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जैनपदसागर प्रथमभाग
दुनियामै खेदको लया ॥ चंद० ॥ ३ ॥ काम
क्रोध कपट. मान, लोभकों करा । नारकी
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नर देव पशू होय फिरा ॥ चंद ॥ ४ ॥ ऐसे बखत के बीच ईश, दरश तुम दिया। मिहरवान होय दास, आपका किया ॥ चंद ॥ ५ ॥ जोलौं कर्म काट, मोखधाम ना गया । तौलौं बुधजनको सरन राख करि मया ॥ चंद० ॥ ६ ॥
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१४४ | राग - मल्हार ।
जगतपति तुम हो श्रीजिनराई ॥ जगतं ॥
टेक || अवर सकल परिगहके धारक, तुम त्यागी हो सांई ॥ जगत० ॥ १२ ॥ गर्भ मास पंदरे लों धनपति, रतनवृष्टि बरसाई । जनम समय गिरिराज-शिखर पर, न्हौंन करयों सुरराई ॥ जगत० ॥ २ ॥ सदन त्यागि बनमें कचलोंचत इंद्रनि पूजा रचाई। सुकलध्यान तें केवलि उप ज्यो, लोकालोक दिखाई ॥ जगत० ॥ ३ ॥ सर्व कर्म हरि प्रगदिः शुद्धता, नित्य निरंजनताई।