Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad Publishing House
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Tolkale p *lclobld ‘loįllalla ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 2863 522008 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। जैनतीर्थ और उनकी यात्रा (भा० दि० जैन परिषद् परीक्षाबोर्ड द्वारा स्वीकृत)। लेखक :श्री कामताप्रसाद जैन, D.L, M.R.A.S., (आन० संपादक 'वीर' व 'जैन सिद्धान्त भास्कर') आन० मजिस्ट्रेट व असिस्टैन्ट कलक्टर अलीगंज (एटा)। प्रकाशक :रघुवीरसिंह जैन सरार मंत्री भा० दिगम्बर जैन परिषद् पब्लिशिंग हाउस, देहली -(०) द्वितीय वार } मल्य अगस्त १९४६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण श्रीमान् तपोधन आचार्य श्रीसूर्यसागर जी महाराज कर-कमलों में सविनय समर्पित -लेखक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द श्री दि. जैन तीर्थों का इतिहास अज्ञात है। प्रस्तुत पुस्तक भी उसकी पति नहीं करती। इसमें केवल तीर्थों का महत्व और उनका सामान्य परिचय कराया गया है; जिसके पढ़ने से तीर्थयात्रा का लाभ, सुविधा और महत्व स्पष्ट हो जाता है। तीर्थो का इतिहास लिखने के लिये पर्यात सामग्री अपेक्षित है । पहिले प्रत्येक तीर्थ विषयक साहित्योल्लख, ग्रंथप्रशस्तियां, शिलालेख, मूर्तिलेख, यंत्रलेख और जनश्रुतियां आदि एकत्रित करना आवश्यक हैं । इन साधनों का संग्रह होने पर ही तीर्थों का इतिहास लिखना सुगम होगा । प्रस्तुत पुस्तक में भी साधारणत: ऐतिहासिक उल्लेख किये हैं । संक्षेप में विद्यार्थी इसे पढ़ कर प्रत्येक तीर्थ का ज्ञान पालेगा और भक्त अपनी आत्मतुष्टि कर सकेगा । यह लिखी भी इसी दृष्टि से गई है। ____ भा. दि. जैन परिषद् परीक्षा बोर्ड के लिये तीर्थो विषयक एक पुस्तक की आवश्यकता थी। मेरे प्रिय मित्र मा० उग्रसेन जी ने, जो परिषद् परीक्षा बोर्ड के सुयोग्य मंत्री हैं, यह प्रेरणा की कि मैं इस पुस्तक को परिषद्-परीक्षा-कोर्स के लिये लिख दूं। उनकी प्रेरणा-का ही यह परिणाम है कि प्रस्तुत पुस्तक वर्तमान रूप में सन् १९४३ में लिखी जा कर प्रकाशित की गई थी। अत: इसके लिखे जाने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है। ___यह हर्ष का विषय है कि जनसाधारण एवं छात्रवर्ग ने इस पुस्तक को उपयोगी पाया और इसका पहला संस्करण समाप्त हो गया : अब यह दूसरा संस्करण प्रगट किया जा रहा है । इसमें कई संशोधन और संवर्द्धन भी किये गये हैं । पाठक इसे और उपयोगी पायेंगे । कन्ट्रोल के कारण चित्र व नकशे नहीं दिये जा सके है, इसका खेद है। ___ अाशा है यह पुस्तक इच्छित उद्देश्य की पूर्ति करेगी। अलीगंज (एटा) विनीतःश्रुतपंचमी २४७२ कामताप्रशाद जैन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय तीर्थ स्थानों की अनुक्रमणिका तीर्थ क्या हैं ? तीर्थस्थान का महत्व और उसकी विनय तीर्थ यात्रा के लाभ और तीर्थों की रूपरेखा संयुक्त-प्रान्त के तीर्थ स्थानों की तालिका मध्य प्रदेश तथा बरार के तीर्थ स्थानों की तालिका राजपूताना और मालवा , , बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा ,, २२ बम्बई प्रान्त मद्रास प्रान्त तीर्थों का सामान्य परिचय और यात्रा ३१-१३८ उपसंहार देहली के दिगम्बर जैन मन्दिर और संस्थायें परिशिष्ट १४१ १५५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थस्थानों की अनुक्रमणिका ११० ४२ कमग्राम | चित्तौड़गढ़ ४३ चन्देरी अयोध्या ३६ | ऊन (पावागिरि) ११४ गजपंथाजी ८९ अहिच्छत्र (रामनगर) – |गया (कुलहा पहाड़) कम्पिलाजी अजमेर (फरुखाबाद) ३६ | गिरनार ___ आबू पर्वत ५०६ | | कानपुर | गुणावा ४४ अहमदाबाद १७ कलकत्ता ५४ ग्वालियर अपाकम (कांजीवरम) कारकल ७७ | चन्द्रपुरी | किष्किन्धापुर ४२ ११२ अंतरीक्षपार्श्वनाथ ११७ कुकुमग्राम १२५ अहारजी कुलपाक (श्रीक्षेत्र) ६१ चमत्कारजी (सवाई १२८ पारा कुण्डलपुर (दमोह) । माधोपुर) १३४ आरसीकेरी १२६ जवलपुर १२० कुण्डपर (पटना) ४६ आगरा आष्टे श्रीविघ्नेश्वरकुन्थलगिरि ८३ १३४ पार्श्वनाथ १० | कुण्डल श्रीक्षेत्र (आँधस्टेट) ६१ तरंगाजी इन्दौर . ११३ कुम्भोज (श्रीक्षेत्र) ६१ थोवनजी १२७ इलाहाबाद पफोसाजी केशरियानाथ १११ | बडीगांव "कोल्हापुर बेलगांव ८५ इलोरा गुफामंदिर ८६] कौशाम्बी ३८ | देवगढ़ १२४ उज्जैन ११६ द्रोणगिरि १२२ उखलद अतिशयक्षेत्र खजराहा १२३ | १० खंडगिरि उदयगिरि ५५/ धारशिवगुफा १२ उदयपुर ११० खन्दारजी १२५ नैनगिरि १२२ जूनागढ़ जयपुर १०७ | माजा 80 दिल्ली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागपुर नाथनगर ११८ | बटेश्वर - सौरीपुर ३६ रत्नपुरी ८४ रामटेक ६३ राजगृह ६० ४६ बीजापुर बम्बई बेंगलोर पपौरा पटना पावापुर पावागढ़ (सिद्धक्षेत्र ) ६५ पुण्डी फीरोजाबाद १२७ ४५ ४८ भेलसा भोपाल ८१ भागलपुर ८० भातुकुली पेरु मण्डूर पौन्नूर - तिरुमलय ६० मैसूर पालीताना (शत्रुञ्जय) मदरास ६८ मथुरा महावीर जी ( चन्दावर ) ३५ ( अतिशय क्षेत्र) १३३ बड़वानी (चलगिरि) मक्सी पार्श्वनाथ ११६ ११५ मनारगुड़ी (श्रीक्षेत्र ) ८२ ४० ६४ बनारस बड़ौदा मंदार गिरि बादामी गुफा मंदिर माँगीतु गी लखनऊ १३२ ललितपुर ११७ बारंग (क्षेत्र) ५० वेपर ११६ ८४ १२१ ७३ ५८ ५ सिद्धवरकूट ३४ सिंहपुरी सिवनी बीनाजी बिजोलिया पार्श्वनाथ बूढ़ी चेदरी ५० ८७ मधुबन (सम्मेदशि खिर) सुक्तागिरि ११२ मूडबिदुरे मूड़बद्री) १२६ ७५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ४० ११६ ४६ सूरत सागर C १२४ ७८ सोनागिरि (सिद्धक्षेत्र) १३१ ११४ ४१ ७५ १२० ६४ ५२१ श्रवणबेलगोल ६१ श्रावस्ती ४३ श्री क्षेत्र पोन्नर ८० श्री क्षेत्र सितामूर ८१ ५१ ७४ इलेविड ११८ हुबली और टाल ८३ हस्तिनागपुर ३२ त्रिलोकपर ४० www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः सिद्ध भ्यः। जैन तीर्थ और उनकी यात्रा। १. तीर्थ क्या है ? 'तृ' धातु से 'थ' प्रत्यय सम्बद्ध होकर तीर्थ' शब्द बना है । इसका शब्दार्थ है:-'जिसके द्वारा तरा जाय।' इस शब्दार्थ को गृहण करने से 'तीर्थ' शब्द के अनेक अर्थ होजाते हैं, जैसे शास्त्र, उपाध्याय, उपाय, पुण्यकर्म, पवित्रस्थान इत्यादि, परन्तु लोक में इस शब्द का रूढार्थ 'पवित्रस्थान' प्रचलित है। हमें भी यह अर्थ प्रकृतरूपेण अभीष्ट है, क्यों कि जैन तीर्थ से हमारा उद्देश्य उन पवित्रस्थानों से है, जिनको जैनी पूजते और मानते हैं। ___ साधारणतः क्षेत्र प्रायः एक समान होते हैं, परन्तु फिर भी उनमें द्रव्य, काल, भाव और भवरूप से अन्तर पड़ जाता है। यही कारण है कि इस युग की आदि में आर्य भूमि का जो क्षेत्र परमोन्नत दशामें था, वही आज हीनदशा में है । वैसे भी ऋतुओं के प्रभाव से काल के परिवर्तन से क्षेत्र में अन्तर पड़ जाता है। हर कोई जानता है कि भारत के भिन्न भागोंमें भिन्न प्रकारके क्षेत्र मिलते हैं। पंजाब का क्षेत्र अच्छा गेहूँ उपजाता है, तो बंगाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) उपन कर और बर्माका क्षेत्र अच्छे चावलको उत्पन्न करने के लिये प्रसिद्ध है। सारांशतः यह स्पष्ट है कि वाह्य ऋतु आदि निमित्तों को पाकर क्षेत्रोंका प्रभाव विविध प्रकार और रूप धारण करता है। ___ संसार से विरक्त हुए महापुरुष प्रकृति के एकान्त और शान्त स्थानों में विचरते हैं । उच्च पर्वतमालाओं-मनोरम उपत्ययकाओं गंभीर गुफाओं और गहन बनों में जाकर साधुजन साधना में लीन होते हैं । जैनधर्म जीवमात्र को परमार्थ सिद्धि की साधना का उपदेश देता है, क्योंकि प्रत्येक जीव सुख चाहता है। सुख संसार के प्रलोभनोंमें नहीं है; वह आत्माका गुण है । जो मनुष्य सम्पत्ति की छाया को पकड़ रखनेका उद्योग करता है, उसे हताश होना पड़ता है। छायाका पीछा करनेसे वह हाथ नहीं आती। उसके प्रति उदासीन हो जाइये, वह स्वतः आपके पीछे-पीछे चलेगी। अतएव जो मनुष्य महान् बननेके इच्छुक हैं उन्हें त्याग-धर्मका ही अभ्यास करना कार्यकारी है। अर्थ और काम पुरुषार्थों की सफलता धर्म पुरुषार्थ पर ही निर्भर है इसलिये अन्य धर्म कार्यों के साथ तीर्थ वन्दना भी धर्माराधना में मुख्य कारण कहा गया है। क्योंकि तीर्थ वह विशेष स्थान है जहां पर किसी साधक ने साधना करके आत्मसिद्धि को प्राप्त किया है। वह स्वयं तारण-तरण हुआ है और उस क्षेत्र को भी अपनी भव-तारण शक्ति से संस्कारित कर गया है । धर्ममार्ग के महान् प्रयोग उस क्षेत्रमें किये जाते हैं-मुमुक्षुजीव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) तिलतुषमात्र परिग्रह का त्याग करके मोक्षपुरुषार्थ के साधक बनते हैं, वे वहां पर आसन माड़कर तपश्चरण, ज्ञान और ध्यान का अभ्यास करते हैं अन्तमें कर्मशत्रुओं - रागद्वेषादिका नाश करके परमार्थको प्राप्त करते हैं । यहीं से वह मुक्त होते हैं । इसलिये ही निर्वाणस्थान परमपूज्य हैं। ' किन्तु निर्वाणस्थानके साथ ही जैनधर्म में तीर्थङ्कर भगवान्के गर्भ- जन्म - तप और ज्ञान कल्याणके पवित्र स्थानों को भी तीर्थ कहा गया है वे भी पवित्रस्थान हैं । तीर्थङ्कर कर्मप्रकृति जैन - कर्मसिद्धांत में एक सर्वोपरि पुण्य प्रकृति कही गई है। जिस महानुभाव के यह पुण्यप्रकृति बंध को प्राप्त होती है, उसकी अनुसारिणी अन्य सबही पुण्यप्रकृतियां हो जाती हैं । यही कारण है कि भावी तीर्थङ्कर के माता के गर्भ में आनेके पहले ही वह पुण्य प्रकृति अपना सुखद प्रभाव प्रगट करती है। उनका गर्भावतरण 1 १ - ' कल्पान्निर्वारण कल्याण मत्रेत्यामर नायकाः । गंधादिभि समभ्यर्च तत्क्षेत्रमपवित्रयन् ।। ६३ ।। पर्व ६६ ।।' - उत्तर पुराण । अर्थ - निर्वाण कल्याण का उत्सव मनाने के लिये इंद्रादि देव स्वर्ग से उसी समय आये और गंध अक्षत आदि से क्षेत्र की पूजा करके उन्होंने उसे पवित्र बनाया। अतः निर्वाण क्षेत्र स्वतः पूज्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जन्म स्वयं उनके लिये एवं अन्य जनों के लिये सुखकारी होता है। उस पर जिससमय तीर्थङ्कर भगवान तपस्वी बनने के लिये पुरुषार्थी होते हैं, उस समय के प्रभाव का चित्रण शब्दों में करना दुष्कर है । वह महती अनुष्ठान है-संसार में सर्वतोभद्र है । उस समय कर्मवीरसे धर्म वीर ही नहीं बल्कि वह धर्म चक्रवर्ती बननेकी प्रतिज्ञा करते हैं। उनके द्वारा महती लोकोपकार होने का पुण्य-योग इसीसमय से घटित होता है । अब भला बताइये उनका तपोवन क्यों न पतितपावन हो? उसके दर्शन करने से क्यों न धर्म मार्ग का पर्यटक बनने का उत्साह जागत हो? उसपर केवल ज्ञान-कल्याण-महिमा की सीमा असीम है। इसी अवसर पर तीर्थंकरत्व का पूर्ण प्रकाश होता है। इसी समय तीर्थङ्कर भगवान् को धर्मचक्रवर्तित्व प्राप्त होता है। वह ज्ञानपुञ्ज रूप सहस्त्र सूर्य प्रकाश को भी अपने दिव्य