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जैन पदसागर प्रथमभाग
ज्ञानसुधारस सीयरा ॥ प्रभुतुम० ॥ १ ॥ वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसत नीयरा ॥ प्रभुतुम० ॥ २ ॥ भागचंद तुम चरनकमलमें, बसत संतजनहीयरा ॥ प्रभुतुम० ॥ ३ ॥ ( ११ )
अजित जिन विनती हमारी मानजी, तुम लागे मेरे प्रानजी ॥ टेक ॥ तुम त्रिभुवनमें कलपतरो - वर, आश भरो भगवानजी ॥ अजित० ॥ १ ॥ बादि अनादि गयो भव भ्रमतें, भयो बहुत हयरान जी । भागसँजोग मिल अब दीजें, मनवांछित वरदान जी | अजित० ॥ २ ॥ ना हम मांगें हाथी घोड़ा, ना कछु संपत्ति आनजी । भूधरके उर बसो जगत गुरु, जवलों पद निर बानजी | अजित० ॥ ३ ॥
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पारस-पद-नख प्रकाश, अरुन वरन ऐसो । पारस० ॥ टेक ॥ मानो तप, कुंजेरके, सीसको
१ नेड़ा - निकट | २ लाल । ३ हाथीके ।