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जैनपदसागर प्रथमभाग
पावें शिवसुख दुःख नशाहीं ॥ घनि ते० ॥४॥
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धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी ॥ धनिधनि० ॥ टेक ॥ मारंमार जगजर जार ते, द्वादशत्रत तप अभ्यासी ॥ धनि धनि० ॥ १ ॥ कौड़ीलाल · पास नहिं जा कै, जिन छेदी आशापासी । आतम आतम पर पर जानै, द्वादश तीन प्रकृति नासी ॥ धनि धनि० || २ || जादुख देख दुखी सव जग है, सो दुख लखि सुख है तासी । जाकों सब जग सुख मानत हैं, सो सुख जान्यो दुखरासी ॥ धनि धनि० ॥ ३ ॥ वाहिज भेष कहत अंतर गुण, सत्यमधुरहितमितभाषी । द्यानत ते शिवपंथ-पथिक हैं, पांवपरत पातक जासी ॥ धनि धनि० ॥ ४ ॥
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भाई धनि मुनि ध्यान लगायक खरे हैं | भाई
१ कामदेवकूं मारकर । २ जगतके जालकूं जलाकर । ३ रतन | ४ आशारूपी फांसी । ५ मोक्षपंथके रस्तागीर हैं ।