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जिनवाणीस्तुतिपद-संग्रह। १३९ तत्वारथ अपने उर दरश्यो, जान लियो निजसार । वानीसुन० ॥२॥ इंद नरिंद फनिंद पदीघर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद बुधजनके उर, उपज्यो अपरंपार ।।वानीसुनि०॥३॥
(२१) जिनवानीके सुनसों मिथ्यात मिटै, मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै| जिनवानीके० ॥ टेक ॥ जैसे प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सव दूर फटे। जिनवानीके०॥१॥ कालअनादिकी भूल मिटावै, अपनी निधि घटमैं प्रगटै । त्याग विभाव सुभाव सु धारै, अनुभव करतां कर्म कटै जिनं० ॥२॥ अवर काम तजि सेवो याकों, या विन नाहिं अज्ञान घटै।बुधजन या भव परभव माही, वाकी हुंडी तुरत पटै । जिनवानीके ॥३॥
. २२ । रेखता। . परम जननी धरम कथनी, भवार्णवपारकों तरनी।परम०॥ टेक॥अनक्षरिघोष आपतकी,
:१ अनक्षरी धुनि । २ातकी-सच्चे देवकी।
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