी ॥टेक।एक कल्पतरु पुष्पन सेती जजत भक्ति विस्तारी । एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध दर्पजुत भारी॥ राखत एक वृत्ति दोउ. निमैं सबहीके उपगारी ॥ सम आराम० ॥१॥ सारंगी हरिबोल चुंखावै, पुनि मराल मंजारी। व्याघ्रबॉलकर सहित नन्दिनी, व्याल नकुलकी नारी । तिनके चरन कमल आश्रयतें, अरिता सकल निवारी सम-आराम०॥२॥ अक्षय अ. तुल प्रमोदविधायक, ताको (म अपारी काम घराविचगढीसोचिरतें,आतमरिधि अविकारी॥ खनत ताहि लेकर करमैं जो,तीक्षणबुद्धि कुदारी. १ चरनकमल । २ मृगी । ३. सिंहके बच्चेको। ४ वाधके बच्चेको। ५ गइया । ६ सर्प । ७ दुसमनी । ८ तेज-प्रकाश ।
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· गुरुस्तुतिपद-संग्रह। १५५ ॥ सम-आराम० ॥३॥ निज शुद्धोपयोगरस चाखत, परममता न लगारी । निज सरधान ज्ञानचरणात्मक,निश्चयशिवमगचारी॥ भागचंद ऐसे श्रीयति प्रति, फिर फिर ढोक हमारी सम: आराम०॥५॥
१३) राग-सोरठ मल्हारमें। गिरिवनवासी मुनिराज, मनवसिया म्हारै हो । गिरि०ाटेका। कारन विन उपगारी जगके, तारन तरन जिहाज ॥ गिरिवन०॥ १॥ जनम जरामृत-गद-गंजनको, करत-विवेक-इलाज ॥ गिरिवन०॥२॥ एकाकी जिम रहत केशरी, निरभय स्वगुन समाज गिरिवन० ॥३॥ निभूपन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ।। गिरिवन०॥४॥ ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, भागचंद शिवकाज ॥ गिरिवन०॥५॥
१४ । राग-कलिंगडा . ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।ऐसे०॥टेको आप तरै अरु परंकों तारे, निष्प्रेही निरमल हैं
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१५६ जैनपदसागर प्रथमभाग॥ ऐसे॥१॥तिलतुषमात्र संग नहिं जिनके, ज्ञान-ध्यान-गुनवल हैं । ऐसे० ॥२॥ शांत दिगं. बरमुद्रा जिनकी, मंदरतुल्य अचल हैं॥ ऐसे० ॥३॥ भागचंद तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अलि हैं । ऐसे०॥४॥
१५ । राग-मल्हार । वे मुनिवर कव मिलि हैं उपगारी, वे मुनिवर। टेक ॥ साधु दिगंबर नगन निरंबर, संवर-भूषनधारी॥ वे मुनिवर० ॥१॥ कंचन काच वरावर जिनक, ज्यों रियु त्यों हितकारी । महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी ।। वे मुनिवर० ॥२॥ सम्यग्ज्ञान-प्रधान-पवन-बलतपपावकपरजारी । शोधत जीव-सुवर्ण सदा जे, कार्यकारिमा टारी । वे मुनिवर० ॥३॥ जोरि जुगल कर भूधर विनवै, तिनपदढोक
१ परिग्रह । २ भंवरा । ३ गरिमा-वडाई । ४ गाली । ५ जलाकर। ६ कायरूपी कालिमा
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गुरुस्तुतिपद - संग्रह | हमारी । भाग उदय दर्शन जब पाऊं, ता दिनकी वलिहारी || वे मुनिवर० ॥ ४ ॥
१६ | राग - सोरठ |
सो गुरुदेव हमारा है साधो ॥ सो गुरु०॥ टेक जोग-अगनिमें जो थिर राखेँ, यह चित चंचल, पारा है || सो गुरु० || १|| करेन - कुरंग खरे मद माते, जप तप खेत उजीरा है। संजम - डोर-जोर वश कीने, ऐसा ज्ञान-विचारा है || सो गुरुणा२ जा लक्ष्मीको सब जग चाहै. दास हुआ जग सारा है । सो प्रभुके चरननकी चेरी, देखो अचरज भारा है || सो गुरु ||३|| लोभ-सरप के कहर जहरकी, लहरि गई दुख टारा है। भूधर ता रिखिका शिङ्ख हुजे, तब कछु होय सुधारा है ॥ सो गुरु० ॥ ४ ॥
१७ । राग- भव्हार ।
परम गुरु वरसत ज्ञान-झरी ॥ परम गुरु०॥टेक
१ इंद्रियरूपी हिरन । २ उजाड दिये, नष्ट करदिये । ३ ऋषिमुनिका । ४ शिष्य ।
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१५८ जनपदसागर प्रथमभागहरखि हरखि वहु गरजि गरजिकैं, मिथ्या तपन हरी । परम गुरु०॥ १॥ सरधा-भूमि सुहावनि लागै, संशय वेल हरी । भविजनमनसरवर भरि उमड़े, समझ-पवन सियरी ।। परम गुरु०॥ ॥२॥ स्याद्वादनयविजुरी चमकत, परमतशिखरपरी। चानक मोर साधु श्रावककै, हृदय सुभक्ति भरी॥ परम गुरु०॥३॥ जप-तप-परमानंद बढयो है, सु समय नींव घरी ॥ द्यानत पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी॥ परम गुरु०॥४॥
(१८) • गुरु समान दाता नहिं कोई ॥गुरु० ॥टेक॥ भानुप्रकाश न नाशत जाको, सो अधियारा डारै खोई ॥गुरु०॥१॥ मेघसमान सबनपै बरसै, कछु इच्छा जाकै नहिं होई । नरकपशूगतिआगमाहितै, सुरगमुकतसुखथा सोई ॥ गुरु० ॥२॥ तीनलोकमंदिरमैं जानो, दीपक समं परकाशक लोई । दीपतलैं अँधियारः भन्यो
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AALA
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह। है, अंतरबाहिर विमल है जोई ॥ गुरु० ॥३॥ तारनतरनजिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुंव डोबै जगतोई । द्यानत निशिदिन निर्मल मनमैं,. राखों गुरुपदपंकज दोई ।। गुरु०॥४॥ . (१९)
