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जैनपदसागर प्रथममागउज्वल जेम मराल ॥ स्वामी० ॥१॥ छत्रत्रय ऊपर राजत पुनि, सहित सु मुक्तामाल ॥ स्वामो० ॥२॥ भागचंद ऐसे प्रभुजीको, नावत माथ त्रिकाल ॥ स्वामी० ॥३॥
(५७.) आनंदाश्रु बहै लोचनतें, तातै आनन न्हाया । गद्गद शुद्ध वचन जुत निर्मल, मिष्ट गान सुरगाया। आनंदाश्रु०॥टेक ॥ भववनमैं बहु भ्रम न कियो तह, दुखदावानल ताया। अब तुम भक्ति-सुधारस-वापी,-मैं अवगाह कराया। आनंदाश्रु॥१॥ तुम वपुदपनमें मैने । अब,आत्मस्वरूप लखाया। सर्व कषाय नष्ट भये अब ही, विभ्रम दुष्ट भगाया। आनंदाश्रु॥२॥ कल्पवृक्ष मैंने निजघरके, आंगन मांझउगाया। वर्ग विमोक्ष विलास वास पुनि, मम करतलमें आया ॥ आनंदाश्रु०॥२॥ कलिमलपंक सकल अब मैंने, चितसे दूर बहाया। भागचंद तुम चरणांबुजको, भक्तिसहित सिर नाया ॥ आनंदोश्रु०॥४॥