आत्मप्रकाश से लज्जित करते हैं। खास बात इस कल्याणक की यह है कि यही वह स्वर्ण घड़ी है, जिसमें लोकोपकार के मिस से तीर्थङ्कर भगवान द्वारा धर्म-चक्र प्रवर्तन होता है। यही वह पुण्यस्थान है, जहाँ जीवमात्र को सुखकारी धर्मदेशना कर्णगोचर होती है और यहीं से एक स्वर्ण-वेला में तीर्थङ्कर भगवान् का विहार होता है, जिसके आगे-आगे धर्म-चक्र चलता है। सारे आर्य-खण्ड में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेन्द्र प्रभू का विहार और धर्मोपदेश होता है। अन्तःआयुकर्म के निकट अवसान में वह जीवन्मुक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा एक पुण्यक्षेत्र पर आ विराजमान होते हैं और वहीं से लोकोत्तर ध्यान की साधना से अघातिया कर्मों' का भी नाश करके अशरीरी परमात्मा हो जाते हैं। निर्वाणकाल के समय उनके ज्ञानपुञ्ज आत्मा का दिव्य प्रकाश लोक को आलोकित कर देता है और वह क्षेत्रज्ञान-किरण से संस्कारित हो जाता है। देवेन्द्र वहां आकर निर्वाण कल्याणक पूजा करता है और उस स्थान को अपने वजदण्ड से चिह्नित कर देता है १ । भक्तजन ऐसे पवित्र स्थानों पर चरण-चिन्ह स्थापित करके यक्त लिखित दिव्य घटनाओं की पुनीत स्मृति स्थायी बना देते हैं । मुमुक्षु उनकी वंदना करते हैं और उस आदर्श से शिक्षा ग्रहण करके अपना आत्मकल्याण करते हैं । यह है तीर्थो का उद्घाटन रहस्य । ___ किन्तु तीर्थङ्कर भगवान् के कल्याणक स्थानों के अतिरिक्त सामान्य केवली महापुरुषों के निर्वाणस्थान भी तीर्थवत् पूज्य हैं। वहां निरन्तर यात्रीगण आते जाते हैं। उस स्थान की विशेषता उन्हें वहां ले आती है। वह विशेषता एकमात्र आत्मसाधना के चमत्कार की द्योतक होती है। उस अतिशय क्षेत्र पर किसी पज्य साधु ने उपसर्ग सहन कर अपने आत्मबल का चमत्कार प्रगट किया होगा अथवा वह स्थान अगणित आराधकों की १-हरिवंशपुराण व उत्तरपुराण देखो। २–पार्श्वनाथचरित्र ( कलकत्ता ) पृ० ४२० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माराधना और सल्लेखनावत की पालना से दिव्यरूप पा लेता है। वहाँ पर अद्भुत और अतिशयपूर्ण दिव्य मूर्तियाँ और मन्दिर मुमुक्षु के हृदय पर ज्ञान-ध्यान की शांतिपूर्ण मुद्रा अङ्कित करने में कार्यकारी होते हैं। जैनसिद्धान्त साक्षात धर्मविज्ञान है. उसमें अंधेरे में निशाना लगाने का उद्योग कहीं नहीं है ! वह साक्षात् सर्वज्ञसर्वदर्शी तीर्थङ्कर की देन है। इसलिये उसमें पद-पद पर धर्म का वैज्ञानिक निरूपण हुआ मिलता है। हर कोई जानता है कि जिसने किसी मनुष्य को देखा नहीं है, वह उस को पहचान नहीं सकता! मोक्षमार्ग के पर्यटक का ध्येय परमात्मस्वरूप प्राप्त करना होता है । तीर्थङ्कर भगवान् उस परमात्म स्वरूप के प्रत्यक्ष आदर्श जीवन्मुक्त परमात्मा होते हैं। अतएव उनके दर्शन करना एक मुमुक्षु के लिये उपादेय है, उनके दर्शन उसे परमात्म-दर्शन कराने में कारणभत होते हैं। इस काल में उनके प्रत्यक्ष दर्शन सुलभ नहीं हैं । इसलिये ही उनकी तदाकार स्थापना करके मूर्तियों द्वारा उनके दर्शन किये जाते हैं तीर्थस्थानों में उनकी उन ध्यान मई शाँतमुद्रा को धारण किये हुये मूर्तियाँ भक्तजन के हृदय में सुख और शांति की पुनीत धारा बहा देती हैं। भक्तहृदय उन मूर्तियों के सन्मुख पहुँचते ही अपने आराध्य देव का साक्षात् अनुभव करता है और गुणानुवाद गा-गाकर अलभ्य आत्मतुष्टि पाता है । पाठशाला में बच्चे भूगोल पढ़ते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) उन्हें उन देशों का ज्ञान नक़शे के द्वारा कराया जाता है जिनको उन्हों ने देखा नहीं है। उस अतदाकार स्थान अर्थात् नकशे के द्वारावह उन विदेशों का ठीक ज्ञान उपार्जन करते हैं। ठीक इसी तरह जिनेन्द्र की प्रतिमा भी उनका परिज्ञान कराने में कारणभूत हैं। जिन्होंने म० गाँधी को नहीं देखा है वह उन के चित्र अथवा मूर्ति के दर्शन करके ही उनका परिचय पाते और श्रद्धालु होते हैं । इसीलिये जिनमन्दिरों में जिनप्रतिमायें होती हैं. उन के आधार से एक गृहस्थ ज्ञानमार्ग में आगे बढ़ता है। तीर्थस्थानों पर भी इसीलिये अति मनोज्ञ और दर्शनीय मूर्तियों का निर्माण किया गया है। पहले तो तीर्थस्थान स्वयं पवित्र है। उसपर वहाँ आत्मसंस्कारों को जागृत करने वाली बोलती- सी जिनप्रतिमायें होती हैं जिनके दर्शन से तीर्थयात्री को महती निराकुलता का अनुभव होता है१ । वह साक्षात् सुख का अनुभव करता है ! अब पाठक समझ सकते हैं कि तीर्थ क्या है ? १-'सपरा जंगम देहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ।' ___-श्री कुन्दकुन्दाचार्य। भावार्थ-स्वात्मा से भिन्नदेह जो दर्शन ज्ञान व निर्मल चारित्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नावली (१) तीर्थ शब्द का क्या अर्थ है ? साधारण बोलचाल में __ तीर्थ किसे कहते हैं ? कुछ उदाहरण देकर समझाओ । (२) तीर्थ क्षेत्र कैसे बनते हैं ? (३) 'सिद्धक्षेत्र', या निर्वाणक्षेत्र और 'अतिशय क्षेत्र' के बारे में संक्षेप में लिखो। (४) तीर्थक्षेत्रों पर तीर्थङ्करों अथवा महापुरुषों की मूर्तियाँ या उनके चरण चिन्ह क्यों बनाये जाते हैं ? इनका क्या उपयोग है ? २ तीर्थस्थान का महत्व और उसकी विनय । 'सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराण पुरुषाश्रिते। कल्याण कलिते पुण्ये ध्यानसिद्धि. प्रजायते॥' । -ज्ञानार्णव । 'तीर्थ' शब्द ही उसके महत्व को बतलाने के लिये पर्याप्त है। तीर्थ वह स्थान है जिसके द्वारा संसार सागर से तरा जाय । से निग्रंथस्वरूप है और वीतराग है वह जंगम प्रतिमा जिनमार्ग में मान्य है । व्यवहार में वैसी ही प्रतिमा पाषाणादि की होती हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके समागम में पहुँचकर मुमुक्षु संसार-सागर से तरने का उद्योग करता है, क्योंकि तीर्थों का प्रभाव ही ऐसा है। वह योगियों की योगनिष्ठा ज्ञान-ध्यान और तपश्चरण से पवित्र किये जा चुके हैं। उनमें भी निर्वाणक्षेत्र महातीर्थ हैं, क्योंकि वहां से बड़े २ प्रसिद्ध पुरुष ध्यान करके सिद्ध हुये हैं । पुराणपुरुष अर्थात् तीर्थङ्कर आदि महापुरुषों ने जिन स्थानों का आश्रय लिया हो अथवा ऐसे महातीर्थ जो तीर्थङ्करों के कल्याणक स्थान हों, उनमें ध्यान की सिद्धि विशेष होती है। ध्यान ही वह अमोघवाण है जो पापशत्र को छिन्नभिन्न कर देता है। मुमुतुपाप से भयभीत होता है। पाप में पीड़ा है और पीड़ा से सब डरते हैं । इस पीड़ा से बचने के लिये भव्यजीव तीर्थक्षेत्रों की शरण लेते हैं। जन-साधारण का यह विश्वास है कि तीर्थ स्थान की वंदना करनेसे उनका पाप-मैल धुल जाता है । लोगों का यह श्रद्धान सार्थक है, परन्तु यह विवेकसहित होना चाहिये, क्योंकि जब तक तीर्थ के स्वरूप, उसके महत्व और उसकी वास्तविक विनय करने का रहस्य नहीं समझा जायगा, तबतक केवल तीर्थ के दर्शन कर लेना पर्याप्त नहीं है । लोक में सागर, पर्वत, नदी आदि को तीर्थ मान कर उनमें स्नान करलेने मात्र से ही बहुधा पवित्र हुआ माना जाता है, किन्तु यह धारणा गलत है। बाहरी शरीर मल के धुलने से आत्मा पवित्र नहीं होती है। आत्मा तब ही पवित्र होती है जब कि क्रोधादि अन्तर्मल दूर हों। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अतएव तीर्थ वही कहा जासकता और वही तीर्थवन्दना होसकती हे, जिसकी निकटता में पापमल दूर होकर अन्तरंग शुद्ध हो। जिन मार्ग में वही तीर्थ है और वही तीर्थवंदना है, जिसके दर्शन और पूजन करने से पवित्र उत्तम क्षमादि धर्म, विशुद्ध सम्यग्दर्शन, निर्मल संयम और यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो जहाँ से मनुष्य शान्तिभाव का पाठ उत्तम रीति से ग्रहण कर सकता है, वह ही तीर्थ है। जैनमत के माननीय तीर्थ उन महापुरुषों के पतित पावन स्मारक हैं जिन्होंने आत्मशुद्धि की पूर्णता प्राप्त की है । लौकिक शुद्धि विशेष कार्यकारी नहीं है। साबुन लगाकर मल मल कर नहाने से शरीर भले ही शुद्ध-सा दीखने लगे, परन्तु लोकोत्तर शुचिता उससे प्राप्त नहीं हो सकती। लोकोत्तर शुचिता तब ही प्राप्त होसकती है जब अन्तरङ्ग से क्रोधादि कषाय-मैल धो दिया जाय । इसको धोने के लिये सत्सङ्गति उपादेय है । सम्यग-दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यकचारित्र-रूप रत्नत्रय धर्म की आराधना ही लोकोत्तर शुचिता की आधार शिला है। इस रत्नत्रय-धर्म के धारक साधुजनों के आधाररूप निर्वाण आदि तीर्थस्थान हैं। वह तीर्थ ही इस कारण लोकोत्तर शुचित्व के योग्य उपाय हैं, प्रबल निमित्त हैं। । इसी 1-'तत्रात्मनो विशुद्ध ध्यान जल प्रक्षालित कर्ममलकलंकस्य स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तर शुचित्वं तत्साधनानि सम्यग्दर्शन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) लिये शास्त्रों में तीर्थों की गणना 'मङ्गलों में कीगई है। वह क्षेत्र मङ्गल हैं। कैलाश, सम्मेदाचल, ऊर्जयंत, (गिरिनार), पावापुर, चम्पापुर आदि तीर्थस्थान अर्हन्तादि के तप. केवल ज्ञानादि गुणों के उपजने के स्थान होने के कारण क्षेत्रमङ्गल हैं। एवं इन पवित्र क्षेत्रों का स्तवन और पूजन 'क्षेत्रस्तवन' है।२ तीर्थस्थल के दर्शन होते ही हृदय में पवित्र आल्हाद की लहर दौड़ती है, हृदय भक्ति से नम जाता है। यात्री उस पुण्यभूमि को देखते ही मस्तक नमा देता है, और अपने पथ को शोधता हुआ एवं उस तीर्थ को पवित्र प्रसिद्धि का गुणगान मधुर स्वर लहरी से करता हुआ आगे बढ़ता है । जिन मंदिर में जाकर वह जिन दर्शन करता है और फिर सुविधानुसार अष्ट ज्ञान चारित्र तपांसि तद्वन्तश्च साधवस्तदधिष्ठानानि च निर्वाणभूभ्यादिकानि तत्प्रापयुपा यत्वात् शुचिव्यपदेशमर्हन्ति' । चारित्रसार पृ० १८० । १-'दोत्रमङ्गलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनां निक्रमण केवलज्ञानादि गुणोत्पत्तिस्थानम्' -श्रीगोमट्टसार प०२ । २–'अर कैलाश, संमेदाचल, ऊर्जयन्त (गिरिनार), पावापुर, चम्पापुरादि निर्वाणक्षेत्रनिका तथा समवशरण में धर्मोपदेश के क्षेत्र का स्तवन सो क्षेत्र स्तवन है।' श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार (बम्बई ) पृ०१६५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) द्रव्यों से जिनेन्द्र का और तीर्थ का पूजन करता है। तीनों समय सामायिक-वंदना करता है। शास्त्र-स्वाध्याय और धर्मचर्चा करने में निरत रहता है। बार बार जाकर पर्वतादि क्षेत्र की वंदना करता है और चलते-चलते यही भावना करता है कि भव-भव में मुझे ऐसा ही पुण्य योग मिलता रहे । सारांश यह है कि यात्री अपना सारा समय धर्मपरुषार्थ की साधना में ही लगाता है। वह तीर्थस्थान पर रहते हुए अपने मन में बुरी भावना उठने ही नहीं देता, जिससे वह कोई निंदनीय कार्य कर सके । उस पवित्र स्थान पर यात्रीगण ऐसी प्रतिज्ञायें बड़े हर्ष से लेते हैं जिनको अन्यत्र वे शायद ही स्वीकार करते । यह सब तीर्थ का माहात्म्य है। ऐसे पवित्र स्थान को किसी भी तरह अपवित्र नहीं बनाना ही उत्तम है। शौचादि क्रियायें भी वाह्य शुचिता *-'जिणजणमणिख्खवण-णाणुप्पत्तिमोख्खसंपत्ति। णिसिहीसु खेतपूजा, पुव्वविहाणेण कायव्वा ॥ ४५२ ॥' अर्थ-जिनेन्द्र की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, केवलज्ञान उत्पन्न होने की भूमि और मोक्ष प्राप्त होने की भूमि, इतने स्थानों में पूर्व कही हुई विधि के अनुसार ( जल चन्दनादि से ) पूजा करना चाहिये। इसका नाम क्षेत्र पूजा है। -वसुनंदि श्रावकाचार प०७८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) का ध्यान रखकर करना चाहिये, क्योंकि ध्यानादि धर्मक्रियाओं को साधन करने योग्य स्थान शांतिमय एवं पवित्र ही होना चाहिये । १ प्रश्नावली (१) तीर्थक्षेत्र का महत्व लिखो। (२) धार्मिक उन्नति या आत्मा की उन्नति के वास्ते तीर्थयात्रा क्यों आवश्यक है ? (३) सच्ची तीर्थयात्रा और तीर्थवन्दना किस प्रकार होती है ? (४) किस प्रकार की हुई तीर्थयात्रा निष्फल और पाप कर्म बंध का कारण होती है। १-'जनसंसर्गे वाक् चित् परिस्पन्द मनो भ्रमा'। उत्तरोत्तर वीजानि ज्ञानिजन मतस्त्यजेत् ॥ ७ ॥ -ज्ञानार्णव तीर्थप्रबन्धकों को स्वयं ऐसा प्रबंध करना चाहिये जिस से बाहरी गंदगी न फैलने पावे। ज्यादा तादाद में शौचगह बनाने चाहिये और उनकी सफाई के लिए एक से अधिक भंगी रखने चाहिये। उनमें फिनाइल डलवाकर रोज धुलवाना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] (३) तीर्थयात्रा के लाभ और तीर्थों की रूपरेखा । तीर्थयात्रा क्यों करनी चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर देना अपेक्षित नहीं है; क्योंकि जो महानुभाव तीर्थों के महत्व को जान लेगा, वह स्वयं इसका समाधान कर लेगा । यदि वह विशेष पुण्यबन्ध करना चाहता है और चाहता है रत्नत्रयधर्म की विशेष आराधना करना तो वह अवश्य ही तीर्थयात्रा करने के लिये उत्सुक होगा । उसपर, घर बैठे ही कोई अपने धर्म के पवित्र स्थानों का महत्व और प्रभाव नहीं जान सकता। सारे भारतवर्ष में जैन तीर्थ बिखरे हुए हैं। उनके दर्शन करके ही एक जैनी धर्म- महिमा की मुहर अपने हृदय पर अङ्कित कर सकता है, जो उसके भावी जीवन को समुज्ज्वल बना देगी । यह तो हुआ धर्मलाभ, परन्तु इसके साथ व्याजरूप देशाटनादि के लाभ अलग ही होते हैं । देशाटन में बहुत-सी नई बातों का अनुभव होता है और नई वस्तुओं के देखने का अवसर मिलता है। यात्री का वस्तुविज्ञान और अनुभव बढ़ता है और उसमें कार्यकरने की चतुरता और क्षमता आती है । घर में पड़े रहने से बहुधा मनुष्य संकुचित विचार का कूपमंडूक बना रहता है; परन्तु तीर्थयात्रा करने से हृदय से विचार संकीर्णंता दूर होजाती है, उसकी उदारवृत्ति होती है । वह आलस्य और प्रमाद का नाश करके साहसी बन जाता है । अपना और पराया भला करने के लिये वह तत्पर रहता है । अपने पूर्वजों के गौरवमई अस्तित्व का परिचय जैनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) प्राचीन स्थानों का दर्शन करके ही पासकते हैं, जो कि तीर्थयात्रा में सुलभ हैं । साथ ही वर्तमान जैनसमाज की उपयोगी संस्थाओं जैसे जैन कालिज, बोर्डिङ्ग हाउस महाविद्यालय, श्राधिकाश्रम आदि का निरीक्षण करने का अवसर मिलता है। इस दिग्दर्शन से दर्शक के हृदय में आत्मगौरव की भावना जागृत होना स्वाभाविक है। वह अपने गौरव को जैनसमाज का गौरव समझेगा और ऐसा उद्योग करेगा जिस में धर्म और संघ की प्रभावना हो । तीर्थयात्रा में उसे मुनि, आर्यिका. आदि साधु पुरुषों के दर्शन और भक्ति करने का भी सौभाग्य प्राप्त होता है। अनेक देशों के सामाजिक रीतिरिवाजों और भाषाओं का ज्ञान भी पर्यटक को सुगमता से होता है। घर से बाहर रहने के कारण उसे घर धंधे की आकुलता से छुट्टी मिल जाती है। इसलिये यात्रा करते हुए भाव बहुत शुद्ध रहते हैं । विशाल जैनमंदिरों और भव्य प्रतिमाओं के दर्शन करने से बड़ा आनन्द आता है। अनेक शिलालेखों के पढ़ने से पूर्व इतिहास का परिज्ञान होता है। गर्ज यह कि तीर्थयात्रा में मनुष्य को बहुत से लाभ होते हैं। यात्रा करते समय मौसम का ध्यान रखकर ठडे और गरम कपड़े साथ लेजाना चाहिये; परन्तु वह जरूरत से ज्यादा नहीं रखना चाहिये । रास्ते में खाकी टिवल की कमीजे अच्छी रहती हैं। खाने पीने का शुद्ध सामान घर से लेकर चलना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) चाहिये। उपरान्त निवटने पर किसी अच्छे थान पर वहाँ के प्रतिष्ठित जैनी भाई के द्वारा खरीद लेना चाहिये। रसोई वगैरह के लिये बरतन परिमित ही रखना चाहिये और जोखम की कोई चीज़ या कीमती जेवर लेकर नहीं जाना चाहिये । आवश्यक औषधियां और पूजनादि की पोथियाँ अवश्य ले लेना चाहिये । थोड़ा समान रहने से यात्रा करने में सुविधा रहती है। यात्रा में और कौन-सी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, वह परिशिष्ट में बता दिया गया है। यात्रेच्छु उस उपयोगी शिक्षा से लाभ उठावें । तीर्थयात्रा के लिये तीर्थों की रूपरेखा का मानसचित्र प्रत्येक भक्त हृदय में अङ्कित रहना आवश्यक है । वह यात्रा करे या न करे, परन्तु वह यह जाने अवश्य कि कौन-कौन से हमारे पूज्य तीर्थस्थान हैं और वह कहां हैं ? तीर्थों का यह सामान्य परिचय उन के हृदय में पुण्यभावना का वीज बो देगा जो एक दिन अंकुरित होकर अपना फल दिखायेगा । मुमुक्षु अवश्य तीर्थवंदना के लिये यात्रा करने जायेगा। शुभ-संस्कार व्यर्थ नहीं जाता। अच्छा तो आइये पाठक जैन तीर्थों की रूपरेखा का दर्शन कीजिये । भारत के प्रत्येक प्रान्त में देखिये आपके कितने तीर्थ हैं ? पहले ही पंजाब प्रान्त से देखना आरंभ कीजिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) यद्यपि आज भी पंजाब में जैनियों का सर्वथा अभाव नहीं है, परन्तु तो भी दिगम्बर जैनियों की संख्या अत्यल्प है । एक समय पंजाब और अफगानिस्तान तक दिगम्बर जैनियों का बाहुल्य था। १ उनके अतिशय क्षेत्र कोट कांगड़ा, तक्षशिला आदि स्थानों में थे; २ परन्तु आज वह पवित्रस्थान नामनिःशेष हैं । यह कालका माहात्म्य है । लाहौर, फीरोजपुर, पानीपत आदि जैनियों के केन्द्र स्थान है। पंजाबके लुप्त तीर्थों का पुनरुद्धार हो तो अच्छा है। १-चीनदेश का यात्री ह्य त्सांग ७ वीं-८ वीं शताब्दि में भारत आया था । उसने पंजाब के सिंहपुर आदि स्थानों एवं अफगानिस्तान में दिगम्बर जैनों की पर्याप्त संख्या लिखी थी । देखो 'हुएन सांग का भारत भ्रमण' (प्रयाग) पृष्ठ ३७ व १४२ २-कोटकांगड़ा में मुसलमानों के राज्यकाल में भी जैनों का अधिकार रहा और वह स्थान पवित्र माना जाता था। अभी हाल में इस स्थान का परिचय श्री विश्वम्भरदासजी गार्गीय ने प्रगट किया है जिससे स्पष्ट है कि वहां दि० जैन मन्दिर था। अब वह खंडहर हो गया है और दि० जन प्रतिमा को सेंदुर लगा कर पूजा जाता है । क्या अच्छा हो यदि इसका जीर्णोद्धार किया जावे रावलपिंडी जिले में कोटेरा नामक प्रामके पास 'मूर्ति' नामक पहाड़ी पर डॉ. स्टीन को प्राचीन जैन मन्दिर मिला था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat संयुक्त प्रान्त, गंगा यमुना की उपत्ययका धर्म भूमि है-आगरा और अवध के संयुक्त प्रान्त में ही प्रायः अधिकांश तीर्थङ्करों का जन्म एवं धर्मप्रचार हुआ है। एक समय यह प्रदेश धर्मायतनों से चमचमाता था। मौर्य, कुशन एवं गुप्त कालीन जिनप्रतिमायें इस प्रान्त में मथरा. अहिच्छेत्र, संकिशा (फर्रुखाबाद) और कौशाम्बी से उपलब्ध हुई हैं। संकिशा, कापित्थ और कम्पिला एक समय एक ही नगर के तीन भाग थे । संकिशा के विषय में चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि जैनी इसे अपना तीर्थ बताते थे, परन्तु बौद्धों ने उन्हें बाहर निकाल दिया था। संकिशा के निकट अघतियां के टीले से गुप्तकालीन जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। यह संभवतः तेरहवें तीर्थङ्कर विमलनाथजी का केवलज्ञान स्थान है । संयुक्तप्रान्त में ऐसे भूले हुये तीर्थ कई हैं। कौशाम्बी, श्रावस्ती आदि तीर्थ आज भला दिये गये हैं इनका उद्धार होना आवश्यक है। प्रचलित तीर्थो की नामावली निम्नप्रकार हैं: (26) वर्तमान नाम रेलवे स्टेशन नं० प्राचीन नाम १ मथुरा या मदुरा २ शौर्यपुर www.umaragyanbhandar.com प्राकार निर्वाणक्षेत्र , मथुरा मथुरा (B.B.C.I. या G.I. P.) शिकोहाबाद E.I.B. सूरीपुर बटेश्वर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान नाम रेलवे स्टेशन नं० प्राचीन नाम प्रकार अतिशयक्षेत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 6m x @ w हस्तिनागपुर अयोध्या अहिच्छत्र प्रयाग काम्पिल्य ४ ) हस्थनापुर मेरठ N.W.R. अयोध्या फैजाबाद B.I.B. अहिक्षेत्र आँवला . इलाहाबाद इलाहाबाद " कम्पिल कायमगंज B.B.OI. कहाऊंगांव (गोरखपुर) गोरखपुर B.N R• कुरगमा झांसी G.I.P. फफोसाजी इलाहाबाद E IR. खखंदोजी (गोरखपुर.) नोनवार B.N.W. चन्द्रपुरी बनारस या सारनाथ E.I.B. चंदावर (फिरोजाबाद) फिरोजाबाद EI.R. झांसी G.I.P. कुकुमप्राम कुरुपाम कौशाम्बी काकन्दीनगर । चन्द्रावती ( www.umaragyanbhandar.com १३ चंदाउर चांदपुर चांदपुर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com नं० प्राचीन नाम १५ देवगढ़ (१) १६ पवाजी १७ वाराणसी १८ बालाबेट Mmx १६ रत्नपुर २० सिंहपुर २१ श्रमणा (?) २२ श्रमणगिरि प्राकार श्रतिशयक्षेत्र देवगढ़ (झांसी) पवाजी "" "1 बनारस बालाबेट रत्नपुरी (फैजाबाद) सिंहपुरी सिरौन जी निर्वाणक्षेत्र सोनागिरि (दतिया) "" 12 39 बर्तमान नाम " ܙܙ "" रेलवे स्टेशन ललितपुर GI.P तालबहट बनारस E.I.R. ललितपुर G. I. P. सोहावल E.I.R. · सारनाथ B. N. W. जखौरा G.I.P. सोनागिरि :) "" मध्य प्रान्त एवं मध्यभारत जैन धर्म का मुख्य केन्द्र रहा है। इस प्रदेश में अनेक जिनमन्दिर व तीर्थ विद्यमान हैं। एक समय यहाँ जैनधर्म राजधर्म के रूप में प्रचलित था उज्जैन जैनियों का मुख्य केन्द्र था । वर्तमान तीर्थ निम्नप्रकार हैं: ( २० ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान नाम व तीर्थ का प्रकार कहां से जाया जाता प्राचीन नाम जिला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( २१ ) द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि-सेंदप्पा (जिला नयागाँव सागर-गनेशगंज छावनी G. I P. नैनागिरि नैनागिरि रिसंदेगिरि (सागर) , अचलपुर मेंदगिरि , मुक्तागिरि (अमरावती) अमरावती अंतरीक्ष पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र अंतरीक्ष सिरपुर (अकोला) अकोला G. 1 P. पाहारजी आहारजी (रियासत ओरछा) ललितपुर । कारंजाजी कारंजा (अमरावती) मुर्तिजापुर , कुंडलपुर कुंडलपुर (दमोह) दमोह कौन्डिएयपुर कुंडनपुर (अमरावती) कोनी (१) कोनी-पाटन (जबलपुर) जबलपुर , खजराहा (1) खजराहा (छत्रपुर राज्य) सतना E. I R. पपौरा (१) पपौरा (ओरछा स्टेट) ललितपुर G.IP. बाहुरीबन्द शांतिनाथ , बहुरीबन्द (जबलपुर) सिहोरा E. I. R. 360 6m Kewa आर्वी " www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ललितपुर " नं० प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला कहां से जाया जाया है बीनाजी (?) , बीनाबारो (सागर) सागर या करेली G.1.P. भातुकली बाबजीमहाराज (अमरावती) अमरावती ,. रामगिरि रामटेक (नागपुर) रामटेक Via नागपुर G.I.P. चंदेरी चंदेरी झांसी) राजपताना-मालवा प्रांत में भी जैनधर्म का प्राबल्य अधिक रहा है। यहीं अजमेर प्रान्तर्गत बाडली प्राम से भ० महावीर के निर्वाण से ८४ वें वर्ष का शिलालेख उपलब्ध हुआ है। इस प्रान्त में निम्नलिखित जैन तीर्थ हैं:१ बड़वानी चलगिरि सिद्धक्षेत्र बड़वानी रियासत महू R.M.B. २ पावागिरि , ऊन (होलकर रियासत) सनावद B.M.R. ३ सिद्धवरकूट , सिद्धवरकूट (होलकर रियासत) मोरटक्का " ४ अजमेर (नशियां) अतिशय क्षेत्र अजमेर अजमेर अर्ब दपर्वत " आबू पहाड़ (सिरोही रियासत) आबूरोड २२ ) www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला कहां से जाया जाता है ६ चमत्कारजी ___, आलिनपुर (जयपुर रियासत) सवाई माधोपुर B.B.O.I. Rly. उज्जयनी उज्जैन (मालवा) उज्जैन , ८ ऋषभदेव केशरियानाथ-ललेव (उदयपुर रि०) उदयपुर R.M.R. ६ चाँदखेड़ी खानपुर चाँदखेड़ी (कोटा रियासत) मोरटका । B.B.C.I. Rly. १० महावीरजी चाँदनगाँव (जयपुर रियासत) पटौंदा महावीर । ___B.B.O.I. Rly. चौवलेश्वर चौवलेश्वर (शाहपुरा रियासत) मॉडल R.M.R. जयपुर जयपुर जयपुर १३ तालनपुर तालनपुर-कूकसी (इन्दौर रि०) बड़वानी झरकौन-जैनगर बजरंगगढ़ (ग्वालियर रियासत) गुना G.I.P. बीजोलिया पार्श्वनाथ बीजोल्यां (उदयपुर रियासत) भीलवाड़ा R.M.R. बैनेड़ा बैनेड़ा इंदौर (रियासत) अजनोद B.MR. www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला कहां से जाया जाता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ) 6 ( १७ भदिलपुर (विदिशा) भेलसा (ग्वालियर रियासत) भेलसा ,, १८ गोपाचल गिरि ग्वालियर ग्वालियर , १६ मकसीपाश्वनाथ # मक्सी जी (ग्वालियर रियासत) मक्सी० G.I.P. भारत के पूर्वीय भाग अर्थात् बंगाल-विहार और उड़ीसा प्रान्तों में जैन धर्म प्राचीन. काल से प्रचलित रहा है। वहां जैनमूतियां और भग्नावशेष हर स्थान पर बिखरे हुये मिलते हैं। भरतक्षेत्र का सबसे बड़ा तीर्थ श्री सम्मेदशिखरजी भी इसी प्रदेश में है ! इन प्रान्तों के तीर्थों की नामावली निम्न प्रकार है:१ गुणावा (१) सिद्धक्षेत्र नवादा (पटना) नवादा E.I.B. २ चम्पापुर-मंदारगिरि नाथनगर (भागलपुर) नाथनगर । ३ पाटलिपुत्र पटना पटना , ४ पावापुर पावापुरी (पटना) बिहार B.B.R. ५ राजगह-विपुलाचल राजगिरि (पटना) शिलाव(राजगिरि कुड) B.B.R. www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला किस स्थान से जाया जाता है ६ सम्मेद शिखर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ७ कुमारी पर्वत श्रावक-पच्छार सम्मेदशिखर (हजारीबाग) पारसनाथ हिल खंडगिरी-उदयगिरि (ओड़ीसा) श्रावक (गया) अतिशयक्षेत्र ईशरी E.I.R. भुवनेश्वर B.N.R. गया-रफीगंज EIB. बड़गांव रोड गया E.I.R. पारा , ) कुण्डलपुर (?) कुलहापवत पारा बड़गांव (पटना) कुलहा (गया) पारा ( जसमा ७ www.umaragyanbhandar.com जिसमें प्राचीन महा , गुजरात और कर्णाटक देश गर्भित हैं, जैन धर्म का उन्नतशील प्राङ्गण रहा है। राष्ट्रकूट और चालक्य वंश के राजाओं के समय में इस प्रदेश में जैन धर्म की विजय दुंदुभि बजती थी । वैसे अतीव प्राचीन काल से जैन धर्म इस प्रान्त में प्रचलित रहा है। दिगम्बर जैन सिद्धान्त का लिपिबद्ध अवतरण भी इसी प्रान्त के अन्तर्गत हुआ है । इस प्रान्त के तीर्थों की नामावली निम्न प्रकार है: Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com नं० प्राचीन नाम १ कुंथलगिरि २ गजपंथगिरि ३ गिरिनार - ऊर्जयन्त तारवरनगर ५ पावागिरि ६ तुंगीगिरि ७ शत्र जय तीर्थ का प्रकार आरटाल १० आष्ट ११ इलापुर सिद्धक्षेत्र "" "9 33 " 32 " "" अजंटा गुफा मंदिर अतिशय क्षेत्र " 30 133 "" वर्तमान नाम व जिला कुंथलगिरि (रामकुंड) गजपंथा (नासिक) गिरिनार ( जूनागढ़) तारङ्गा (महीकांठा) पावागढ़ (पंचमहाल) मांगीतुंगी (नासिक) शत्रुंजय ( पालीताना स्टेट) अजंटा ( हैदराबाद स्टेट) आरटाल ( धारवाड़ ) आष्ट - विश्वर-पार्श्वनाथ इलोरा (निजाम) किस स्थान से जाते है वार्शी टौन G. I. P. नासिक जूनागढ़ J.S.R. तारंगाहिल B.B.C.IR. पावागढ़ चांपानेर रोड B.B.C.I.R. मनमाड G. IP. पालीताना B,B.C.I.R. जलगांव G.I.P. हुबली S. M.R. दुधनी N. S. R. मनमाड G.I.P. ". ( २६ ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला कहां से जाया जाता है। ईडर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ईडर उखलद (१) कचनेर ईडर (गुजरात) उखलद (निजाम स्टेट) कचनेर (निजाम स्टेट) अतिशयक्षेत्र कुण्डल श्रीक्षेत्र कुम्भोज ,, श्रीक्षेत्र (औंध स्टेट) कुम्भोज (कोल्हापुर) ( २७ ) कुलपाक" क्षुल्लकपुर १६ भट्टाकलंकपुर पिगंली N.S.B. औरंगाबाद N.B.R. कुण्डल S.M.R. हातकलंगड़ा K.3.R. अलेर N.S.R. कोल्हापुर 8.M.R. होनावर S.M.R. तडवल G.I.P. डिक्सल , येडशी , बादामी M.S.M. Rly. २०. तेरपुर कुलपाक (निजाम स्टेट) कोल्हापुर स्टेट भाटकला (होनावर) तेर (उस्मानाबाद) दहीगांव (शोलापुर) धाराशिष (उस्मानाबाद) बादामी (बीजापुर) www.umaragyanbhandar.com २१ दहीगांव धाराशिवगुफा २३ बादामी(बातापी) गुफामंदिर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com नं० प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार २४ बाबानगर २५. बेलगांव २६ विघ्नहरपार्श्वनाथ २७ पार्श्वनाथ श्रमीजरा २८ होनसलगी श्रीक्षेत्र २६ कोपण " "" " "" 99 59 वर्तमान नाम व जिला बाबानगर (बीजापुर ) बेलगांव महुवा (सूरत) बड़ाली (गुजरात) होन सलगी (निजाम ) कोपल (निजाम ) कहां से जाया जाता " बीजापुर बेलगांव S. M R सूरत B. B.C.I.R. " ईडर रोड सावलजी GIP. M. S. M. Rly. मद्रास प्रान्त दिगम्बर जैनों का प्रमुख आवास रहा है। श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी ने सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य को द्वादश-स्वपनों का फल बताते हुए कहा था कि इस कलिकाल में दिगम्बर जैन धर्म दक्षिण प्रान्त में ही उन्नतशील रहेगा। वास्तव में हुआ भी ऐसा ही है । भद्रबाहु स्वामी के बहुत पहले से जैन धर्म इस प्रान्त में पहुँच चुका था । आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का विहार यहां हुआ था । और उनके पुत्र बाहुबलिजी का राज्य भी इस ओर रहा था। भगवान् नेमिनाथजी के कल्याणकारी बिहार का वर्णन 'हरिवंश पुराण' में मिलता है । उपरान्त प्राचीन चेर-चोल पाण्ड्य राजागण भी जैन धर्मानुयायी थे । मध्यकाल में कादम्ब, गंग, ( २८ ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रकूट, चालक्य, पल्लव, होयसल आदि राजवंशों के राजा भी जैनधर्म के उपासक थे। उन्होंने जैनधर्म का महती उत्कर्ष किया था। इस प्रान्त के तीर्थों की नामावली निम्नप्रकार है: प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat कहाँ से जाया जाता है अतिशय क्षेत्र مه له ( अप्पाकम श्रीक्षेत्र २ कांचीपुर ३ कारकल २६ ) तिरूमलय ه ५ पुण्डी www.umaragyanbhandar.com अर्पाकम् ( कांजीवरम् ) कांजीवरम् कांजीवरम् (चेंगलपट्ट) कारकल ( दक्षिण कनाड़ा) शिमोगा M.S.M.Rly. तिरुमलै ( उत्तर अकार्ट) पोलर 8.I.R.Iy. पुण्डी ( , ) अर्नी , पेरुमण्डूर ( , ) तण्डिवनम् , पोन्नर (चित्तौर ) मद्रास मदुरा मदुरा , मनारगुडी ( तंजोर) निडमंगलम् , " " पेरुमण्डर पोन्नर मेलापुर १ मधुरा १० मनारगुडी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० प्राचीन नाम तीर्थ का प्रकार वर्तमान नाम व जिला कहां से जाया जाता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ११ मूडबिदुरी वारांग विजयनगर वेणर श्रवणवेल्गोल वेणर ( RE मूडबिदुरे ( दक्षिण कनाड़ा) बेंगलोर S.I.R. . वारांग ( ) " " विजयानगरम् विजयानगरम्" बेंगलौर , जैनबद्री ( हासन-मैसोर) आरसीकेरी ___M.S.R. चित्तम्बर तिण्डिबनम् S.I.R. इलेबिडे ३० ) १६ श्रीक्षेत्र सितामूर १७ द्वारा समुद्र " " मूडबद्री www.umaragyanbhandar.com इस प्रकार सारे भारतवर्ष में लगभग सवा सौ दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र हैं। उनकी यात्रा वंदना करके मुमुक्षु अपनी आत्मा का हित साध सकते हैं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) प्रश्नावली (१) तीर्थयात्रा के लाभ विस्तार के साथ लिखो । (२) सामाजिक उन्नति करने और स्वदेश गौरव बढ़ाने में तीर्थ - यात्रा किस प्रकार सहायता करती है ? (३) भारतवर्ष और जैनधर्म के इतिहास की क्या-क्या सामग्री जैन तीर्थों से उपलब्ध होती है ? ४. तीर्थों का सामान्य परिचय और यात्रा | वही जिह्वा पवित्र है । जिससे जिनेन्द्र का नाम लिया जावे और पगों को पाने की सार्थकता तभी है जब पुण्यशाली तीर्थों की यात्रा - चन्दना की जावे । आइये पाठक हम लोग दिल्ली से अपनी परोक्ष तीर्थयात्रा प्रारम्भ करें और प्रत्येक तीर्थ और मार्ग के दर्शनीय स्थानों का परिचय प्राप्त करें । दिल्ली दिल्ली भारत की राजधानी श्राज नहीं, बहुत पुराने जमाने से है। पाण्डवों के जमाने में वह इन्द्रप्रस्थ कहलाती थी । मुसलमानों ने उसे भारत की, दिहली नाम से प्रसिद्ध किया । शाहजहाँ ने उसका नाम जहानाबाद रक्खा | बोलचाल में सब लोग उसे दिल्ली कहते हैं । जैनधर्म का उससे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२) कुतुब की लाट के पास पड़े हुये जैन मन्दिर और मूर्तियों के खण्डहर उसके प्राचीन सम्बन्ध की साक्षी दे रहे हैं । मुसलमान बादशाहों के जमाने में भी जैन धर्म दिल्ली में उन्नतशील हुआ। फीरोजशाह अकबर आदि बादशाहों को जैन गुरुओं ने अहिंसा का उपदेश दिया और उनसे सम्मान पाया। मुस्लिम काल के बने हुए लाल मन्दिर, धर्मपुरा का मन्दिर आदि दिव्य जैन मन्दिर दर्शनीय हैं । कुतुब की लाट, जंत्रमंत्र, वायसराय भवन, कौंसिल हौस, घण्टाघर आदि देखने योग्य स्थान हैं । यहां से मेरठ शहर पहुंचे। हस्तिनापुर (मेरठ) मेरठ एन, डब्ल्यू. रेलवे का मुख्य स्टेशन है ।