________________
हजूरी प्रभातीपद-संग्रह आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर-पिछानन, तुम विन आन न कारन हेरे ॥ जगदा० ॥२॥ तुमपदसरन गही जिनने ते, जामनजरामरन निरवरे । तुमतें विमुख भये शठ तिनको, चहुंगति विपति महाविधि परे । जगदा०॥३॥ तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे । लहत न मित मैं पतित कहों किम, किन शिकन गिरिराज उखेरे । जगदा० ॥४॥ तुम विन राग दोष दर्पन ज्यों, निज निज भाव फल तिनकेरे। तुम होसहज जगत उपकारी, शिवपथसारथवाह भलेरे । जगदा०॥५॥ तुम दयाल बेहाल बहुत हम, कालकराल व्यालचिर घेरे।भाल नाय गुण माल जपों तुम, हो दयाल दुखटाल सवेरे। जगदा०॥६॥ तुम बहुपतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भवसंकट मेरे । भ्रम-उपाधिहर. .१ उस मोहकर्मका मद नाश करनेवाले । २ गाये हैं । ३ खरगोसोने । ४ शीघ्र ही।
-