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१३८९ जैनपदसागर प्रथमभागमुखतें निकरी, परी वरनजुत कान । हितदायक बुधजनको गनधर,गूथे ग्रंथ महान। भविदधि०॥३॥
१९। राग-ललित जल्द तितालो। · हो जिनवाणीजू तुम मोकों तारोगी॥ हो ॥टेक ॥ आदि अंत अविरुद्ध वचनतें, संशय भ्रम निरवारोगी॥ हो० ॥१॥ ज्यों प्रतिपालत गाय वत्सकों, त्योंही मुझको पारोगी। सनमुख कालबाध जब आवै, तब तत्काल उबारोगी॥ हो ॥२ ।। बुधजन दास बीनवै माता, या विनती उर धारोगी॥ उलाझ रह्यो हूं मोहजालमैं, ताकों तुम सुरझारोगी ॥ हो० ॥३॥ - २० । राग-विलावल कनडी।
मनकै हरष अपार, चितकै हरष अपार, वानी सुन ॥ टेक ॥ज्यों तिरषातुर अंमृत पीवै, चातक अंबुदधार ॥ वानीसुनि० ॥१॥. मिथ्यातिमिरि गयो ततखिनही. संशयः भरम निवार। ....१ बादलकी धावा. बूंद ।