जैनों की काफी संख्या है कई दर्शनीय जिनमन्दिर हैं । यहां से २२ मील जाकर हस्तिनापुर के दर्शन करना चाहिये । हस्तिनापुर तीर्थ वह स्थान है जहां इस युग के आदि में दानतीर्थ का अवतरण हुआ था-आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव को इक्षुरस का आहार देकर राजा श्रेयांस ने दान की प्रथा चलाई थी। उपरान्त यहां श्री शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ नामक तीन तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक हुए थे । इन तीर्थक्करों ने छै खण्ड पृथ्वी की दिग्विजय करके राजचक्रवर्ती की विभति पाई थी किन्तु उसको तृणवत त्याग कर वह धर्म चक्रवर्ती हुए । यही इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) तीर्थ का महत्व है - त्याग धर्म की वह शिक्षा देता है । श्री मल्लिनाथ भगवान् का समवशरण भी यहाँ आया था। दिल्ली के लाला हरसुखरायजी का बनवाया हुआ एक बहुत बड़ा रमणीक दि० जैन मन्दिर और धर्मशाला है। तीनों भगवानों की प्राचीन नशियां भी हैं, जिनमें चरण चिह्न विराजमान हैं । यहाँ कार्तिकी अष्टानिका पर्व पर मेला और उत्सव होता है । यहाँ ही पास में भसूमा नामक ग्राम में भी दर्शनीय और प्राचीन प्रतिबिम्ब हैं। श्वेताम्बरी मन्दिर भी एक है। यहां से वापस मेरठ आकर और मुरादाबाद जङ्कशन होते हुए अहिक्षेत्र पार्श्वनाथ के दर्शन करने जावें | आंवला स्टेशन ( E.I. B. ) पर उतरे और वहाँ से बैलगाड़ियों में अहिक्षेत्र रामनगर जावें । अहिच्छत्र ( रामनगर) अहिच्छत्र वह प्राचीन स्थान है जहाँ भ० पार्श्वनाथ का शुभागमन हुआ था । जब वह भगवान् अहिच्छत्र के बन में ध्यानमग्न थे, तब धरणेन्द्र और पद्मावती ने आकर उन पर 'नागफण मण्डल' छत्र लगाकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की थी । इस घटना के कारण ही यह स्थान 'अहिच्छत्र' नाम से प्रसिद्ध हो गया और जैनधर्म का केन्द्र बन गया । यहाँ जैनी राजाओं का राज्य रहा है । राजा वसुपाल ने यहाँ एक सुन्दर जिनमन्दिर निर्माण कराया था, जिसमें लेपदार प्रतिमा भ० पार्श्वनाथ की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) विराजमान की थी। आचार्य पात्रकेसरी ने यहीं जैनधर्म की दीक्षा ली थी। जैन धर्मानुयायी प्रसिद्ध गंगवंश के राजाओं के पर्वज सम्भवतः यहीं पर राज्य करते थे । अहिच्छत्र के दर्शन यात्रियों को कृतज्ञता ज्ञापन और सत्य के पक्षपाती बनने की शिक्षा देते हैं। यहां पर कोट के खण्डहरों की खुदाई हुई है, जिनमें ईस्वी प्रथम शताब्दी की जिन प्रतिमाएं निकली हैं। यहां पर विशाल दि० जैन मन्दिर है। चैत में मेला होता है। मथुरा आंवला से अलीगढ़-हाथरस जङ्कशन होते हुए सिद्धक्षेत्र मथुरा आये । यह महान् तीर्थ है । अन्तिम केवली श्री जम्बस्वामी संघ सहित यहां पधारे थे। उनके साथ महामुनि विद्य चर और पांचसौ मुनिगण भी बाहर उद्यान में ध्यान लगा कर बैठे थे । किसी धर्मद्रोही ने उन पर उपसर्ग किया; जिसे समभाव से सह कर वे महामुनि मोक्ष पधारे । उन मुनिराजों के स्मारकरूप यहां पांचसौ स्तूप बने हुए थे, जिन्हें सम्राट अकबर के समय साहु टोडर जी ने फिर से बनवाया था । समय व्यतीत होने पर वह नष्ट हो गये । वहीं पर स्तूप भ० पार्श्वनाथ के समय का बना हुआ था, जिसे 'देवनिर्मित' कहते थे। श्री सोमदेवसूरि ने उसका उल्लेख अपने 'यशस्तिलकचम्पू' में किया है। आजकल चौरासी नामक स्थान पर दि० जैनियों का सुदृढ़ मन्दिर है और वहां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) पर 'ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम' एवं 'श्री दि० जैन संघ" के सुन्दर भवन बन रहे हैं। शहर में छै दि. जैन मन्दिर व धर्मशाला हैं । कर्जन म्यूजियम में कंकालीटीला से निकली हुई जिनप्रतिमा, आयागफ्ट आदि का दर्शनीय संग्रह है। हिन्दुओं का भी पवित्र स्थान है। आगरा मथुरा से आगरा आवे और मोती कटरा की धर्मशाला में ठहरे। यह प्राचीन जैन केन्द्र है । हिन्दी के प्रसिद्ध जैन कविगण पं० बनारसीदासजी इत्यादि का सम्पर्क आगरे से रहा है । यहाँ ३० दि० जैन मन्दिर हैं। रोशन मुहल्ला में श्री शीतलनाथजी का मन्दिर दर्शनीय है । जगत विख्यात ताजमहल और लाल किला देखने योग्य इमारते हैं । यहां संगतराशी और संगमरमर का काम अच्छा होता है । आगे फिरोजाबाद को टॅडला जंक्शन होकर जावे । फिरोजाबाद (चंदावर) फिरोजाबाद कांच की चूड़ियों वगैरह के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ सात दि० जैन मन्दिर व एक धर्मशाला है । श्री पंचायती मन्दिर में हीरा और स्फटिक मणि की प्रतिमायें दर्शनीय है । यहाँ से थोड़ी दूर पर चंदावर नामक प्राचीन स्थान दर्शनीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) इस स्थान का सम्बन्ध भ० चन्द्रप्रभु से बताया जाता है । यहां प्रति वर्ष आश्विन मास में मेला भी होने लगा है । यहां से शिकोहाबाद जावे और स्टेशन से सवारी करके १३ मील बटेश्वरसौरीपुर जावे । बटेश्वर- सौरीपुर सौरीपुर यादववंशी राजा शूरसेन की राजधानी है । यहीं पर भगवान् नेमिनाथजी का जन्म हुआ था | बटेश्वर से एक मील सौरीपुर के प्राचीन मन्दिर दर्शनीय हैं। छत्री में नेमिनाथ भ की चरण पादुकायें हैं। दालान में एक प्रतिमा मूँगा जैसे रंग वाले पाषाण की श्री नेमिनाथ की महामनोहर अतिशययुक्त है । बटेश्वर में एक विशाल सुदृढ़ दि० जैन मन्दिर यहां के भट्टारकों का बनवाया हुआ है, जिसकी नींव जमनाजी में है और जिसमें श्री अजितनाथ भ० की विशालकाय प्रतिमा विराजमान है । कहते हैं कि यहीं से अन्तः कृत केवली धन्य मोक्ष पधारे थे । श्री जगतभूषण आदि भट्टारकों का पट्ट भी यहां रहा है। यहां से वापिस शिकोहाबाद आकर फरुखाबाद का टिकट लेना चाहिये । फरुखाबाद से क़ायमगंज जाना चाहिये, जहाँ स्टेशन से इक्का करके श्री कम्पिला जी के दर्शन करने के लिये जावे । कम्पिला जी (फर्रुखाबाद ) कम्पिलाजी ही प्राचीन काम्पिल्य है, जहां भ० विमल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) नाथजी के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञानकल्याणक हुए थे । यहीं पर सती द्रोपदी का स्वयंबर रचा गया था। हरिषेण चक्रवर्ती ने यहाँ ही जैन रथ निकलवा कर धर्मप्रभावना की थी । भ० महावीर का समवशरण भी यहाँ आया था। किन्तु कम्पिल में इस समय एक भी जैनी नहीं है । परन्तु एक प्राचीन विशाल दि० जैनमंदिर दर्शनीय है जिसमें विमलनाथ भ० की तीन महामनोज्ञ प्रतिमायें विराजमान हैं । एक बड़ी धर्मशाला भी बन गई है। चैत्र मास में और आश्विन कृष्णा २-३ को मेला होता है। यहां से वापस कायमगज आकर कानपुर सेंट्रल स्टेशन का टिकट लेना चाहिये । कम्पिल में चहुंओर खण्डित जिनप्रतिमाय बिखरी पड़ी है, जिनसे प्रकट होता है कि यहां पहिले और भी मन्दिर थे। वर्तमान बडे मन्दिर जी में पहले जमीन में नीचे एक कोठरी में भ० विमलनाथ के चरण चिह्न थे, परन्तु अब वह कोठरी बन्द कर दी गई है और चरण पादुका बाहर विराजमान की गई है। विमलनाथ भ० की मूर्ति अतिशयपूर्ण है। मंदिर और धर्मशाला का जीर्णोद्धार होना आवश्यक है। कानपुर कानपुर कारखानों और व्यापार का मुख्य केन्द्र है। यहां कई दर्शनीय जिनमदिर हैं। यहां से इलाहाबाद जाना चाहिये। इलाहाबाद पफोसाजी इलाहाबाद गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर बसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) हुआ बड़ा नगर है। यही प्राचीन प्रयाग है । यहां किले के अन्दर एक अक्षयवटवृक्ष है। कहते हैं कि तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने उसी के नीचे तप धारण किया था । यहां चार शिखिरवंद दि० जैन मन्दिर हैं और चौक के पास एक धर्मशाला है । मन्दिरों की बनावट मनोहर है और प्रतिमायें भी प्राचीन हैं । इस युग की यह आदि तपोभूमि है और प्रत्येक यात्री को धर्मवीर बनने का संदेश सुनाती है 'सुमेरचंद दि० जैन हौस्टल' में जैन छात्रों को रहने की सुविधा है । विश्वविद्यालय, हाईकोर्ट, किला, संगम आदि स्थान दर्शनीय हैं । हिन्दुओं का भी यह महान् तीर्थ है इलाहाबाद से पफोसाजी के दर्शन करने जाया जाता है अथवा भरवारी स्टेशन से जावे । यह पद्मप्रभु भ० से सम्बन्धित तीर्थ है प्रभासक्षेत्र नामक पहाड़ पर एक प्राचीन मनोज्ञ जिनमन्दिर दर्शनीय है। कौशाम्बी ( कौसम) प्राचीन कौशाम्बी नगर पफोसाजी से ४ मील है यहां पर पद्मप्रभुभ० के गर्भ-जन्म-तप और ज्ञान कल्याणक हुये थे यहां का उदायन राजा प्रसिद्ध था, जिसके समय में यहां जैनधर्म उन्नत शील था । कोसम की खुदाई में प्राचीन जैनकीर्तियाँ मिली हैं गडवाहा ग्राम में मन्दिरजी और प्रतिमाजी बहुत मनोग्य हैं यहां से वापस इलाहाबाद पहुँच कर लखनऊ जावे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) लखनऊ लखनऊ का प्राचीन नाम लक्ष्मणपुर है । स्टेशन के पास श्री मुन्नेलालजी की धर्मशाला है । यहां कुल ६ मन्दिर हैं, जिनके दर्शन करना चाहिये । यहां कई स्थान देखने योग्य हैं । कैसर बाग़ में प्रान्तीय म्यूजियम में कई सौ दिगम्बर जैन मूर्तियों का संग्रह दर्शनीय है । जैनमूर्तियों का ऐसा संग्रह शायद ही अन्यत्र कहीं हो ! लखनऊ से फैजाबाद जावे और जैन धर्मशाला में ठहरे । यहां से ४ मील इक्के या तांगे में अयोध्या जावे । अयोध्या अयोध्या जैनियों का आदि नगर और आदि तीर्थ है । यहीं पर आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेवजी के गर्भ व जन्म कल्याणक हुये थे। यहीं पर उन्होंने कर्मभमि की आदि में सभ्य और सुसंस्कृत जीवन बिताना सिखाया था-मनुष्यों को कर्मवीर बनने का पाठ सबसे पहले यहीं पढ़ाया गयाथा । राजत्व की पुण्यप्रतिष्ठा भी सबसे पहले यहीं हुई थी। गर्ज यह है कि धर्म-कर्म का पुण्यमई लीलाक्षेत्र अयोध्या ही है । इस पुनीत तीर्थ के दर्शन करने से मनुष्य में कर्म वीरता का संचार और त्यागवीरता का भाव जागृत होना चाहिये । केवल ऋषभदेव ही नहीं बल्कि द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथ, चौथे तीर्थङ्कर श्री अभिनन्दननाथ पांचवे तीर्थङ्कर श्री सुमतिनाथजी और १४ वे तीर्थङ्कर श्री अनन्तनाथजी का जन्म भी यहां ही हुआ था । जिन्होंने महान राज-ऐश्वर्य को त्याग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) कर मुनिपद धारण करके जीवों का उपकार किया था । यह सुन्दर तीर्थ अयोध्या सरय नदी के किनारे बसा हुआ है । मु० कटरा में एक जैन धर्मशाला है । पांच दिगम्बर जैन मन्दिर हैं चरणचिन्ह प्राचीन काल के हैं । प्राचीन मन्दिर साहबद्दीन के समय में नष्ट किये जा चुके हैं। वर्तमान मन्दिर संवत् १७८१ में नवाब सुजाउद्दौला के राज्यकाल के बने हुये हैं । यह पांचों मन्दिर क्रमशः सरयकिनारे मुहल्ला सरगद्वारी और उसके पास सुसाटी मुहल्ले तक हैं। श्री अनन्तनाथ और श्री अजितनाथजी के मन्दिर में