, धनि ते साधु रहत वनमाहीं ॥धनि०॥ टेक॥ शत्रु मित्र सुख दुख सम जान, दर्पन देखत पाप पलाहीं ॥ धनि०॥१॥अट्ठाईस मूलगुण धारहि, मनवचकायचपलता नाहीं । ग्रीषमं शैल-शिखर हिम-तटनी, पावस वर्षा अधिक सहाही ।। धनि ॥२॥ क्रोध मानछल लोभ नजानें; रागरोषनाहीं उनपाहीं। अमल अखंडित चिद्गुणमंडित, ब्रह्मज्ञानमैं लीन रहांहीं ॥धनि०॥ ३॥ तेई साधु लहँ केवलिपद, आठ-काठ-दहि शिवपुर जांहीं । धानत भवि तिनके गुण गावे,
१-२ गर्मीकी ऋतुमें पर्वतकी चोटी पर । ३ शीत ऋतुमे । . ४ नदीके किनारेपर । ५ आत्मीक गुणों सहित । ६ आत्मज्ञानमें ७ अष्टकर्मरूपी इंधनको जलाकर ।
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जैनपदसागर प्रथमभाग
पावें शिवसुख दुःख नशाहीं ॥ घनि ते० ॥४॥
( २० )
धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी ॥ धनिधनि० ॥ टेक ॥ मारंमार जगजर जार ते, द्वादशत्रत तप अभ्यासी ॥ धनि धनि० ॥ १ ॥ कौड़ीलाल · पास नहिं जा कै, जिन छेदी आशापासी । आतम आतम पर पर जानै, द्वादश तीन प्रकृति नासी ॥ धनि धनि० || २ || जादुख देख दुखी सव जग है, सो दुख लखि सुख है तासी । जाकों सब जग सुख मानत हैं, सो सुख जान्यो दुखरासी ॥ धनि धनि० ॥ ३ ॥ वाहिज भेष कहत अंतर गुण, सत्यमधुरहितमितभाषी । द्यानत ते शिवपंथ-पथिक हैं, पांवपरत पातक जासी ॥ धनि धनि० ॥ ४ ॥
२१ ।
भाई धनि मुनि ध्यान लगायक खरे हैं | भाई
१ कामदेवकूं मारकर । २ जगतके जालकूं जलाकर । ३ रतन | ४ आशारूपी फांसी । ५ मोक्षपंथके रस्तागीर हैं ।
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह। १६१ ॥टेक ॥ मूसलधारसी धार पर है, विजुली कड़कत शोर करें है। भाई० ॥ १॥रात अँध्यारी लोक डर है, साधुजी अपने कम हरे हैं। भाई ॥२॥ झंझॉपवन चहूंदिश वाजें, वादर घूम धूम अति गाजै ।। भाई० ॥३॥ डसैं मशक बहु दुख उपराजें, धानत लाग रहे निज काजै ॥ भाई०॥३॥
.. मुनि वन आएं बना, शिवबनरी व्याहनकों उमगे, मोहित भविकजना ॥ मुनि० ॥ टेक॥ रत्नत्रय शिर सेहरा बांध, सजि संवर वसना। संग वराती द्वादश भावन, अरु दशधर्मपनाः ॥ मुनि०॥१॥सुमति नार मिलि मंगल गावत; अजपा गीत घना। रागरोपकी आतिसबाजी, छूटति अगनिकना ॥ मुनिः॥२॥ दुविधकर्मका दान वटत है, तोपित लोकमना । शुक्लध्यानकी अगनि जलांकर, होमैं कर्म धना ॥ मुनिः ॥३॥
१ बरसा सहित आंधी आनेको झंझावात कहते हैं।
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जैनपदसागर प्रथममागशुभबेल्यां शिववनरिवरी मुनि, अदभुत हरष बना। निजमंदिर, निश्चल राजत, बुधजन त्यांगसना ॥ मुनि०॥४॥
२३ । राग-मल्हार । देखे मुनिराज आज जीवनमूल वे॥ देखे। टैक ॥ शीस लगावत सुरपति जिनकी, चरन. कमलकी धूर वे ॥ देखे० ॥ १॥ सूखी सरिताः नीर बहत है, वैर तज्यो मृग सूर वे। चालत मंद सुगंध पवनवन, फूल रहे सब फूल वे ॥ देखे० ॥२॥ तनकी तनक खवर नहिं तिनको, जर जावो जैसे तूले वे । रंकरावर्त रंच न ममता, मानत कनकको धूल वे ॥ देखे० ॥३॥ भेद करत हैं चेतन जडको, मेटत हैं भवि-भूल वे। उपकारक लखि बुधजन उरमैं, धारत हुकुम, कबूल वे ॥ देखे०॥४॥ . . मनुवो लागिरह्योजी, मुनिपूजा विन रह्यो १.रुईकी तरह।
२४॥
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गुरुस्तुतिपद - संग्रह | :
१६३
कोटि बात पिय
न जाय ॥ मनुवो ० ॥ टेक ॥ क्यों कहो, हूं मानूं नहिं एक । बोधमती गुरु ना नर्मू, याही म्हारे टेक ॥ मनुवो० ॥१॥ जन्मः मृत्यु सुख दुख विपति, वैरी मीत समान । राग, रोप परिगह-रहित, वे गुरु मेरे जान ॥ मनुवो ||२|| सुरसिवदायक जैन गुरु, जिनके दया प्रधान । हिंसक भोगी पातकी, कुगतिदाय गुरु आन || मनुवो० ॥ ३ ॥ खोटी कीनी पीव तुम, मुनिके गल अहि डारि । थे तौ नरकां जायस्यो वे नहिं काढ़े डारि ॥ मनुवो० ॥ ४ ॥ श्रेणिक सँगतें चलणा, छायक समकित धार । आप सातमा नरक हरि, पहुंचे प्रथममँझार ॥ मनुवो० ॥५॥ तीर्थंकरपद धारसी, आवत कालमझार । बुधजन पद वंदन करें, मेरी विपदा टार ॥ मनुवो० ॥ ६ ॥
२५ । राग - मल्हार ।
माई आज महामुनि डोलें । मतिवंता गुनवंत काहुसों, बात कछू नहिं खोलें ॥ माई ॥ टेक ॥ तू
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१६४
जैनपदसागर प्रथमभाग
नहिं आई ये घर आये, चरन कमल अब घोलें । विधि पड़गाहे असन कराये, निधि बध गई अतोलै ॥ माई ० ॥ २ ॥ नगर जिमाया कोइ न रहाया, यों अचरज कहों कोलें ॥ माई॥ ३ ॥ अन्य मुनीसर धन यह दानी, बुधजन यों मुख बोलै ॥ माई० ॥ ४ ॥
२६ । राग बंगला | वीतराग मुनिराजा मोकों दरस वताजा, दरस बताजा धर्म सुनाजा || वीतराग० ॥टेर || परिगहरत न नगन छवि थांकी, तारन तरन जिहाजा ॥ वीतराग ॥१॥ जीवन मरन विपति अर संपति, दुख सुख किंकर राजा । सबमें समता रमता निजमैं, करत आपनों काजा ॥ वीतराग० ॥ २ ॥ तनकारागृह भोग भुजंगसा, परिकर शत्रुसमाजा। ऐसी जानि त्याग वन बसिकै, राखत धर्म इलाजा ॥ वीतराग० ॥३॥ कर्मविनासी मुनिवनवासी, तीन लोक-शिर
१ बंट गई ।
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह | :: १६५.
