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________________ १४२ जैनपदसागर प्रथमभाग कालकी धुलरही गाढी, ज्ञानछुरीसों छोलों || म्हारा० ॥ १ ॥ अष्टकरम ज्ञानावरणादिक, मो- आतम- ढिग जोलों । रागरोप विकलपं नहिं त्यागूं, तोलों भववन डोलों || म्हारा० ॥२ भेदविज्ञान की दृष्टि भई जब, परपद नाहिं टटो लों । विषय कषाय-वचन हिंसाका, मुखतें कबहूं न बोलों || म्हारा० ॥ ३ ॥ धन्य जथारथ वचन जिनेश्वर, महिमा बरनू कोलों । बुधजन जिनगुन कुसुम गूंथिकै विधिकर कंठमैं पोलों ॥ म्हारा० ॥ ४ ॥ २६ | राग अलहिया विलावल । वानी जिनकी बखानी, होजी, वाकों सव मुनि मनमैं आनी ॥ वानी० ॥ टेक ॥ मिथ्याभानी सम्यकदानी, म्हारा घटमैं बसो हितदानी ॥ वानी० ॥ १ ॥ निश्चय व्योहार जितावनहारी,. नय निक्षेपमानी । तुहि जाने विन भववन भटक्यो, करहु कृपा सुखदानी ॥ वानी० ॥२॥ जिते तिरे भवि भवदधिसेती, तिन निश्चय उर आनी ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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