केवल चरणचिन्ह हैं। रत्नपुरी रत्नपुरी वह पवित्र स्थान है, जहां पर तीर्थङ्कर श्री धर्मनाथजी का जन्म हुआ था । वहां फैजाबाद से जाया जाता है । एक श्वेताम्बरीय मन्दिर में दि० जैन प्रतिमाजी विराजमान हैं । वहां के दर्शन करके फैजाबाद से बनारस जाना चाहिये । त्रिलोकपुर । त्रिलोकपुर अतिशयक्षेत्र बाराबंकी जिले में विन्दौरा स्टेशन से तीन मील दूर है । यहां तीर्थङ्कर भ० नेमिनाथ की तीन फीट ऊंची श्यामवर्ण पाषाण की बड़ी मनोज्ञ पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । वह सं० ११९७ की प्रतिष्ठित है और चमत्कार लिये हुये है। यहां कार्तिक शुक्ला ६ को वार्षिक मेला होता है। बनारस बनारस का प्राचीन नाम वाणारसी है और वह काशी देश की राजधानो रही है । जैनधर्म का प्राचीन केन्द्र स्थान है। सातवें तीर्थङ्कर श्री सुपार्श्वनाथजी और तेईसवें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथजी का लोकोपकारी जन्म यहीं हुआ था । भदैनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) और भेलपुरा में उन तीर्थङ्करों के जन्म स्थान हैं और वहां दर्शनीय मन्दिर बने हुये हैं । इनके अतिरिक्त बलानाले पर एक पंचायती मन्दिर और अन्यत्र तीन चैत्यालय हैं। जौहरीजी के चैत्यालय में हीरा की एक प्रतिमा दर्शनीय है । मैदागिन में भी विशाल धर्मशाला और मन्दिर है। भदैनी पर 'श्री स्याद्वाद महा. विद्यालय' दि० जैनियों का प्रमुख शिक्षा केन्द्र हैं जिसमें उच्चकोटि की संस्कृत और जैन सिद्धान्त की शिक्षा दी जाती है । महाकवि वृन्दावनजी ने यहीं रहकर अपनी काव्य रचना की थी। यहीं पर उनके पिताजी ने अपने साहस को प्रगट करके-धर्मद्रोहियों का मान मर्दन करके-जिन चैत्यालय बनवाया, जिससे धर्मकी विशेष प्रभावना हुई थी। भावक यात्रियों को इस घटना से धर्मप्रभावना का सतत उद्योग करने का पाठ हृदयङ्गम करना चाहिये । बनारस विद्या का केन्द्र है । यहां पर हिन्दुविश्वविद्यालय दर्शनीय संस्था है। क्या ही अच्छा हो कि यहां पर एक उच्चकोटिका जैनकॉलिज स्थापित किया जावे ! यहां के बरतन और जरीका कपड़ा प्रसिद्ध है। यहां से सिंहपुरी ( सारनाथ ) और चद्रपुरी के दर्शन करने के लिये जाना चाहिये । सिंहपुरी मा OPI सिंहपुरी बनारस से ५ मील दूर है । वहां श्री श्रेयांसनाथ भ० का जन्म हुआ था । एक विशाल जिनमन्दिर है, जिसमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) श्रेयांसनाथजी की मनोहर प्रतिमा विराजमान है सारनाथ के अजायबघर में यहां की खुदाई में निकली हुई प्राचीन दि० जैन मूर्तियां भी दर्शनीय हैं। अशोक का स्थंभ मन्दिरजी के सामने ही खड़ा है। पास मेंही बौद्धोंके विहार दर्शनीय बने हैं जैनधर्मप्रचार के लिये यहां एक उपयोगी पुस्तकालय स्थापित किया जाना आवश्यक है। यहां से चंद्रपुरी जावे । चंद्रपुरी गंगा किनारे बसा हुआ एक छोटा सा गांव प्राचीन चन्द्रपुरी की याद दिलाता है । यही गंगा किनारे सुदृढ़ और मनोहर दि० जैन मन्दिर और धर्मशाला बनी हुई है। यहीं चंद्रप्रभ भ० का जन्म हुआ था । स्थान अत्यन्त रमणीक है। उसी मोटर से बनारस आवे और वहां से सीधा आरा जावे । किन्तु जो यात्रीगण श्रावस्ती और कहाऊं गांव के दर्शन करना चाहें, उन्हें लखनऊ से गोरखपुर जाना चाहिये। किष्किन्धापुर वर्तमान का खूरबंदोपाम प्राचीन किष्किन्धापुर अथवा काकंदीनगर है । यहां पुष्पदन्तस्वामी के गर्भ, जन्म कल्याणक हुए हैं और उन्हीं के नाम का एक मंदिर है। गोरखपुर से यहाँ पाया जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) कुकुमग्राम कुकुमग्राम अब कहाऊं गांव नाम से प्रसिद्ध है । गोरखपुर से वह ४६ मील की दूरी पर है । गुप्तकाल में यहां अनेक दर्शनीय जिनमन्दिर बनाये गये थे, जो अब खंडहर की हालत में पड़े हैं । उनमें से एक में पार्श्वनाथजी की प्रतिमा अब भी विराजमान है ग्राम में उत्तरकी ओर एक मानस्थम्भ दर्शनीय है, जिसपर तीर्थङ्करों की दिगम्बर प्रतिमायें अङ्कित हैं । इसे सम्राट चंद्रगुप्त के समय में मद्र नामक ब्राह्मण ने निर्माण कराया था इस अतिशययुक्त स्थान का जीर्णोद्धार होना चाहिये । श्रावस्ती ( सहेठ महेठ) गोंडा जिले के अन्तर्गत बलरामपुर से पश्चिम १२ मील पर सहेठ महेठ प्राम ही प्राचीन श्रावस्ती है। यहां तीसरे तीर्थङ्कर संभवनाथजी का जन्म हुआ था । इसीलिये इस तीर्थ का जीर्णोद्धार होना चाहिये । यहां खुदाई में अनेक जिनमूर्तियां निकली हैं, जो लखनऊ के अजायबघर में मौजूद हैं । यहां का सुहृदध्वज नामक राजा जैनधर्मानुयायी था । उसने सैयदसालार को युद्ध में परास्त करके मुसलमानों के आक्रमण को निष्फल किया था । प्रारा आरा विहार प्रान्त का मुख्य नगर है । चौक बाजार में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) बा० हरप्रसाद के धर्मशाला में ठहरना चाहिये । इस धर्मशाला के पास एक जिनचैत्यालय है, जिसमें सोने और चांदी की प्रतिमायें दर्शनीय हैं। अपने प्राचीन मनोज्ञ मन्दिरों के कारण ही यह स्थान प्रसिद्ध है । यहाँ १४ शिखिरबंद मन्दिर और १३ चैत्यालय हैं । एक शिखिर बंद मन्दिर शहर से ८ मील की दूरी पर मसाढ़ ग्राम में है और दो मन्दिर शिखिरबंद धनुपुरा में शहर से दो मील दूर हैं । यहीं पर धर्मकुंज में श्रीमती पं० चंदाबाई द्वारा संस्थापित "जैन महिलाश्रम" है, जिसमें दूर-दूर से आकर महिलायें शिक्षा ग्रहण करके योग्य विदुषी बनती हैं। वहीं एक कृत्रिम पहाड़ी पर श्री बाहुबलि भगवान् की ११ फीट ऊंची खड्गासन प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर है । यहीं के एक मन्दिर में दि० जैन मुनिसंघ पर अग्निउपसर्ग हुआ था— अग्नि की ज्वालाओं में शरीर भस्मीभूति होते हुये भी मुनिराज शान्त और वीरभाव से उसे सहन करते रहे थे । जैन धर्म की यह वीरतापूर्णा सहनशीलता अद्वितीय है । वह पुरुषों में क्या ? महिलाओं - अबलाओं में भी वह आत्मबल प्रगट करता है कि धर्ममार्ग में अद्भुत साहस के कार्य प्रसन्नता से करजाती हैं । आरा जैनधर्म के इस वीरभाव का स्मरण दिलाता है। यहाँ चौक में श्रीमान् स्व० बाब देवकुमारजी द्वारा स्थापित 'श्रीजैन सिद्धान्तभवन' नामक संस्था जैनियों में अद्वितीय है। यहां प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों का अच्छा संग्रह है, जिनमें कई कलापूर्ण सचित्र और दर्शनीय हैं | आरा से पटना ( गुलजार बाग़ ) जाना T Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) चाहिये। पटना पटना मौर्यो की प्राचीन राजधानी पाटलिपुत्र है । जैनियों का सिद्धक्षेत्र है । सेठ सुदर्शन ने वीर भाव प्रदर्शित करके यहीं से मोक्ष प्राप्त किया था। सुरसुन्दरी सदृश अभयारानी के काम-कलापों के सन्मुख सेठ सुदर्शन अटल रहे थे। आखिर वह मुनि हुये और मोक्ष गये । स्टेशन के पास ही एक टेकरी पर चरणपादुकायें विराजमान हैं, जो यात्री को शीलवती बनने के लिये उत्साहित करती हैं। वहीं पास में एक जैन मन्दिर और धर्मशाला है। शिशुनागवंश के राजा अजातशत्रु, श्री इन्द्रभूति और सुधर्माचार्यजी के निकट जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। उनके पौते उदयन ने पाटलिपुत्र राजनगर बसाया था और सुन्दर जिन मन्दिर निर्माण कराये थे। यनानियों ने इस नगर की खूब प्रशंसा की थी । मौर्यकाल की दिगम्बर जैन-प्रतिमायें यहाँ भूगर्भ से निकलती हैं। वैसी दो प्रतिमायें पटना अजायबघर में मौजूद हैं । दि० जैनियों के यहाँ ५ मन्दिर व एक चैत्यालय है । जैनधर्म का सम्पर्क पटना से अति प्राचीनकाल का है यहाँ से बिहार जाना चाहिये, जहाँ एक दि० जैन मन्दिर में दर्शनीय जिनबिम्ब हैं। वहाँ से बड़गांव रोड पर जाकर उतरे । स्टेशन से धर्मशाला २॥ मील दूर है। राज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) कुण्डलपुर कहते हैं कि यह कुण्डलपुर अन्तिम तीर्थङ्कर भ० महावीर का जन्मस्थान है, परंतु इतिहासज्ञ विद्वानों का मत है कि मुजफ्फरनगर जिले का बसाढ़ नामक स्थान प्राचीन कुण्डग्राम है, जहां भगवान् का जन्म हुआ था । यह स्थान प्राचीन नालन्दा है; जहां पर भ० महावीर का सुखद बिहार हुआ था । यहाँ एक दि० जैन मंदिर में भ० महावीर की अति मनोहर दर्शनीय प्रतिमा है इस स्थान पर ज़मीन के अन्दर से एक विशाल नगर और जिनमूर्तियां निकली हैं, जो देखने योग्य हैं । यहाँ से राजगृह जाना चाहिये । राजगृह - पंचशैल (पंचपहाड़ी) राजगृह नगर भ० महावीर के समय में अत्यंत समुन्नत और विशाल नगर था । शिशुनागवंशी सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार की वह राजधानी था । भ० महावीर के सम्राट् श्रेणिक अनन्य भक्त थे; जब २ भ० महावीर का समोशरण राजगृह के निकट अवस्थित बिलाचल पर्वत पर आया तब २ वह उनकी वन्दना करने गये । उन्होंने वहाँ कई जिनमंदिर बनवाये । वहाँ पर दि० जैन मुनिसंघ प्राचीन काल से विद्यमान था । सम्राट् श्रेणिक के समय की मूर्तियां और कीर्तियां यहाँ से उपलब्ध हुईं हैं, जिनमें से किन्हीं पर उनका नाम भी लिखा यह राजगृहनगर प्राचीनकाल से जैनधर्म का 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat हुआ है । निस्सन्देह केन्द्र रहा है भ० www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) महावीर का धर्मचक्र प्रवर्तन मुख्यतया इसी पवित्र स्थान से हुआ था-यहीं पर अनादिमिथ्यादृष्टियों के पापमल को धोकर जिनेन्द्रवीर ने उन्हें अपने शासन का अनुयायी बनाया था । श्रेणिक-सा शिकारी राजा और कालसौकरि-पुत्र जैसा कसाई का लड़का भगवान की शरण में आये थे और जैन धर्म के अनन्य उपासक हुये थे। उनका आदर्श यही कहता है कि जैनधर्म का प्रचार दुनियां के कोने-कोने में हर जाति और मनुष्य में करो ! किन्तु राजगह भ० महावीर से पहले ही जैन धर्म के संसर्ग में आचुका था । इक्कीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथजी का जन्म यहीं हुआ था यहीं उन्होंने तप किया था और नीलवनके चंपकवृक्ष के तले वह केवलज्ञानी हुये थे । मुनिराज धनदत्तादि यहाँ से मुक्त हुये और महावीर के कई गणधर भ० भी इस स्थान से मोक्ष गये थे । अन्तिमकेवली जम्बकुमार भी यहीं से मुक्त हुये थे यही वह पवित्रस्थान है जहाँ से इस युग में सर्व अन्तिम सिद्धत्व प्राप्त किया गया। तीर्थरूप में राजगृह की प्रसिद्धि भ० महावीरें सें पहली की है सोपारा (सूरत के निकट) से एक आर्यिका संघ यहाँकी बन्दना करने ईसाकी प्रारंभिक अथवा पूर्वीय शताब्दियों में आया था । धीवरी पृतिगंधा भी उस संघ में थी। वहें क्षुल्लिका हो गई थी और यहीं नीलगुफामें उन्होंने समाधिमरण किया था निस्सन्देह यह स्थान पतितोद्धारक है और बहुत ही रमणीक है यहां कई कुडों में निर्मल जल भरा रहता है, जिनमें नहाकर पंच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) I