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२८ जैन पदसागर प्रथमभाग . समवसरन बहिरंग,रमा गर्नधार अपार कहैं।
सम्यग्दर्शन-बोध चरन अध्यात्म-रमा-भर-भारक हैं ॥ कुंथुनके०॥ ३॥ दशधाधर्मपोतेकर भव्यन, को भवसागर-तारक हैं । वर समाधि-वन-धनविभाव-रज, पुंजनिकुंजनिवारक हैं ॥ कुंथुनके० ॥२॥ जासु ज्ञाननभमें अलोकजुत,लोक यथा इक तारक है । जासु ध्यान हस्तावलम्ब दुख, कूप-विरूप-उधारक हैं। कुंथुनके० ॥३॥ तज छखंडकमला प्रभु अमला, तप-कमला-आगारक हैं । द्वादश सभासरोजसूर भ्रम, तर अंकूर उपारक हैं । कुंथुनके० ॥४॥ गुण अनंत कहि लहत अंत को ? सुरगुरुसे बुध-हारक हैं । नमें दौल हे कृपाकंद भव, द्वंद्व टार बहुबार कहैं । कुंथुनके ॥५॥
[६]. पास अनादि अविद्या मेरी हरनपास-पर१ गणधर । २ दशलक्षणधर्मरूपी जहाज द्वारा छहखंडकी राज्य लक्ष्मी । ३ तारा । ४ फांसी | ५ पार्श्वनाथ भगवान ।
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