ताजा । आपसारिखा कर बुधजनकों, तुमको मेरी लाजा ॥ वीतराग ॥४॥ २७ | राग कालिंगडा ।
जो मोहि मुनिको मिलावे ताकी बलिहारी, जो० || टेक || मिथ्याव्याधि मिटत नहिं उनविन, वे निज अमृत पावै ॥ जो || १ || इंदफ़निंदनरिंद तीनो मिलि, उन-चरना शिरनावै । सब परिहारी परउपगारी, हितउपदेश सुनावै । जो ॥२॥ तजि सब विकलप, निजपदमाहीं, निशि दिन ध्यान लगावै । जन्मसुफल बुधजन तब है है, जब छवि नैन लखावै ॥ जो० ॥ ३ ॥
२८ | राग मल्हार
लूम झूम बरसे बदरवा, मुनिवर ठाड़े तरुवरतरवा || लूमझूम ० ॥ टेक ॥ कारीघटा तैसी बीज डरावें, वे निधड़क मानों काठ पुतरवा ॥ लूमझूमं ॥१॥ बाहर को निकसे ऐसे मैं, बडे बडे घरहू गलि गिरवा । झंझावात बहे अति सियरी, वेन हिल
.
4.
, १ बिजली | २ बरसा सुहित आंधी ।
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..10Sa2
१६६ जनपदसागर प्रथमभाग- . निजबलके घरवा॥ लूमझूम०॥२॥देख उन्हें जो (कोई) आय सुना, ताकीतो करहूं न्योछरवा। सफल होय शिर पायपरसिक, बुधजनके सब . कारज सरवा ।लूमझूम० ॥३॥
२९ । राग-सोरठमें ठुमरी। निरग्रंथ यती मन भावे, कुगुरादिक नाहिं सुहावें । निरग्रंथ०॥ टेक ॥ वीतराग विज्ञान-भावमय, शिवमारंग दरसावें ॥ निरग्रंथ०॥१॥ रत्नत्रयभूषण युत सोहत, निज अनुभूति रमावें । निरं ॥१॥ विनकारण जगबंधु जगतगुरु, हित उप देश सुनावै ।निरग्रंथ०॥४॥ कर्मजनित आचार त्याग, परमातमकों ध्यावें ॥ निरग्रंथ०॥५॥ मानिक भवि सतगुरु सुचंद्रलखि, आकुल ताप बुझा३ । निरग्रंथ० ॥६॥ ...... ३०। राग-गजल रेखता । : जिन रागरोष त्यागा, सो सतगुरु है हमारा ! तजि राजरिद्ध तृणवत, निजकाज निहारा ।टेक रहताहै वो वनखंडमें, परि. ध्यान कुंठारी। जिन
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह। महामोह तरुको, जड़मूल उखाड़ा जिन० १॥ जगमाहिं छा रहा है, अज्ञान अँधियारा। विज्ञान मान तमहर, घर माहिं उजारा ॥ जिन ॥२॥ सांग तजि परिग्रह, दिग अंबर धारा । रत्नत्रयादि गुणसमुद्र,शर्मभंडारा जिन॥३॥विधि उदय शुभ अशुभमैं, हर्ष अरति निवारा। निज अनुभवरसमाहिं, कर्ममलको पखारा । जिन० ॥ ४॥ पर-वस्तु-चाह-रोकि, पूर्व-कर्म संहारा। 'परद्रव्यसे जु भिन्न, चिदानंद-निहारा ।। जिन०
॥५॥ शुक्लामिको प्रजालि, कर्मकानन जारा । तिनमुनिकों देख मानिक नमस्कार उचारा ॥ जिन० ॥६॥
(३१) वनमै नगन तनराजे,योगीश्वरमहराज, टेक इक तो दिगंवर खामी, दूजो कोई नहिं साथ ॥ वनमैं ॥ १॥ पांचों महाव्रतधारी, परिसह जीते बहु भाँत ॥ वनमैं॥२॥ जिनने अतनंमदमात्यो,
१ कामदेवका मद, मारा ।
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१६८ जैनपदसागर प्रथमभागहिरदै धारयो वैराग ।। वनमैं॥३॥ (एजी) रजनी भयानक कारी, विचरै व्यंतर वैताल ॥ वनमैं । ॥४॥ बरसै विकट धनमाला, दमकै दामिनि चालै वाय॥ वनमैं० ॥५॥ सरदी कपिन मद गालै, थरहर कांपैं सब गात ॥ वनमैं०॥६॥ रविकी किरन सर सोखें,गिरिपैठाड़े मुनिराज वनमैं ॥७॥ जिनके चरनकी सेवा, देवै शिवसुख साज ॥ वनमै० ॥८॥ अरजी जिनेश्वर येही, प्रभुजी राखो मेरी लाज ॥ वनमैं०॥९॥
. ३२ 1 रंगत लंगड़ी । .. परम वीतरागी गृहत्यागी, शिवभागी निरग्रंथ महान । अचरजकारी जिन्होंकी, परनति जाने सकल जहाँन ॥ टेर॥ त्रस थावर हिंसा तज दीनी, झूट वचन नहिं भाखत हैं। परिगह त्यागी दया,-खटकायतनी उर राखंत हैं ॥ चौरी तजै महादुखदाई, परसनेह सब नाखत हैं। जिनमें रचिकै गुरुजी, ब्रह्मचर्यरस.चाखत हैं.॥ .
