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- गुरुस्तुतिपद-संग्रह १४१ श्रीमत्त आदिपुराण शास्त्रमैं, उनतालिसमा है अधिकार । दीक्षान्वयकी क्रिया, उपनीतविधे देखो निरधार.॥ गुण लच्छन पहिचान संधी जन, यथायोग्य करते व्यवहार । विना परखकें 'धर्मधन, खोवे मूरख जीव अपार ॥ यही जिनें श्वरकी आज्ञा है, जोश्रावक उर लाते हैं। कोई उन्हींमैं०॥४॥
(४०) 'पद्धोंकेलिये आचार्यवर्य शांतिसागरका दर्शन।
. . गीताछंद। .. तुम शांतिसागर शांतिदायक, शांति.यो इस दासको। तत्काल सबको शांतिपद हो, गहै तुमरी पास जो । मो भाग आजहि उदय आयो, लही तुमरीशरन जी। यह दास नित ही शांति चाहत, सुनहु तारन तरनजी ॥१॥ मैं अंतविन चिरकालते ही, नितनिगोद फँस्यो रह्यो । तामैं जुदुख चिरकाल भुगत्यो वचन जात न कहो।। तहत निकसि फिर भयो थावर, अवर पशु पक्षी