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१.०६ जैनपदसागर प्रथमभागभवदधिसे तारना म्हारा जी ॥ अरज०॥ टेक॥ पतित-उधारक पतित पुकारें, अपनो विरद पिछानो० ॥ अरज०॥१॥ मोहमगरमछ दुख दावानल, जनम मरन जल जानो।गति गति असण वरमैं डूबत, हाथ पकरि ऊंचो आनो। अरज०॥जगौं आनदेव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । बुधजनकी करुणा ल्यो साहिब, दीजै अविचल थानो॥ अमर०॥३॥ . .:
(१२४.). · राग असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। · थे ही मोनै तारोजी, प्रभुजी कोई न हमारो ॥टेका। हूं एकाकि अनादिकालते, दुख पावत हूं भारोजी॥थे ही०॥१॥ विन मतलवके तुमही स्वामी, मतलबको संसारो.। जगजनमिल मोहि जगमै राखें, तूही काढनहारो॥थेई०॥ बुधजः नके अपराध. मिटाओ, शरन गह्यो छै थाले। भवदधिमाही डूबत. मोकों,. करगहि आप निकारों॥थे. ही ॥३॥..