________________
जैनपदसागर प्रथमभागदेव अवर नहिं कोई, तातें हम यह हाथ पसारे ॥ जाऊं० ॥२॥ मोसम अधम अनेक उधारे, वरमत हैं श्रुत शास्त्र अपारे। दौलतको भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे॥जाऊ॥३॥
३। भागचंदकृत पद।
. (४२) वीतराग जिन महिमा थारी, वरन सकेको जन त्रिभुवनमैं ॥ वीतराग० ॥ टेक ॥ तुमरे अतट चतुष्टय प्रगटयो, निःशेषावरनच्छय छिनमैं। मेघपटल विघटनतें प्रगटत, जिम मार्तंडप्रकाश गगनमें ॥ वीतराग ॥ १॥ अप्रमेय ज्ञेयनके ज्ञायक, नहिं परिणमत तदपि ज्ञेयनमें । देखत नयन अनेकरूप जिम, मिलत नहीं पुनि निज विषयनमैं ॥ वीतराग०॥२॥निज उपयोग
आपणे स्वामी, गाल दिया निश्चलआपनमैं । है असमर्थ वाह्य निकसनको, लवण घुला जैसे जीवनमैं ।। वीतराग०॥३॥ तुमरे भक्त परम १ सूर्यका प्रकाश ..२ जलमें।.
-