SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२ जैनपदसागर प्रथमभागहर, तुम विन कौन सहाय । द्यानत हम कछु चाहत नाहीं । भव भव दरस दिखाय॥ हे जिनरयजी ॥४॥ (९४) : श्रीजिनदेव न छाडि हों, सेवा मनवचकाय हो श्रीजिनगाटेक॥सव देवनके देव हो, सब गुरुके गुरुराय हो ॥श्रीजिन० ॥१॥ गर्भ जनम तप ज्ञान शिव, पंचकल्यानक ईश हो। पूजें: त्रिभुवनपति सदा, तुमको श्रीजगदीश हो। श्रीजिन०॥२॥ दोष अठारह छय गये, गुणहि छियालिसखान हो । महा दुखीको देत हो, बड़े रत्नको दान हो ॥ श्रीजिन० ॥३॥ नाम थापना दरबको, भाव खेत अरु काल हो । षट विध मंगल जे करें, दुख नासै सुखमाल हो। श्रीजिनः ॥ ४॥ एक दरव कर जो भजै, सो पावै सुखसार हो। आठ दरबले हम जजें, क्यों नहिं उतरें पार हों॥ श्रीजिन ॥ ५॥ गुण अनंत भगवंतजी, कहिन सके सुररायहो..बुद्धिः
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy