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________________ . हजूरी पद-संग्रह। वचन रसाला ॥ दीठा०॥३॥ लखि जाकी छवि आतम-निधि-निज, पावत होत निहाला ॥दीठा० ॥४॥ दौल जांसगुन चिंततरत है, निकट विकट भवनालां ॥ दीठा०॥५॥ . . .(२६). : ... थारै तो बैनामें सरधान घणोछै म्हारै, छवि निरखत हिय सरसावै । तुम धुनिधन परचहनदहनहर, वरसमतारसझर बरसावै॥थारैतो० ॥ ॥१॥ रूप निहारत ही बुध है सो निजपर चिह्न जुदे दरसावै । मैं चिदंक अकलंक अमल थिर, इंद्रिये सुख-दुख-जड़ फरसावै ॥ थारै तो० ॥२॥ ज्ञानविरागसुगुनतुम-तनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै। मुनि बडभाग लीन तिनमैं नित, दौल धवल उपयोग-रमावै थारै तो० ॥३॥ "१ । वचनोंमें । २ आपका वचनरूपी मेघ । ३ परपदार्थोकी 'चाहरूपी अग्निको बुझानेवाला है। १ चैतन्यखरूप । ५ इंदियों के सुखदुख जड़का स्पर्श करते हैं, मेरा नहीं मुझे सुखदुख- होते नहीं । ६ इंद्र । ५ विशुद्ध वा शुद्ध। -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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