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________________ . हजूरी प्रभाती पद-संग्रह जंतु-हितकारं॥जयश्री० ॥२॥ फंदचंदनाकंदन दादुर, दुरित तुरित निर्वारं । रुद्ररचित अतिरुद्र उपद्रव, पवन-अद्रि-पतिसारं॥ जयश्री०॥३॥ अंतातीत अचिंत्य सुगुन तुम, कहत लहत को पारं । हे जगेमौलं दौल तेरे क्रम, नमैं शीश कर. धारं ॥ जयश्री०॥४॥ (२६) श्रीजिन पूजनको हम आये, पूजत ही दुखः द्वंद मिटाये ॥ श्रीजिन ॥ टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज, अदभुत सुख समता बरः पाये ।आधिव्याधि.अव दीखत नाहीं, घरमक: लपतरु आंगन थाये ॥ श्रीजिन ॥१॥ इतमें इंद्र चक्रधर इतमें, इतमें फनिंद खड़े सिरनाये । मुनिजन वृंद करै थुति हरषत, धन हम जनमें पद परसाये ॥ श्रीजिन॥२॥ परमौदारिक में करनेवाले । ५ चंदना सतीका फंद काटनेवाले । ६ समवशरनमें पुष्प लेकर जानेवाले मेंडकके पाप । ७ रुद्र द्वारा किए हुये उपद्रव । अनंत। जगतके मुकुट । १० चरण।.
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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