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जैनपदसागर प्रथमभाग
( १४६ ) आयो प्रभु तोरे दरवार, सब मो कारज सरि या || आयो० ॥ टेक ॥ निरखत ही तुम चर नन ओर, मोहतिमिर मो हरिया || आयो० ॥ || मैं पाई मेरी निधि सार, अबलों रह्या विसरिया । अब हूवा उर हरष अपार, कृत्य कृत्य तुम करिया || आयो० || २ || जड चेतन नहिं प्रान्या भेद, राग रोष जब धरिया । तब हुवा ये निपट कुज्ञान, करमबंधमैं परिया || आयो० ॥ ३ ॥ इष्ट अनिष्ट संयोगन पाय, दुष्ट दवानल जरिया । तुम पाए वडभाग़न जोग, निरखत हिय गय हरिया || आयो० ॥ ४ ॥ धारत ही तुम बानी कान, भरमभाव सब गरिया । बुध जनके उर भई प्रतीत, अब भवसागर तरिया || 27170 11.4:11
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.. ऐसे प्रभुके गुन को कैसे कहै | ऐसे० ॥ टेक ॥ दरश ज्ञान सुख वीर्य : अनंता, अवर अनंत