पहाड़ों की वन्दना करना चाहिये सबसे पहले विपुलाचल पर्वत आता है, जिस पर चार जिन मंदिर और दो चरणपादुकायें हैं । भ० मुनिसुव्रतनाथ के चार कल्याणक का स्मारक इसी पर्वत पर नया एक मन्दिर है | यहाँ से दूसरे रत्नागिरि पर्वत पर जाना चाहिये, जिस पर एक मन्दिर और मुनिसुव्रतनाथादि तीर्थंकरों के चरणचिन्ह हैं । उपरान्त उदयागिरि पर जाना चाहिये यह पर्वत बहुत ही उत्तम और मनोहर है । इस पर दो मंदिर और दो चरणपादुकायें हैं । इन मन्दिरों की कारीगरी देखने योग्य है यहाँ से तलैटी में होकर चौथे श्रमणागिरी पर जावे, जहाँ पर दो मंदिर और एक चरणचिन्ह हैं । अन्तिम पर्वत वैभारगिरि है, जिस पर पाँच मंदिर बने हुये हैं इन सब मंदिरों के दर्शन करके यहाँ से एक मील दूर गणधर भ० के चरणों की वदना करने जावे । पहाड़ की तलहटी में सम्राट् श्रेणिक के महलों के निशान पाये जाते हैं । उन्होंने राजगृहनगर अतीव सुन्दर निर्माण कराया था । यहाँ से १२ मील पावापुर बैलगाड़ी में जावें । पावापुर पावापुर अन्तिम तीर्थङ्कर भ० महावीर का निर्वाणधाम है अतः महापवित्र और पूज्य तीर्थस्थान है । इसका प्राचीन नाम पापापुर (पुण्यभूमि ) था यहां पास में मल्ल - राजतंत्रका प्रमुखनगर हस्तिग्राम था । भ० महावीर ने यहीं पर योग साध और शेष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) अवातिया कर्मों को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त किया था उनका यह मन्दिर 'जलमन्दिर' कहलाता है और तालाबके बीच में खड़ा हुआ अति सुन्दर लगता है । इसमें भ० महावीर, गौतम स्वामी और सुधर्मस्वामी के चरण चिन्ह हैं । इसके अतिरिक्त ३-४ दि० मंदिर और हैं । इन सबके दर्शन करके यहाँ से १३ मील दूर गुणावा तीर्थ जाना चाहिये। गुणावा कहा जाता है कि गणावा वह पवित्र स्थान है जहाँ से इन्द्रभूति गौतमगणधर मुक्त हुये थे । यहाँ का मन्दिर भी तालाब के मध्य बना हुआ सुहावना लगता है। मंदिर में तीर्थङ्करों के चरण हैं यहाँ से शामील नवादा स्टेशन (E. I. B.) को जाना चाहिये, जहां से नाथनगर का टिकिट लेवे । नाथनगर नाथनग स्टेशन से प्राधा मील दूर धर्मशाला में ठहरे । यह प्राचीन चम्पापुरनगर है; जहाँ तीर्थङ्कर वासुपूज्य स्वामी के पांचोंकल्याणक हुये थे। यहीं प्रख्यात् हरिवंश की स्थापना हुई थी, यही नगर गंगा तटपर बसा हुआ था, जहाँ धर्मघोष मुनि ने समाधिमरण किया था। गंगा नदी के एक नाले पर जिसका नाम चम्पानाला है, एक प्राचीन जिनमन्दिर दर्शनीय है । नाथनगर के दो मन्दिर दि० जैनियों के हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) भागलपुर नाथनगर के नजदीक भागलपुर एक मुख्य नगर है। कई दर्शनीय जिनमंदिर हैं । भागलपुरी टसरी कपड़ा अच्छा मिलता है । यहाँ से मंदारगिरि को जावे। मंदारगिरि गाँव में धर्मशाला व चैत्यालय है । वहाँ से १ मील दूर मंदारगिरि पर्वत है श्री वासुपूज्य भगवान् का मोक्षकल्याणक स्थान यही है। पर्वत पर दो प्राचीन शिखिरबंद मंदिर हैं । स्थान रमणीक है । वापस भागलपुर आकर गया का टिकिट लेवे। गया ( कुलुहा पहाड़) स्टेशन से २॥ मील दूर जैन धर्मशाला में ठहरे । यह बौद्धों और हिन्दुओं का तीर्थ है । दो जिनमंदिर भी हैं। यहाँ से ३८ मील के फासले पर कुलुहारहाड़ है, जिसे "जैनीपहाड़" नामसे पुकारते हैं। कहते हैं कि श्री शीतलनाथ भ० ने इस पर्वत पर तपश्चरण किया था। प्राचीन प्रतिमायें दर्शनीय हैं; परन्तु रास्ता खराब है। गया से ईसरी ( पारसनाथहिल ) स्टेशन उतरे; जहां धर्मशाला में ठहरे । यहाँ से सम्मेदशिखिर पर्वत दिखाई पड़ता है । गाडी या मोटर सर्विस से पहाड़ की तलहटी मधुवन में पहुँच जावे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) मधुवन (सम्मेदशिखिर पर्वत) मधुवन में तेरापंथी और बीसपंथी कोठियों के आधीन ठहरने के लिये कई धर्मशालायें हैं । दि० जैनमंदिर भी अनेक हैं, जिनकी रचना सुन्दर और दर्शनीय है । बाजार में सब प्रकार का जरूरी सामान मिलता है। पहले मधुवन को 'मधुरवनम्' कहते थे। सम्मेदाचल वह महापवित्र तथा अत्यन्त प्राचीन सिद्धक्षेत्र है, जिसकी बन्दना करना प्रत्येक जैनी अपना अहोभाग्य समझता है । अनन्तानन्त मुनिगण यहाँ से मुक्त हुए हैं- अनन्त तीर्थङ्कर भगवान् अपनी अमृतवाणी और दिव्यदर्शन से इस तीर्थको पवित्र बनाचुके हैं । इस युगके ऋषभादि बीसतीर्थङ्कर भ० भी यहीं से मोक्ष पधारे थे । मधुकैटभ जैसे दुराचारी प्राणी भी यहाँ के पतित पावन वातावरण में आकर पवित्र होगये । यहीं से वे स्वर्ग सिधारे । निस्सन्देह इस तीर्थराज की महिमा अपार है। इन्द्रादिकदेव उसकी बंदना करके ही अपना जीवन सफल हुआ समझते हैं । क्षेत्र का प्रभाव इतना प्रबल है कि यदि कोई भव्य जीव इस तीर्थ की यात्रा वंदना भावसहित करे तो उसे पूरे पचास भव भी धारण नहीं करने पड़ते, बल्कि ४६ भवों में ही वह संसार भ्रमण से छूटकर मोक्ष लक्ष्मी का अधिकारी होता है। पं० द्यानतरायजी ने तो यहाँ तक कहा है कि: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) "एक बार वंदे जो कोई । ताहि नरक पशुगति नहीं होई॥" इस गिरिराज की वंदना करने से परिणामों में निर्मलता होती है, जिससे कर्मबंध कम होता है-आत्मा में वह पुनीत संस्कार अत्यन्त प्रभावशाली होजाता है कि जिससे पापपंकज में वह गहरा फंसता ही नहीं है । दिनोंदिन परिणामों की विशुद्धि होने से 'एक दिन वह प्रबल पौरुष प्रगट होता है, जो उसे आत्मस्वातंत्र्य अर्थात् मुक्ति नसीब कराता है ! सम्मेदाचलकी वंदना करते समय इस धर्म सिद्धान्त का ध्यान रक्खें और बीस तीर्थङ्करों के जीवन चरित्र और गणों में अपना मन लगाये रक्खें ! इस सिद्धाचल पर देवेन्द्र ने आकर जिनेन्द्र भगवान की निर्वाणभमियां चिन्हित करदी थीं-उन स्थानों पर सुन्दर शिखिरे चरणचिन्हसहित निर्माण की गई थी । कहते हैं कि सम्राट् श्रेणिक के समय में वे अतीव जीर्णशीर्ण अवस्था में थी; यह देखकर उन्होंने स्वयं उनका जीर्णोद्धार कराया और भव्य टोंके निर्माण करादी । कालदोष से वे भी नष्ट होगई; जिस पर अनेक भव्य दानवीरों ने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग उनके जीर्णोद्धार में लगाकर किया । सं० १६१६ में यहाँ पर दि० जैनियों का एक महान् जिनबिम्व प्रतिष्ठोत्सव हुआ था । पहले पालगंज के राजा इस तीर्थ की देखभाल रखते थे। उपरान्त दि० जैनों का यहाँ जोर हुआ-किन्तु मुसलमानों के आक्रमण में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) यहां का मुख्य मंदिर नष्ट हो गया । तब एक स्थानीय जमीदार पार्श्वनाथजी की प्रतिमा को अपने घर उठा ले गया और यात्रियों से कर वसूल करके दर्शन कराता था । सन् १८२० में कर्नल मैकेज्जी सा० ने अपनी आंखोंसे यह दृश्य देखा था । पर्याप्त यात्रियों इकट्ठे होने पर राजा कर वसूल करके दर्शन कराता था । जो कुछ भेंट चढती वह सब राजा ले लेता था। पार्श्वनाथ की टोंक वाले मंदिर में दिगम्बर जैन प्रतिमा ही प्राचीनकाल से रही हैं । “ image of Parsvanath to represent the saint sitting naked in the attitude of meditation," — E. E. Risley; "Statisticial Aott. of Behgal XVI, 207 ff. अब दिगम्बर और श्वेताम्बर - दोनों ही सम्प्रदायों के जैनी इस तीर्थ को पूजते और मानते है । • । ऊपरली कोठी से ही पर्वत - वंदना का मार्ग प्रारम्भ होता है । मार्ग में लंगड़े - लूले - अपाहिज मिलते हैं, जिनको देने के लिये पैसे साथ में ले लेना चाहिये । वंदना प्रातः ३ बजे से प्रारम्भ करना चाहिए। दो मील चढ़ाई चढ़ने पर गंधर्वनाला पड़ता है । फिर एक मील आगे ऊपर चढ़ने पर दो मार्ग हो जाते हैं। बांई तरफ का मार्ग पकड़ना चाहिये, क्योंकि वही सीतानाला होकर गौतमस्वामी की टोंकों को भी गया है। दूसरा रास्ता पार्श्वनाथ जी की टोंक से आता है । सीतानाला में पूजा की सामग्री धोलेना चाहिये । यहाँ से एक मील तक पक्की सीढ़िया हैं फिर एक मील Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) कच्ची सड़क हैं । कुल छै मील की चढ़ाई है । पहले गौतमस्वामी की टोंककी वंदना करके बांये हाथ की तरफ वंदना करने जावे। दसवीं श्री चन्द्रप्रभुजीकी टोंक बहुत ऊंची है। श्रीअभिनन्दननाथ जी की टोंकसे उतरकर तलहटी में जलमंदिर में जाते हैं और फिर गौतमस्वामी की टोंक पर पहुँच कर पश्चिम दिशा की ओर वंदना करना चाहिये । अन्त में भ० पार्श्वनाथ की स्वर्णभद्र-टोंक पर पहुँच जावे । यह टोंक सबसे ऊंची है और यहांका प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही सुहावना है। वहां पहुँचते ही यात्री अपनी थकावट भूल जाता है और जिनेन्द्र पार्थ की मनोहर प्रतिमा के दर्शन करते ही आत्माल्हाद में निमग्न होजाता है । यहाँ विश्राम करके दर्शनपूजन और सामायिक करके लौटना चाहिये। रास्ते में बीसपंथी कोठीकी ओर से जलपानका प्रबन्ध है । पर्वत समुद्रतटसे ४४८० फीट ऊंचा है। इस पर्वतराज का प्रभाव अचिंत्य है -कुछ भी थकावट नहीं मालम होती है । नीचे मधुवन में लौटकर वहाँ के मंदिरों के दर्शन करके भोजनादि करना चाहिये । मनुष्य जन्म पाने की सार्थकता तीर्थयात्रा करने में है और सम्मेदाचल की वंदना करके मनुष्य कृतार्थ होजाता है। यहाँकी यात्रा करके वापस ईश्वरी (पारसनाथ) स्टेशन आवे और हावड़ा का टिकिट लेकर कलकत्ता पहुँचे । कलकत्ता कलकत्ता बंगाल की राजधानी और भारत का खास शहर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) है। स्टेशनसे एक मीलकी दूरी पर श्री दि० जैन भवन (धर्मशाला) सुन्दर और शहर के मध्य है। इसके पास ही कलकत्ते का मुख्य बाजार हरिसन रोड है। तहाँ (१) चावल पट्टी (२) पुरानी वाड़ी (३) लोअर चितपुर रोड (४) वेल गाछिया में दर्शनीय दि० जैन मंदिर हैं। राय बद्रीदासजी का श्वे. मंदिर भी अच्छी कारीगरी का है । कलकत्ते में कार्तिक सुदी १५ को दोनों सम्प्रदायों को बड़ा भारी रथोत्सव होता है। अजायबघर में जैनमर्तियाँ दर्शनीय हैं। खेद है कि यहाँ पर जैनियों की कोई प्रमुख सार्वजनिक संस्था नहीं है, जिससे जैनधर्म की वास्तविक प्रभावना हो । यहाँ के देखने योग्य स्थान होशियारी से देखकर उदयदिरि-खंडगिरि जावे, जिसके लिए भुवनेश्वर का टिकिट लेवे। खंडगिरि-उदयगिरि भवनेश्वर से पांच मील पश्चिम की ओर उदयगिरि और खंडगिरि नामक दो पहाड़ियाँ हैं । रास्ते में भुवनेश्वर गांव पड़ता है, जिसमें एक विशाल शिवालय दर्शनीय है। मार्ग में घनेवृक्षों का जंगल है। इन पहाड़ियों के बीच में एक तंग घाटी है । यहाँ पत्थर काटकर बहुत सी गुफायें और मन्दिर बनाये गये हैं, जो ईस्वी सन् से करीब डेढ सौ वर्ष पहले से पाँचसौ वर्ष बाद तकके बने हुये हैं । यह स्थान अत्यन्त प्राचीन और महत्वपूर्ण है । 