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह, ।" ( ३३ )
रेखता - निरखिकै पग धेरै भूपर, मधुर हित मित वच कहैं । आहार शुद्ध सम्हाल वृष उपक करन निरखि घरें हैं | मलमूत्र हू निर्जंतु भुवि, एकांत मय छेपैं सही । परवंदनादिक अवसि कार ज, नित करें वृपकी मही । पंचेन्द्रियको बस मैं राखै, तिनको वर्णन सुनो सुजान ॥ अचरज ॥ सुंदररूप सची रतिरमनी, वा राक्षसनी भेष कराल । सुखदुखकारी अवर जे, जड चेतनके क्षेप कराल || कोमल कठिन दुगंध सुगंधित, रसनीरस वच शुद्ध सवाल । समकर जानै नं जानें, पर परनतिकों अपनी चाल ।
१६९.
सैर-दृष्टि सबदि छांड़िकै, नासाग्रमैं थिरता लही । मन विषय अवर कषाय तजि, शुभध्यान में थिरता गही ॥ दृढ धारि आसन मौन सेती, शुद्ध आतम ध्यावते । तनमनवचनवश करें गुरु वे, सुरग-शिव-सुख पावते ॥ एकवार भोजन आदिक अठ-वीस मूल गुन-धारक जान ॥ अचरज० ॥ २ ॥ ...
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१७०
जैनपदसागर प्रथमभाग
सूख जाय सरवरपयरीता, पंथी पथ तज दीना है । ग्रीषम ऋतुमैं चील निज, अंडनको तज दीना है । जलचारी अरु पवनं अहारी, नभचारी इम कीना है । तज निज थलको जिन्होंने, सघन वनाश्रय लीना है | सैर - ऐसी विकट गरंमी. विषै गिरि, गुफा वनको छोड़कें । शिल-शैलश्रृंगसमाधि धारी, आस जीकी मोड़कें ॥ जिनके सुभाननभानसनमुख, भासमान न भान हैं । बहुज्योति मूरत धार धारा, इन समान न आन हैं || एकबार जिनके दर्शनतें सभी निकट आवैं कल्यान || अचरज० ॥ ३ ॥
घन गरजै लरजे अति दादुर, मोर पपैया शोर करें । चपला चमकै पवन चालै, जलधारा अति ज़ोर परै ॥ तरुतल निवसैं सुगुरु साहसी, अचल अंग है ध्यान घरें । शीतकाल में नीरतट, तपसी तप अति घोर करें || सैर - बहु रिद्धि सिद्धि सुभावथिरता, ज्ञाननिधि या भवविषै । पावें तपस्वी सुर असुरपद, मोक्षपद परभवविषै ॥
1
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गुरुस्तुतिपद -संग्रह ।
ફ્
ऐसे गुरुकी भक्ति करि बहु, नमों मनवच कायसों ॥ गुरुदेव मोहि छुडाय दीज्यो, मोहि रूपी वासों ॥ कुगुरु त्यागकर सेव सुगुरुकी घरहु जिनेश्वरधर्म महान | अचरजकारी ||४||
३४ । सुगुरुस्वरूपलावनी रंगत-लंगड़ी | • कहूं चिह्न कछु सुनो सुगुरुके जिनशासन अनुसारी हैं । भ्रमतमहारी जिन्होंके, वचन स्वपरहितकारी हैं ॥ ढेर || प्रथम दिगंबर भेष गुरूका वस्त्राभूषण त्याग दिया। शांतस्वरूपी अथिर जग, जान मान वैराग लिया | वनमै बसें कसें तन मनकूं, निजनिधिमय सद्ध्या न किया । परिगह त्यागी अनुपम, ज्ञानसुधा हित जान पिया । वदन चंद्रछवि अनुपम जिनने, वीतरागता धारी हैं ॥ भ्रमतम० ॥ १ ॥ असन हेत नहिं जात बुलाये, ना कछु संग ससवारी है | भेट न चाहें असन कछु, मिलै मधुर वा खारी है ॥ रागरोस नहिं करे कदाचित, जिनआज्ञा चित धारी हैं। भोजन करके गुरु
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१५२. जैनपदसागर प्रथमभागकर, जाय गमन तिहबारी हैं ॥ यंत्र मंत्र नहि करें कुकिरिया, निरतिचार बमचारी हैं । प्रमतम०॥२॥त्रण कंचन अरि मित्र बराबर, जीवन मरन समान गिने । सह परीषह बीस दो, समताको परधान गिने ॥ काम क्रोध मद मोह लोभके, परिकर सब दुखदान जिने। विषय-वासना महा अप,-वित्र पापकी खान गिन ॥ लोकरीति परिहरी जिन्होंने, वृत्ति अलौकिक धारी हैं। भ्रमतम०॥३॥ तारन तरन जैनके गुरुको, यह स्वरूप बाहिर जारी। उर अंतरमै शुद्धरत-नत्रयनिधिक सहचारी॥ये ही सरन सहाय जगतमैं, शिवमगमैं ये सहचारी। अचरजकारी जिन्होंकी, परनति है जगत न्यारी ॥ गुरुपदकमल 'जिनेश्वर'-उरमैं वास करो अनिवारी है ॥ भ्रमतम०॥४॥
.. ३५ । लावनी रंगत-लँगड़ी। . या कलिकाल महानिशिमैं जिन, वचन चंद्रिका जारी हैं। परिगह त्यागी गुरुकी, सेवा
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· गुरुस्तुतिपंद-संग्रह । १७३ शिवहितकारी है ॥ टेर ॥ कुंदकुंद आदिक श्रीगुरु, उपकार कर गये सब जगका । शास्त्र बनाके सर्व, बरताव दिखागये शिवमगका ॥ सत जिनधर्म लहै सो ज्ञाता, सरन गहै जो इस मगका । ज्ञानचक्षुत लग सव, सत्य झूठ हर मजहवका ॥ ज्ञानविरागविषे सुनि भाई, शिवलक्ष्मी-सहकारी हैं ॥ परिगहत्यागी ॥१॥ विद्याके अभ्यास विना नहिं ज्ञानवृद्धिकों पाता है। विना ज्ञानके नहीं, परमागम मर्म लखाता है। परमागम विन धर्म न जाने, धर्मविना दुख पाता है। इस कारनतें एक यह, विद्या शिवसुखदाता है । हाय हाय विद्याके दुस्मन, आज धर्म-अधिकारी हैं ॥ परिगहत्यागी० ॥२॥ विषय-वासनामै फसि जिनने, धर्म कर्मकों लोप दिया। लोभ उदयसे जिन्होंने, सतमारगको गोप किया ॥ धर्मकल्पतरु-काटि आपने पापवृक्षकों रोप दिया। धिकधिक इनकों सत्य, कहनेवालोंपर कोप किया। कहा कहों वे विष
