SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० जैनपदसागर प्रथमभाग सूख जाय सरवरपयरीता, पंथी पथ तज दीना है । ग्रीषम ऋतुमैं चील निज, अंडनको तज दीना है । जलचारी अरु पवनं अहारी, नभचारी इम कीना है । तज निज थलको जिन्होंने, सघन वनाश्रय लीना है | सैर - ऐसी विकट गरंमी. विषै गिरि, गुफा वनको छोड़कें । शिल-शैलश्रृंगसमाधि धारी, आस जीकी मोड़कें ॥ जिनके सुभाननभानसनमुख, भासमान न भान हैं । बहुज्योति मूरत धार धारा, इन समान न आन हैं || एकबार जिनके दर्शनतें सभी निकट आवैं कल्यान || अचरज० ॥ ३ ॥ घन गरजै लरजे अति दादुर, मोर पपैया शोर करें । चपला चमकै पवन चालै, जलधारा अति ज़ोर परै ॥ तरुतल निवसैं सुगुरु साहसी, अचल अंग है ध्यान घरें । शीतकाल में नीरतट, तपसी तप अति घोर करें || सैर - बहु रिद्धि सिद्धि सुभावथिरता, ज्ञाननिधि या भवविषै । पावें तपस्वी सुर असुरपद, मोक्षपद परभवविषै ॥ 1
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy