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________________ जिनवाणी स्तुति पद-संग्रह । २४१ अवाज ॥ जिनवानी० ॥१॥ षटद्रव्यनको कथन करत है, गुन-परजाय समाज। हेया हेय वतावत सिगरे, कहत है काज अकाज ।। जिनवानी० ॥२॥ नय-निक्षेप-प्रमाण-वचनतें, परमत-हरत-मिजाज । बुधजन मनवांछा सव पूरै, अमृत स्याद अवाज ।। जिनवानी० ॥३॥ २४ । राग-ठुमरी। सुनकर वानी जिनवरकी म्हारे, हरष हिये न 'समाय जी ॥ सुनकर० ॥ टेक ॥ काल अनादिकी तपन बुझाई, निजनिधि मिली अघाय जी ॥सुनकर० ॥१॥ संशय मर्म विपर्जय नास्या, सम्यक-बुधि उपजाय जी ॥ सुनकर॥२॥ अव निरभय पद पाया उर मैं, वंदों मनवचकायजी॥ सुनकर०॥३॥ नरभव सुफल भया अब मेरा, बुधजन भेटत पांय जी ॥ सुन० ॥४॥ . २५ । राग-दीपचंदी। म्हारा मनकै लगगई मोहकी गांठ, मैं तो जिन आगमसँ खोलों ॥ म्हारा० ॥ टेक ॥ अनादि
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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