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१५४ जैनपदसागर प्रथमभागध्यानपींजरामें जिन रोक्यो, चितखग चंचल चारी बे॥श्री गुरु०॥२॥ तिनके चरनसरो. रहे ध्यावै, भागचंद अघटारी वे ॥श्रीगुरु॥३॥
१२ । राग-परज । सम-आराम-विहारी, साधुजन सम-आराम विहारी ॥टेक।एक कल्पतरु पुष्पन सेती जजत भक्ति विस्तारी । एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध दर्पजुत भारी॥ राखत एक वृत्ति दोउ. निमैं सबहीके उपगारी ॥ सम आराम० ॥१॥ सारंगी हरिबोल चुंखावै, पुनि मराल मंजारी। व्याघ्रबॉलकर सहित नन्दिनी, व्याल नकुलकी नारी । तिनके चरन कमल आश्रयतें, अरिता सकल निवारी सम-आराम०॥२॥ अक्षय अ. तुल प्रमोदविधायक, ताको (म अपारी काम घराविचगढीसोचिरतें,आतमरिधि अविकारी॥ खनत ताहि लेकर करमैं जो,तीक्षणबुद्धि कुदारी. १ चरनकमल । २ मृगी । ३. सिंहके बच्चेको। ४ वाधके बच्चेको। ५ गइया । ६ सर्प । ७ दुसमनी । ८ तेज-प्रकाश ।