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१७४ . जैनपदसागर प्रथमभागयचाहवस बन गये आप भिखारी हैं ॥ परिः गहत्यागी० ॥ ३॥ तजकर ज्ञानविराग आप बन, गये विषयवस अज्ञानी । खानपानमैं ऐस; इस्तरमैं सबके अगवानी ॥ धर्ममूल अरंहत देव निरग्रंथ गुरु हैं जिनवानी । इनके सँगमैं, महाशठ, भैरवकी पूजा ठानी ॥ अर्ज जिनेश्वर देव सुनो, यह मोहकर्म अनिवारी है। परिगहत्यागी०॥४॥
३६ । लावनी रंगत लंगडी।
(कुगुरु स्वरूप) सम्यग्ज्ञान विना जगमैं, पहिचाननवाला कोई नहीं। जैनधर्मको यथावत, जाननवाला कोई नहीं॥टेक॥ पहिले ज्ञान आपको चहिये, विना ज्ञान क्या समझेंगे।सत्य झूठका कहो वे, निरणय : कैसे कर लेंगे। विन निर्धार किये जिनमतकी, उर प्रतीत क्या धरलेंगे । विन प्रतीतके क्रियाकरि, भवदधि कैसें तिरलेंगे॥ दुर्लभ जान ज्ञान होना यह, मानववाला कोई नहीं। जैनधर्मको
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह। १७४ ॥१॥ गुरुका काम ज्ञान देना वा धर्मदेशना करना है। आप धर्ममें लीन हो, कर्म अरीको हरना है ।हा कलिकाल प्रभाव आज गुरु,जगहँ जगहँ लड़ मरना है। अधर्म करके पापका भार आप सिर धरना है ।। विन विद्या बल इन बातोंका छाननवाला कोई नहीं ॥ जैनधर्मको०॥२॥ ज्ञानदानके बदलेमैं श्रुत, पाठन पठन निवार दिया। पढ़े जो कोई उसे पुस्तक देना. इनकार किया। जहां जिनागमकी चर्चा तह, विन कारण तकरार किया। भोले भाले जहां देखे तहां,रहनेका इखत्यार किया ॥ शिवमगमें ऐसे ठगकों गुरु माननवाला कोई नहीं॥ जैन धर्मको०॥३॥ धर्मदेशनाके बदले,लौकीक कथा कों करते हैं। बडे ढोंगसे आप निज, विषय विथाको हरते हैं । सरस मनोहर असन वसन सय, नासन नहीं विसरते हैं। बडे सूर हैं जगतसों, जरा नहीं वे डरते हैं ॥वचन जिनेश्वर सत्य तदपि, पहिचाननवाला कोई नहीं ॥ जैनधर्मको०॥४॥ .
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१७६
जैनपदसागर प्रथमभागकुगुरु निषेध |
·
३७ लावनी, रंगत-लंगड़ी | कामक्रोधवशि होय कुधी जिनमतकै दाग लंगाते हैं । धिक् धिक् इनको धर्म विन, जिनधर्मी कहलाते हैं | टेर ॥ जिनवरवचन उथापि आपने बागजाल विस्तार दिया। खूव विचारी आपका, संघसहित निस्तार किया ॥ ब्रह्मचर्य व्रत घारि बहुरि श्रृंगार गलैका हार किया । खानपान में पुष्टरस, भोजनको इकत्यार किया । इत्र फुलेल सुगंध लगाकर, कामदाह उपजाते हैं ॥ धिक् धिक् ॥ १ ॥ सुनो महाशय अर्ज. हमारी, जरा गौर करके देखो । मृग तृणभक्षी जिन्होंके सुखसमाजको नहिं लेखो ॥ शीत उष्ण दुख सहैं निरंतर, अरु संकित मनमैं देखो । वे भी वनमै मृगी लखि, कामक्रियामें रत देखो ॥ कहो आप फिर किस कारनसें निरविकार रह जाते हैं ॥ धिक् धिक् ॥ २ ॥ भोजन आप करावे बहुविधि, शुद्ध कहावै सेवकसों | यह चा
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... गुरुस्तुतिपद-संग्रह ! १७७ लाकी धन्य यह, पाप भयो सव सेवकसो। पहिले असनपाप देकरके, पीछे धन ले सेवकसों । तुष्ट होकर बारता करे, रागजुत सेवकसों ॥ तुष्टं सुफल ये रुष्ट भये, क्या जाने क्या दे जाते हैं। धिधिक् ॥३॥चौमासाके प्रथम दिवस परि,मेष दिगंवर पदमासन् । जिनप्रतिमाके सामने, करै प्रतिज्ञा वसनासन् ।। सेवकगनसों यों कहलायें, वक्त नहीं सुन गुरुभाषन् । परिग्रह धारो तजो यह, योगप्रतिज्ञाको आसन् ॥ इम सुन वचन ततच्छन उठकर, फिर भेषी बन जाते हैं । धिक् धिक् ॥ ४॥ खूब अनुग्रह किया आपने, सेवक गन सव तार दिया। जरा देरमें अघोगति, वंधनका हकदार किया ॥ समझो. सेवकगन हिरमें, क्या अनुपम उपहार दिया।ज्ञान-चक्षुः को खोलकर, देखो क्या उपकार किया ॥ मोहनींदके जोर अज्ञजन, योंही काल गमाते हैं। धिक् धिक् ॥ ५॥ आंख खोलकर देखोआगम भगवतनें क्या किया बयान्। देवधर्मगुरु इन्होंका;
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२७४ जैनपदसागर प्रथमभागसंत्खरूप लीज्यो पहचान् । इनको.जान यथावत निजपर, तत्त्वनको कीज्यो सरधान्।यह जिनमतको मूल है, याको पहिले निश्चय जान ॥ या विन भेष निरर्थक सब ही भववनमें भटकाते हैं। धिक धिक् ॥६॥
- ३८ । लावपि रंगत लंगडी। . देखो कालप्रभाव आज पाखंड जगतमें छाया है।जैनधर्मको नीच लोगोंने दाग लगाया है ।। टेर ॥ जगजाहर अरहंतदेव, निरग्रंथ गुरू हैं जिनमतके । दयाधर्म है जिनागम, सत्य वचन हैं जिनमतके ॥ इनहींको जाने. माने श्रद्धान, करें जन जिनमतके। सिवा इन्होंके औरकों, कभी न मानें जिनमतके । इनको तज अज्ञानों ने, मनकल्पित ठाट बनाया है.॥ जैनधर्मको ॥१॥ कोई बने.कलयुगी अचारज, आरज धर्म विसार दिया। महंत होके अधर्मके, कामोंको इख्त्यार किया पहिले नाम दिगंबर होके फिर वस्त्रादिक धार लिया। परिग्रह तजिकै बनिज
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गुरुस्तुतिपद-संग्रह । .
