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________________ १४४ : जनगदसागर प्रथमभागसुख अवधारे ॥जिनवानी०॥२॥ गनधर सबहि प्रथम धुनि सुनकर, दुबिध परिग्रहसंग निवारे। गजसुकुमाल बरर्ष बसुहीके, दीक्षा गहत करम सब टारे ॥ जिनवानी० ॥३॥ मेघॉवर श्रेणिकको नंदन, वीरवचन निज भवहिं चितारे, औरहु जीव तरे जे भैया, ते जिनवचन सबै उपगारे । जिनवानी०॥४॥ .. . २९ । राग-ठुमरी झिझोटी । .: जिनधुनि सुनि दुरमति नसि गईरे, नय स्यादवादमय आगम. ॥ टेक ॥ विभ्रम सकल तत्त्व दरसावत, यह तो भविजनके मन वशगई रे॥ नय० ॥ चिर-भ्रम-ताप-निवारण-कारण, चंद्रकलासी दरसगईरे॥ नय० ॥२॥ अघमल पावनकारण 'मानिक' मेघघटासी बरसि गई २॥ नय०॥३॥
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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