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________________ १९२ जनपदसागरं प्रथमभागकटाछ होत ही, मेरी मुझनै पाई ॥ भईआज. ॥२॥ इन विन राचे भोग विसनमें, तातै विपदा लाई । अब भ्रम नास्या ज्ञान प्रकास्या, पिछली बुधि विसराई॥ भई आज०॥३॥.सव हितकारी पर उपगारी, गनधर वानि बताई। बुध जन अनुभव करके देखी, सांची. सरधा आई। ॥भई आज०॥४॥ .. - .. (१३). . . 'भये आज अनंदा, जनमे चंदजिनंदा भये॥ ॥टेक॥ चतुरनिकाय देवमिलि आये, इंद्र भया: है बंदा ॥ भए० ॥ महासेन घर मात लंछम। उपजाया सुखकंदा। जाके तनमै बढी जोति अति, मलिन लगे है चंदा ॥ भये ॥२॥अब भविजन मिलि सुख पावेंगे, कटि हैं कर्मक फंदा । याहीके. उपदेश जगतम, होगा ज्ञान अमंदा ॥भये ॥ ३॥ धन्य घरी धनि भाग.हमारा, दूर भया दुखदंदा। बुधजन बारबार.इम. भाखैर चिरजीवी यह नंदा ॥ भये०॥४॥.
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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