१७९”
व्यापार व्याजका कार किया || देखो हीन आ चरन करिकै, भगतनकों सरमाया है । जैनधर्मकों० ॥२॥ केई. भोले जीव जिन्होंने, जिनशा सनको नहिं जाना । जो कुछ जैसी किसीने, कही उसीको सच माना || खानपान लड़ने में चातुर, पढने में मन अलसाना । क्रोधी मानी लोभवश, लिया कृपणताका वाना || हाय हाय ऐसे जीवोंने, नरभव वृथा गुमाया है || जैनधर्मकों ० || ३ || कोई उद्यमहीन दीन नर, पेट काज है' चमचारी | खान पानकों मिला तब, धरयो भेषस्वेच्छाचारी | पूछेपर वे जबाव दें हम इतने ही दिन व्रतधारी । धिकधिक उनको धर्मपद, छोड़ भये जे गृहचारी । सुनिये देव जिनेश्वर अरजी, यह कलयुगकी छाया है || जैनधर्मको ० ॥ ४ ॥
,
"
३९ । लावनी, गृहस्थाचार्यकी, रंगत-लंगडी । उत्तम नर जिनमतकों धारें, सो श्रावक कहलाते हैं | कोई उन्हीं मैं गृहस्थाचारजका पद पाते हैं | टेर ॥ गर्भादिक संस्कार क्रिया- जेंट
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88. जैनपदसागर.प्रथमभागसभी करानेका अधिकार । जिनगृह प्रतिमाप्रतिष्ठा, तथा धमके काम अपार ॥ व्रतविधानकी सभी प्रक्रिया, अथवा प्रायश्चितका परचार । गृहधर्मीका करावें, इसभव परभव हित-व्यवहार
धर्मक्रियाकों करते करते, जो उत्तम कहलाते हैं। कोई उन्हींमें ॥ १॥ क्रियाविशेष गृह-. स्थाचारज, करते जिनका.सुनो वयान । जाके सुनते समझलें, सर्वकालको चतुर सुजान ।।. दीक्षान्वय अवतारक्रियामैं, ग्रहन करै जिनमत सुखदान । चौथा दरजात्याग कर, कुदेव पूजन निंद्यमहान. । श्रीअरहंतदेवके पूजक, सदगृहस्थ कहलाते हैं। कोई उन्हींम०॥२॥व्रतका चिन्ह जनेऊ धार, नवमी क्रियाविषै व्रतवान् । फिर क्रम क्रमसे पंद्रमी, क्रिया लहै उपनीत . महान । प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता, जानत नय. निक्षेप प्रमान् । सो बडभागी गृहस्थाचारज जानो सम्यक्रवान् ॥ सभी गृहस्थी उनको मानैः जों श्रावक कहलाते हैं। कोई उन्हींम०॥३॥
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- गुरुस्तुतिपद-संग्रह १४१ श्रीमत्त आदिपुराण शास्त्रमैं, उनतालिसमा है अधिकार । दीक्षान्वयकी क्रिया, उपनीतविधे देखो निरधार.॥ गुण लच्छन पहिचान संधी जन, यथायोग्य करते व्यवहार । विना परखकें 'धर्मधन, खोवे मूरख जीव अपार ॥ यही जिनें श्वरकी आज्ञा है, जोश्रावक उर लाते हैं। कोई उन्हींमैं०॥४॥
(४०) 'पद्धोंकेलिये आचार्यवर्य शांतिसागरका दर्शन।
. . गीताछंद। .. तुम शांतिसागर शांतिदायक, शांति.यो इस दासको। तत्काल सबको शांतिपद हो, गहै तुमरी पास जो । मो भाग आजहि उदय आयो, लही तुमरीशरन जी। यह दास नित ही शांति चाहत, सुनहु तारन तरनजी ॥१॥ मैं अंतविन चिरकालते ही, नितनिगोद फँस्यो रह्यो । तामैं जुदुख चिरकाल भुगत्यो वचन जात न कहो।। तहत निकसि फिर भयो थावर, अवर पशु पक्षी
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હર
जैनपदसागर प्रथमभाग
आयो । तहँ पाय अतिशय दुख अनंते, नरक सातनि गयो ॥ २ ॥ नरकनतणे अति घोर दुख सह नरजनम गह, दुख सह्यो । फिर सुर असुर गति पायकर, कोउ पुण्यवशः नरतन लह्यो । सो बालपन मैं खेल खोयो, युवावस्था धुनि गही' । सांसारि- विषय - कषाय-वश, सुख लह्यो रंच न दुख यही । अब अधमरे सम वृद्धपनमैं, शक्ति कुछ भी ना रही । अतएव शांति प्रदाय लेखि तुम, चरनकी शरना गही || अब शांतिसागर सुगुण- आंकर, दया करहू दीनपर । तुम चरनपंकज सिरनवाकर, बंदहू मन लायकर 118 11
गझन
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: बधाई - संग्रह। ..."
५.
