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जैनपदसागर प्रथमभाग
हो । हरि वरोह मर्कट झट तारे, मेरी बेर ढील पारत हो ॥ हो तुम ० ॥ १ ॥ यों बहु अधम उधारे तुम तो, मै कहा अधम न ? मुहि टारत हो। तुमको करनो परत न कछु शिव, -पथ लगाय भव्यनि सारत हो । हो तुम ० ॥ २ ॥ तुम छवि निरखत सहज टरै अघ, गुण चिंतत विधि-रज झारत हो । दौल न और चहै मो दीजै, जैसी आप भावनारत हो । हो तुम० ॥ ३ ॥ .
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और अबे न कुदेव सुहावै, जिन थांके चरनन - रति जोरी ॥ और० ॥ टेक ॥ काम-कोह-वश गर्दै असन असि, अंक निशंक घरै तिय गौरी । औरनके किम भाव सुधारें ?, आप कुभाव-भारघर -घोरी || और० ॥१॥ तुम विनमोह अको हैछोहबिन, छके शांतरसपीय कटोरी । तुम तर्ज सेय 'अमेयँ भरी जो, विपदा जानत हो सब
१ सिंह । २ सूअर । ३ बंदर । ४ गोदमें । ५ क्रोधरहित । ६. तुम्हें छोडकर जो मैं दूसरेकी सेवा करके । ७ अपरिमाण !