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________________ ६४ जैनपदसागर प्रथमभाग जैसे, हस्तामल बडभागी जी ॥ केवल ० ॥ १ ॥ हरिचूडामणिशिखा सहज ही नमत भूमितें लागीजी ॥ केवल० ॥ २ ॥ समवसरन रचना सुर कीनी, देखत भ्रम जन त्यागीजी ॥ केवल० || ३ || भक्तिसहित अरचा तब कीनी, परमधरम अनुरागीजी ॥ केवल० ॥ ४ ॥ दिव्यं ध्वनि सुनि सभा दुवादश, आदरसमें पागीजी ॥ केवल० ॥ ५ ॥ भागचंद प्रभुभक्ति चहत है, और कछू नहिं मांगोजी ॥ केवल० ॥ ६ ॥ ( ५१ ) ख्याल | विन काम ध्यान मुद्राभिराम तुम हो, जगनाकजी ॥ टेक ॥ यद्यपि वीतरागमय तद्यपि, हो "शिवदायकजी ॥ विन काम० ॥ १ ॥ रागीदेव 'आपही दुखिया सो क्या लायकजी ॥ विन काम० - ॥२॥ दुर्जय मोहशत्रु हनवेको, तुम वच - शायकजी ॥ विनकाम० ॥ ३ ॥ तुम भवमोचन ज्ञान सुलोचन, केवलक्षायकजी ॥ विनकाम० ॥४॥ भागचंद भागन तैं प्रापति, तुम सब ज्ञायक जी ॥ बिनकाम० ॥ ५ ॥
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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