बधाई संग्रह ।
१ | बधाई - श्री आदिनाथ भगवानकी । चलि सखि देखन नाभिरायघर, नाचतं हेरि. नटवा || चल०||टेर || अदभुत ताल मान स्वरलयजुत, चवंत राग पटैवा ॥ चलसखि० ॥ १ ॥. मनिमय नूपुरादि भूषण दुति, युतसुरंग पर्दैवा हरिकेर नखन नखनपै सुरतिय, पग फेरत कटवा ॥ चलि सखि ||२|| किंनर करघर बीन बजावत, लावत लय झटवा । दौलत ताहि लखे चख तृपते, सूझत शिवबर्टवा ॥ चलि सखि० ॥ ३॥
२ । बधाई - शांतिनाथ भगवानकी ।
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वारी हो बधाई या शुभ साजै, विश्वसेन ऐरी' देवीगृह, जिनवमंगल छाजै ॥ वारी होο
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१ | इंद्ररूपी नट । २ गाते हैं । ३ छह राग । ४ कपड़े |
५. इंद्रके हाथोंके नखोंपर । ६. कमर । ७. शीघ्रही । ८ नेत्र | ६ मोक्षमार्ग । १० शांतिनाथ भगवानकी माता । ११ भगवानके
जन्मका उत्सव. ।
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१८६ जैनपदसागर भागमभाग॥ टेक ॥ सब अमरेश अशेषविभवजुत, नगरनागपुर आये। नागदच सुर इंद्र वचनतें,ऐरावत सज धाये। लखयोजन शत वदन वदन वसु,. रद प्रतिसर ठहराये। सर सर सौपन वीसनलिनि प्रति, पदम पचीस विराजै ॥ वारी हो० ॥१॥ पदम पदम प्रति अष्टोत्तर शत, ठने सुदल मन हारी। ते.सब कोटि सताईसपै मुद,-जुत नाचत सुरनारी ॥ नवरस गान ठान काननको, उपजा. वत सुख भारी। बंक लय लावत लंके लचावत, दुति लखि दामिनि लाजै ॥ वारी हो० ॥२॥ गोप गोपतिर्य जाय माय ढिग, करी तास थुति सारी। सुखनिद्रा जननीको कर नमि, अंक लियो जगतारी ॥ लै वसु मंगल द्रव्य दिशैसुरी, चली अंग शुभंकारी । हरखि हरी चख-सहस करी तब, जिनवर निरखन काजै ॥ वारी हो०॥३॥.
११. समस्त विभव सहित । २ हस्थनापुर । ३ कुवेर । ४ आठ आठ..दांत । ५ बांकी।६ कमर । ७.गुप्तभावसे । ८ इन्द्राणी जाकर २ गोदीमें लिया । १० भगवानको। ११ दिक्कुमारिका देवियां ।
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: : 'अधाई संग्रह १४५ ता.गजेंद्रपै प्रथम इंद्रने श्रीजिनेंद्र पधराये । द्वितिय छत्र घरि तृतिय तुरिय हरि, मुद धरि चमर दुराये ॥ शेष शक जयं शब्द करत नभ, लंधिसुराल छाये। पांडुशिला जिनथापि नची सचि, दुंदुभि कोटिंक बाजै ॥ वारी होका ४ ॥ पुनि सुरेशने श्रीजिनेशको, जन्मन्हवन शुभ ठान्यो। हेमकुंभ सुर हाथहि हाथन, क्षीरोदधि जल आन्यो॥ वदन उदर अवगाह एक चौ. वसुयोजन परमान्यो। सहसआठ कर करि हरि जिनशिर, ढारत जय धुनि गाजै ॥ वारी हो। ॥५॥ फिर हरिनारि सिंगार स्वामितन, जजे सुराजस गाये। पूरबली विधि करि पयान मुद ठान पिताधेर लाये ॥ मनिमय आंगनमैं १ऐसान इन्द्र । २ सनत्कुमारं । ३ माहेंद्र इन्द्र । ४ वाकीके सब इंद्र । ५. सुमेरुपर्वतपर | ६. इन्द्राणी | ७ सोनेके कलसोंका मुख चार कोशंका चौडा, पेट सोलह कोशका चौडा, और झंडा कवीस कोश था। - ऐसे एक हजार आठ कत्रशोंकेलिये इंद्रने एक हज़ार. आठ हाथ बनाकर ! इन्द्राणीने १० पहिलेकी तरह हर्षके साथ ऐरावत हाती पर विठाकर । ११ पिताके घर लाये..
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जैनपदसागर प्रथमभाग
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कनकासन, पै श्रीजिन पधराये | तांडवनृत्य कियो सुरनायक, शोभा सकल समाजै ॥ वारी हो० ॥ ६ ॥ फिर हरि जगगुरु-पितैरितोष. शांतेश घोप जिननामा | पुत्र जन्म उत्साह नगरमैं, कियो भूप अभिराभा ॥ साध सकल निजनिज नियोग सुर, असुर गये निज धामा । त्रिपद धारि जिन चारु चरनकी, दौलत करत सदा जै ॥ वारी हो० ॥ ७ ॥
३ | बधाई - पार्श्वनाथ भगवानकी । बामाघर वजत वधाई, चलि देखरी माई ॥ टेक ॥ सुगुनरास जग आस भरन तिन, जने पार्श्व जिनराई । श्री ही धृति कीरति चुधि लछमी, हर्षित अंग न माई ॥ चलि देखरी० ॥१॥ वरन वरन मनि चूर सची सव, पूरत चौक सुहाई ।
११ पुरुषका नृत्य, स्वयं इंद्रने किया । २ जगतके गुरु भगवानके पिताको प्रसन्न करके ३ शांतिनाथ नामकी । ४ घोषणा करके । . ५ मनोहर उत्कृष्ट | ६ अपने अपने स्थान । ७ तीर्थकरपद, चक्रबर्त्तिपद और कामदेवपदंके धारक । ८ भगवानके उत्तम मनोहर चरनोंकी, 1.
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......बधाई-संग्रह । १८७ हा हा हू हू नारदतुंवर, गावत श्रुति सुखदाई ।। चलि देखरी०॥२॥ तांडव नृत्य नटत हरिनट तिन, नख नख सुरी नचाई। किन्नर करधर बीन बजावत, हगमनहर छवि छाई ॥ चल देखरी ॥३॥ दौल तासु प्रभुकी महिमा सुर,-गुरुप कहिय न जाई. । जाके जन्मसमय नरकनमैं, नारिकि साता पाई ।। चलि देखरी माई०॥४॥ : ४। वघाई-आदिनाथ भगवानकी राग-पंचम। . .. आज गिरिराजके शिखर सुंदर सखी, होतः है अतुल कौतुक महा मनहरन ॥ टेक ॥ ना. भिके नंदको जगतके चंदको, लेगये इंद्र मिलि.
जन्ममंगल करन ॥ आज० ॥१॥ हाथ हाथ: .न.घरे सुरन कंचन घरे, छीरसागर भरे नीर निरमल बरन । सहस अरु आठ गिन, एकही बार जिन, सीस सुर ईशके करन लागे ढरन ...आज०॥२॥ नचत सुरसुंदरी रहस रससों भरी, गीत गा३ अरी देहि ताली करन । देव .
