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हजूरी पद- संग्रह |
४.१.१
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नयन - हलय न, वैयन निवारन मोह-अंधेरो । मैं. हररूयो० ॥ १ ॥ परमें कर मैं निजबुधि अवलों, भवसर मैं दुख सह्यो घनेरो । सो दुख-भानन स्वपर पिछानन, तुम बिन कारन आन न हेरथो || मैं हररूयो० ||२|| चाह भई शिवहिला हकी गयो उछाह असंजमके । दौलत हितविराग-चित आन्यो, जान्यो रूप ज्ञानदृग मेरो | मैं हरख्यो० ॥ ३ ॥
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(. २१ )
| प्यारी लागे म्हाने जिन छवि थारी || प्यारी ० ॥ टेक ॥ परम निराकुल- पद-दरसावत, वर विरागता-कारी | पट-भूषन-विन पै सुंदरता, सुरनरमुनिमनहारी ॥ प्यारी || १ ||जांहि विलोकत भवि निजनिधि-लहि, चिरविभावता टारी । निर्हेनिमेपते देख सचीपति, सुरंता सफल विचारी ॥ प्यारी ॥ २ ॥ महिमा अंकथ होतं लखि जाको,
२१ न हिलते नहीं । २ वचनं । ३ मोक्षमार्गके लाभकी । ४ टिमकाररहित । ५ इन्द्रने । ६. अपना देवपणां ।
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