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________________ १३५ जिनवाणीस्तुतिपद - संग्रह । ॥ तारंनको ० ॥ १ ॥ जंडता नाशै ज्ञान प्रकाशै, शिवमारग अगवानी ॥ तारनको ० ॥ २ ॥ द्यानत तीनों लोक विथाहर, परमरसायन मानी' तारनको० ॥ ३ ॥ '१६ | राग- आसावरी जोगिया । कलिमेँ ग्रंथ बडे उपगारी ॥ कलिमैं ० ॥ टेक ॥ देवशास्त्र गुरु सम्यक सरधा, तीनों जिनतें घारी' ॥ कलिमैं० ॥ १ ॥ तीन बरस वसुमास पंद्रदिन, चौथाकाल रहा था । परमपूज्य महावीर स्वामि तव, शिवपुरराज लहा था ॥ कलिमैं ● ||२|| केवलि तीन पांच श्रुतकेवलि, पीछे गुरुनि विचारी । अंगपूर्व अब है न रहेंगे, बात लखी थिरकारी ॥ कलिमै ० ॥ ३ ॥ भविहितकारन धर्मविथारन, आंचारजों बनाये | बहुतनि तिनकी टीका कीनी, अदभुत अरथ समाये ॥ कलिमैं० ॥ ४ ॥ केवलि श्रुतकेवलि यहां नाहीं, ". मुनिगुन प्रगट न सूझैं । दोऊं केवलि आज यही हैं, इनहीको मुनि बूझें ॥ कलिमै ० ॥ ५ ॥ बुद्धि
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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