घड़े कलश । २ अड़ी हुई–पास पास खड़ी हुई।.. ;
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१४४ जैनपदसागर पथमभागदुंदुभि बजे वीन वंशी सजें, एकसी परत आनदघनकी भरन । आज०॥३॥ इंद्र हर्षित हिये नेत्र अंजुलि किए.तृपति होत न पिये रूप अमृत झरन । दास भूधर भने सुदिन देखे वनै, कहि थके लोक लख जीभन सकै वरन । आज०॥४॥ . ५३ बधाई-आदिनाथजीकी । राग-पांज ॥ . .माई आज आनंद है या नगरी ॥ माई ॥ टेक ॥ गजगमनी शशिवदनी तरुनी, मंगल
गावति हैं सगरी ॥माई आज ॥१॥ नाभि ‘शयघर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाच
करी ॥ माई आज०॥२॥ द्यानत धन्य कूख मरुदेवी,सुरसेवत जाके पगरी माई आज०॥३॥
६। राग-परज । 'माई आज आनंद कछु कहे न बने । टेक॥ नाभिराय मरुदेवी-नंदन, व्याह उछाय त्रिलोक भने । माई आज०॥१॥ सीस मुकुट गल माल अनूपम, भूषन बसतनं को बरनै ।.माई आज ॥३॥..गृह सुखकार रतनमय कीलो.
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बधाई - संग्रहः ।
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चौरी मंडप सुरगननें ॥ माई आज ० ॥ ३ ॥ द्यानंत धन्य सुनंदा कन्या, जाकों आदीश्वर पर || माईआज० ॥ ४ ॥ .
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७ । बधाई - आदिनाथकी राग - आसावरी । . आज आनंद बघाव ॥आज० ॥टैर ॥ जनम्योः आदीसुर नाभीके भौन। कीन्हो सब इंद्र मिलि. मेरुपैं न्होन ॥ आज ० ॥ १ ॥ ऐरावत शक्रे चढ्यो, गोदमैं किशोर । नाचत हैं अपछरा, सु सत्ताईस कोरे || आज० ॥ २ ॥ अजोध्या नगर सव, घेरो देवि देव । नरनारी अचरज यह, देखें:
सब एव ॥ आज ० ॥ ३ ॥ द्यानत मरुदेवी पद, सची सीस नाय । धन धन जगमाता, हमें सुख I दाय || आज० ॥ ४ ॥
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८ | राग - ललित एकतालो ।
• बधाई राजे हो आज राजे, बधाई राजे, नाभि, रायके द्वार बधाई ॥ टेक ॥ इंद्र सची सुर सब मिलि. आए, सज लाये गजराजै ॥ बधाई ॥ १॥ जन्मसंद
१ इंद्रः ॥ १ करोड ।
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१९० . जैनपदसागर प्रथमभागनतेसची ऋषभ ले, सौंपदिये सुरराज गजेपे धार गये सुरगिरिपै, न्हौन करनके काजै ॥वधाई॥ सहस आठशिर कलसजु ढारे, पुनिसिंगार समाजै। लोय धरयो मरुदेवी करमैं; हरि नाच्यो सुख साजै॥बधाई।३। लच्छन व्यंजन सहित सुभग तन,कंचन दुति रवि लाजै । या छवि बुधजनके. र निशिदिन, तीनज्ञानजुत राजै। वधाई॥४॥
९। राग-सारंग। .. बधाई भई हो, तुम निरखत जिनराय वधाई टेक ॥ पातक गये भये सब मंगल, भेटत चरन कमल जिनराई बधाई०॥१॥मिटे मिथ्यात भर सके बादर, प्रगटत आतम रबि अरुनाई। दुर बुधि चोर. भजे जिय जागे, करन लगे जिनधर्म कमाई ॥बधाई॥२॥ दृगसरोज फूले दरसनतें, तुम करुना कीनी सुखदाई।भाखि अनुव्रत महा विरतको,बुधजनको शिवराह बताई।बधाई।
... ... . (१०) . . बधाई चंदपुरीमैं आज ॥ बधाई०॥ टेकः।।
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.. :: .बधाई-संग्रह ! १९१ महासेनसुत चंद्रकुँवरंजू, राज लह्यो सुख साज ॥वधाई॥१॥ सनमुख नृत्यकारिनी नाचे,होत मृदंग अवाज । भेट करत नृप देश देशके, पूरत सबके काज ॥ वधाई० ॥२॥ सिंहासनपै सोहत ऐसो,ज्यों शशि-नखत-समाजानीतिनिपुन परजाको पालक, वुधजनको सिरताज॥ वधाई॥
१. राग सोरठा । : आज तो बधाई होनाभिद्वार आजकोटका। मरुदेवी माताके उरमैं, जनमे रिषभ कुमार ॥ आज० ॥१॥सची इंद्र सुर सवमिलि आये, नाचत है सुखकार। हरषिहरषि पुरके नरनारी, गावत मँगलाचार ॥ आज तो० ॥२॥ ऐसो बालक भयो जुताकै,गुनको नाही पार । तनमन बचत वंदत बुधजन, है भवतारनहार आज०॥
. : ..(१२) . भई आज बंधाई निरखत श्रीजिनराई॥ 'भई टेक.॥ गया अमंगल पाया मंगल,
न्म सुफल.भया भाई ॥ भई०॥॥.तीनलोक की सारी संपति, अर सारी ठकुराई। इनकी कृपा
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१९२ जनपदसागरं प्रथमभागकटाछ होत ही, मेरी मुझनै पाई ॥ भईआज. ॥२॥ इन विन राचे भोग विसनमें, तातै विपदा लाई । अब भ्रम नास्या ज्ञान प्रकास्या, पिछली बुधि विसराई॥ भई आज०॥३॥.सव हितकारी पर उपगारी, गनधर वानि बताई। बुध जन अनुभव करके देखी, सांची. सरधा आई। ॥भई आज०॥४॥ .. - ..
(१३). . . 'भये आज अनंदा, जनमे चंदजिनंदा भये॥ ॥टेक॥ चतुरनिकाय देवमिलि आये, इंद्र भया: है बंदा ॥ भए० ॥ महासेन घर मात लंछम। उपजाया सुखकंदा। जाके तनमै बढी जोति अति, मलिन लगे है चंदा ॥ भये ॥२॥अब भविजन मिलि सुख पावेंगे, कटि हैं कर्मक फंदा । याहीके. उपदेश जगतम, होगा ज्ञान अमंदा ॥भये ॥ ३॥ धन्य घरी धनि भाग.हमारा, दूर भया दुखदंदा। बुधजन बारबार.इम. भाखैर चिरजीवी यह नंदा ॥ भये०॥४॥.
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