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________________ ३० जैन पदसागर प्रथमभाग अहमिंद्र खगेंद्र चंद्र है, अनुक्रम होहिं जिनेशा हैं ॥ पास ॥ ४ ॥ लोक अलोक ज्ञेय-ज्ञायकर्षे रत निजभाव विदेशा हैं । राग विना सेवक जनः तारक, मारक मोह न देपा है ॥ पास० ॥५॥ भद्र-समुद्र-विवर्द्धन, अदभुत पूरन चंद्र सुवेशा हैं। दौल नमैं पद तासु जानु शिवथल समेद: अचलेशा हैं ।। पास०॥६॥ जय शिवकामिनिकंत वीरें भगवंत अनंत सुखाकर हैं। विधि गिरिगंजन बुध मनरंजनभ्रमतम-भंजन भाकर हैं ।। जय शिव० ॥ टेक॥ जिन उपदेश्यो दुविधर्म जो, सो सुरसिद्धरमाकर हैं। भविउर-कुमुदनिमोदन भवतप, हरन १ लोक अलोक संबंधी समस्त पदार्थोके जानते हुए भी । २ चैतन्यरूपी निज भावोंमें ही मगन हैं | ३ कामदेव | ४ कल्याणरूपी समुद्रको बढाने वाले अद्भुत मनोहर चन्द्रमा हैं । ५ मोक्ष स्थान जिनका सम्मेद शिखर पर्वतराज है। १ महावीर भगवान ।२ कर्मरूपी पर्वतके नष्ट करनेवाले ।३ सूर्य । ११ दो प्रकारका धर्म गृहस्थ और मुनिका । ५ वर्ग मोक्ष लक्ष्मीका करनेवाला १६ भव्यपुरुषोंकी हृदयरूपी कुमुदिनीको प्रफुल्लित कर -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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