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हजूरी प्रभाती पद-संग्रह . १९ देखत ही सुखपाया है। श्रीअरहत० ॥४॥ . . (२३)
, , जयवंतो जिनर्विव जगतमें, जिन देखत निज पाया है । जयवंतो॥ टेक ॥ वीतरागंता लखि प्रभुजीकी, विषयदाह विनशाया है । प्रगट भयो संतोप महागुण; मनथिरतामें आया है ॥ जयं: वंतोः॥१॥ अतिशय ज्ञान शरासनपै धरि; शुक्लध्यान शर बाया है। हानि मोह-अरि चंड चौकडी, ज्ञानादिक उपजाया है । जयवंतो० ॥२॥ वसुविधि अरि हरिकर शिवथानक, थिरखरूप ठहराया है। सो स्वरूप शुचि स्वयंसिद्ध प्रभु, ज्ञानरूप मनभाया है ।। जयवंतो०॥३॥ यदपि अचेत तदपि चेतनको, चितस्वरूप दिखलाया है। कृत्याकृत्य जिनेश्वर' प्रतिमा पूजनीय गुरुगाया है । जयवंतो०॥४॥
(२४). बंदों जिनदेव सदा चरन कमल तेरे, जा . १ फेंका है।