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जैनपदसागर. प्रथमभाग
. आरसको ॥ भजरे० ॥ १ ॥ अभयदान दे दुख सब हरले, दूर करे भवकारसको ॥ भज़रे ० ॥२॥ द्यानत गावै भगति बढावै, चाहै पावै ता रसको : ॥ भजरे० ॥ ३ ॥
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लगन मोरी पारससों लागी ।लगन०॥टेक॥ कमठ मान-भंजन मनरंजन, नाग किये बडभागी ॥ लगन० ॥ १ ॥ संकट-चूरत मंगल पूरत, परमघरम अनुरागी ॥ लगनः ॥ २ ॥ द्यानत नाम सुधारस खादत, प्रेम-भगति-मति पागी ॥ लगन •
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॥8३ ॥
( ११७ ) प्रभुजी मोहि फिकर अपार ॥ प्रभुजी ० ॥ टेक ॥ दानव्रत नहिं होत हमपैं, होंहिंगे क्यों पार ॥ प्रभुजी ० ॥ १ ॥ एक गुनधुति कहि सकत नाहीं, तुम अनंत भंडार । भगति तेरी बनत नाहीं, शुकतिकी दातार || प्रभुजी ० ॥ २ ॥ एक भवके : १ संसाररूपी कालिमा । .