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गुरुस्तुतिपद - संग्रह | ७ राग सारंग । श्रीमुनि राजत समतासंग । कायोत्सर्ग समाहित अंगं ॥ श्रीमुनि० ॥ टेक ॥ करतें नहिं कछु कारज तातैं, आलंबित भुज कीन अभंग । गमः नकाज कछु हू नहिं तातें, गति तजि छाकें निजरसरंग ॥ श्रीमुनि० ॥ १ ॥ लोचनतें लखिवो कछु नाहीं, तातैं नाशादृग अचलंग । सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातें प्राप्त इकंत सुचंग ॥ श्रीमुनि ॥ २ ॥ तह मध्याह्नमाहि निज ऊपर, आयो उग्रप्रताप पतंगे । कैधों ज्ञान: पवनवलप्रजुलित, ध्यानानलमों उछल फुलिंग ॥ श्रीमुनि० ॥ ३ ॥ चित्त निराकुल अतुल उठत जँह, परमानंद - पियूप-तरंग, भागचंद ऐसे श्रीगुरुपद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ॥ श्रीमुनि० ॥ ४ ॥
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ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो वसो
१ सूरज हैं । २ मानों ज्ञानरूमी पवनके बलसे जलाई हुई । ..
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३ | ध्यानरूपी ध्यानिका फुलिंगा ही हैं ।