'उदयगिरि--पहाड़ी का प्राचीन नाम कुमारी-पर्वत है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) इस पर्वत पर से ही भगवान महावीर ने आकर ओड़ीसा निवासियों को अपनी अमतवाणी का रस पिलाया था । अन्तिम तीर्थंकर का समवशरण आने के कारण यह स्थान अतिशयक्षेत्र है । उदयगिरि ११० फीट ऊंचा है। इसके कटिस्थान में पत्थरों को काटकर कई गुफायें और मंदिर बनाये गये हैं । पहले 'अलकापुरी' गुफा मिलती है, जिसके द्वार पर हाथियों के चिन्ह बने हैं, फिर 'जयविजय' गुफा है, उसके द्वार पर इन्द्र बने हैं आगे 'रानीनद' नामक गुफा है, जो दो खन की है। इस गुफामें नीचे ऊपर बहुत-सी ध्यानयोग्य अंतर गुफाये हैं । आगे चलने पर 'गणेशगुफा' मिलती है, जिसके बाहर पाषाणके दो बड़े हाथी बने हुये हैं । यहाँसे लौटनेपर 'स्वर्गगुफा'-'मध्यगुफा और 'पातालगुफा नामक गुफायें मिलती हैं । इन गुफाओं में चित्र भी बने हुये हैं और तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी हैं। पातालगुफा के ऊपर 'हाथीगुफा' १५ गज पश्चिमोत्तर है। यह वही प्रमुखगुफा है जो जैन सम्राट् खारवेल के शिलालेख के कारण प्रसिद्ध है । खारवेल कलिंग देश के चक्रवर्ती राजा थे-उन्होंने भारतवर्ष की दिग्विजय की थी और मगध के राजा वृहस्पतिमित्र को परास्त करके वह छत्र-भृङ्गारादि चीज़ों के साथ 'कलिङ्ग जिन ऋषभदेव' की वह प्राचीन मूर्ति वापस कलिङ्ग लाये थे, जिसे नन्द सम्राट् पाटलिपुत्र लेगये थे। इस प्राचीन मूर्ति को सम्राट् खारवेल ने कुमारी पर्वतपर अर्हतप्रासाद बनवाकर विराजमान किया था । उन्होंने स्वयं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) एवं उनकी रानी ने इस पर्वत पर कई जिन मन्दिर-जिनमूर्तियां गुफा और स्तम्भ निर्माण कराये थे और कई धर्मोत्सव किये थे। यहां की सब मूर्तियां दिगम्बर हैं । सम्राट् खारवेल के समय से पहले ही यहां निर्ग्रन्थ श्रमण संघ विद्यमान था । निर्ग्रन्थ (दिग०) मुनिगण इन गुफाओं में रहते और तपस्या करते थे। स्वयं सम्राट् खारवेल ने इस पर्वत पर रह कर धार्मिक यम-नियमों का पालन किया था। उनके समय में अंग-ज्ञान विक्षिप्त हो चला था। उसके उद्धार के लिये उन्होंने मथरा. गिरिनगर और उज्जैनी आदि जैनी केन्द्रों के निर्ग्रन्थाचार्यों को संघ सहित निमन्त्रित किया था । निर्ग्रन्थ श्रणम संघ यहाँ एकत्र हुआ और उपलब्ध द्वादशाङ्गवाणी के उद्धार का प्रशंसनीय उद्योग किया था । इन कारणों की अपेक्षा कुमारी पर्वत एक महा पवित्र तीर्थ है और पुकार-पुकार कर यही बताता है कि जैनियों ! जिनवाणी की रक्षा और उद्धार के लिये सदा प्रयत्नशील रहो। खएडगिरि पर्वत १३३ फीट ऊंचा घने पेड़ों से लदा हुआ है । खड़ी सीढ़ियों से ऊपर जाया जाता है । सीड़ियों के सामने ही 'खंडगिरिगुफा' है, जिसके नीचे ऊपर ५ गफायें और बनी हैं 'अनन्तगुफा' में १॥ हाथ की कायोत्सर्ग जिन प्रतिमा विराजमान है । पर्वत की शिखिर पर एक छोटा और एक बड़ा दिगन्वर जैन मन्दिर है । छोटा मन्दिर हाल का बना हुआ है। परन्तु उसमें एक प्राचीन प्रतिमा प्रातिहार्य युक्त विराजमान है । बड़ा मन्दिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) प्राचीन और दो शिखिरों वाला है । इस मन्दिर को करीब २०० वर्ष पहले कटक के सुप्रसिद्ध दिग० जैन श्रावक स्व० चौधरी मंजलाल परवार ने निर्माण कराया था; परन्तु इस मन्दिर से भी प्राचीन काल की जिन प्रतिमाये विराजमान हैं । मन्दिर के पीछे की ओर सैंकड़ों भग्नावशेष पाषाणादि पड़े हैं। जिनमें चार प्रतिमायें नन्दीश्वर की बताई जाती थीं। इस स्थान को 'देव सभा' कहते हैं । 'आकाश गंगा' नामक जल से भरा कुण्ड है। इसमें मुनियों के ध्यान योग्य गुफायें हैं । आगे 'गुप्तगंगा'-'श्यामकुण्ड' और राधाकुण्ड' नामक कुण्ड बने हुए हैं। फिर राजा इन्द्रकेसरी की गुफा है, जिसमें आठ दिजैन खड्गासन प्रतिमायें अङ्कित हैं। उपरान्त २४ तीर्थङ्करों की दिग० प्रतिमाओं वाली आदिनाथ गुफा है। अन्ततः बारहभुजी गुफा मिलती है, जिसमें भी २४ जिन प्रतिमायें यक्षिणी की मूर्तियों सहित हैं । इन सब की दर्शनपूजा करके यात्रियों को भुवनेश्वर स्टेशन लौट आना चाहिये । इच्छा हो तो पुरी जाकर समुद्र का दृश्य देखना चाहिये । पुरी हिन्दुओं का खास तीर्थ है । जगन्नाथजी के मन्दिर के दक्षिण द्वार पर श्री आदिनाथजी की प्रतिमा मनोहर ही है। वहां से खुरदारोड होकर मद्रास का टिकिट लेना चाहिये । बीच में कोहन तीर्थस्थान वहीं है । किराया १६) है। मदरास मद्रास वाणिज्य-व्यापार और शिक्षा का मुख्य केन्द्र है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) एक बड़ा बंदरगाह है। एक दिग. जैनमंदिर और चैत्यालय है अब तक दि० जैनधर्मशाला भी बन गया है । यहाँ के अजायबघर में अनेक दर्शनीय प्रतिमायें हैं। विक्टोरिया पबलिकहाल में काले पाषाण की श्री गोम्मटस्वामी की कायोत्सर्ग प्रतिमा अतिमनोहर है। मदरास के आसपास जैनियों के प्राचीन स्थान विखरे पड़े हैं । प्राचीन मैलापूर समुद्र में डब गया है और उसकी प्राचीन प्रतिमा, जो श्री नेमिनाथ की थी, वह चिताम्बर में विराजमान है। उसके दर्शन करना चाहिये । यही वह स्थान है जहाँ पर तामिल के प्रसिद्ध नीति-ग्रन्थ 'कुर्सल' के रचयिता रहते थे । कहते हैं कि वह ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य की रचना है। पुलहल भी एक समय जैनियों का गढ़ था | कुरुम्बजाति के अर्द्धसभ्य मनुष्यों को एक जैनाचार्य ने जैनधर्म में दीक्षित किया था और वह अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुये थे । कुरुम्बाधिराज की राजधानी पुलल थी । वहाँ पर एक मनोहर ऊँचा जिनमंदिर बना हुआ था । मद्रास से १० मील की दूरी पर श्री क्षेत्र पुम्कुल मायावरम् के मंदिर दर्शन करने योग्य हैं । पौनेरी प्राम में एक पर्णकुटिका में श्री वर्द्धमान स्वामी की प्रतिमा काले पत्थर की कायोत्सर्ग जमीन से मिली हुई विराजमान है । वह भी दर्शनीय है । राज़ यह कि मदरासका क्षेत्र प्राचीनकालसे जैन-धर्म का केन्द्र रहा है। आज इस शहर में जैनधर्मके प्रभावको बतलाने वाला एक बड़ा पुस्तकालय बहुत जरूरी है। यहाँ से कांजीवरम् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) जो प्राचीन कांची है और जहां पर अकलङ्कस्वामी ने बौद्धों को राजसभा में परास्त किया था, होता हुआ पोन्नूर जाये। पोन्नूर-तिरुमलय पोन्नर ग्राम से ६ मील दूर तिरुमलय पर्वत है । वह ३५० गज़ ऊंचा है। सौ गज़ ऊपर सीड़ियों से चढ़ने पर चार मंदिर मिलते हैं, जिनके आगे एक गुफा है । उस गुफा में भी दो दर्शनीय बड़ी २ जिनप्रतिमा हैं। श्री आदिनाथजीके मुख्य गणधर वृषभसेन की चरणपादुका भी हैं; जिनको सब लोग पूजते हैं। गफा में चित्रकलाभी दर्शनीय है। गफा के पर्वतकी चोटीपर तीन मंदिर और हैं। यहां के शिलालेखों से प्रगट है कि बड़े २ राजामहाराजाओं ने यहाँ जिनमंदिर बनवाये थे और ऋषिगण यहाँ तपस्या करते थे। यहां के 'कुदवई' जिनालय को सूर्यवंशी राजराज महाराजा की पुत्री अथवा पांचवें चालुका राजा विमलादित्य की बड़ी बहन ने बनवाया था । श्री परवादिमल्ल के शिष्य श्री अरिष्टनेमिआचार्य थे, जिन्होंने एक यक्षिणी की मूर्ति निर्माण कराई थी । इस प्रकार यह तीर्थ अपनी विशेषता रखता है। पोन्नर से वापस मद्रास आवे; जहां से बेंगलोर जावे । बैंगलोर रियासत मैसूर की नई राजधानी और सुन्दर नगर है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) I दि० जैनमंदिर में ६ प्रतिमायें बड़ी मनोज्ञ हैं । धर्मशाला भी है । यहाँ कई दर्शनीय स्थान हैं । यहाँ से आरसीकेरी जाना चाहिये । आरसीकेरी आरसीकेरी प्राचीन जैनकेन्द्र है । होयसल राजाओं के समय में यहाँ कई सुन्दर जिनमंदिर बने थे. जिन में से सहस्त्रकूट जिनालय टूटी फूटी हालत में है । उसमें संगतराशी का काम अि मनोहर है। जैनमंदिर में एक प्रतिमा धातुमयी गोम्मटस्वामी की महा मनोज्ञ प्रभायुक्त है । इस ओर जैनमंदिर को 'बसती' कहते हैं । यहाँ से श्रवणबेलगोल (जैनबद्री) के लिये मोटर-लारी जाती हैं । कोई २ यात्री हासन स्टेशन से जैनबद्री जाते हैं । लारी का किराया बराबर है । हम आरसीकेरी से गये थे । श्रवणबेलगोल (जैन बद्री) श्रवणबेलगोल जैनियों का अतिप्राचीन और मनोहर तीर्थ है इसे उत्तर भारतवासी 'जैनबद्री' कहते हैं । यह 'जैनकाशी' और 'गोम्मटतीर्थ' नामों से भी प्रसिद्ध रहा है । यह अतिशय क्षेत्र रियासत मैसूर के हासन जिले में चन्द्ररायपट्टन नगर से है मील है । यहीं पर श्री बाहुबलि स्वामी की ५७ फीट ऊंची अद्वितीय विशालकाय प्रतिमा है; जिसके समान संसार में और कोई प्रतिमा नहीं है । विदेशों से भी यात्री उनके दर्शन करने 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आते हैं । स्टेशन से आने पर लगभग १०-१२ मील दूरसे ही इस दिव्य-मूर्ति के दर्शन होते हैं । दृष्टि पड़ते ही यात्री अपूर्वशान्ति अनुभव करता है और अपना जीवन सफल हुआ मानता है । हम रात्रि में श्रवणवेल्गोल पहुँचे थे; परन्तु वह महामस्तकाभिषे. कोत्सव का सुअवसर था । इसलिये बिजली की रोशनी का प्रबंध था। सर्चलाइट की साफ रोशनी में गोम्मट-भगवान्के दर्शन करते नयनतृप्त नहीं होते थे । उनकी पवित्र स्मृति आज भी हृदय को प्रफुल्लित और शरीर को रोमांचित कर देती है-भावविशुद्धि की एक लहर ही दौड़ जाती हैं । धन्य है वह व्यक्ति जो श्रवणवेल्गोल के दर्शन करता है और धन्य है वह महाभाग चामुडराय जिन्होंने यह प्रतिमा निर्माण कराई। दि० जैन साधुओं को 'श्रमण' कहते हैं । कनड़ी में 'बेल' का अर्थ 'श्वेत' है और 'कोल' तालाव को कहते हैं । इसलिये श्रवणवेल्गोल का अर्थ होता हैः श्रमणअर्थात् दि० जैनसाधुओं का श्वेतसरोवर ! निस्सन्देह यह स्थान अत्यन्त प्राचीन काल से दि० जैन साधुओं की तपोभूमि रही है । राम-रावण काल के बने हुये जिनमंदिर यहां पर एक समय मौजूद थे । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी बारह वर्ष के दुष्काल से जैनसंघ की रक्षा करने के लिये दक्षिण भारत को आये थे और इस स्थान पर उन्होंने संघ सहित तपश्चरण किया था। श्रवणवेल्गोल के चंद्रगिरि पर्वत पर 'भद्रबाहुगुफा' में उनके चरणचिन्ह विद्यमान हैं। वहीं उन्होंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) समाधिमरण किया था। वहीं रह कर सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने, जो दि० मुनि होकर उनके साथ आये थे, उनकी वैयावत्ति की थी। सम्राट चन्द्रगुप्त की स्मृति में यहां जिन मन्दिर और चित्रावली बनी हुई है। उनके अनुयायी मुनिजनों का एक 'गण' भी बहुत दिनों तक यहां विद्यमान रहा था । निस्सन्देह श्रवणवेल्गोल महापवित्र तपोभूमि है। यहां की जैनाचार्य-परम्परा दिग्दिगान्तरों में प्रख्यात थी—यहां के आचार्यों ने बड़े २ राजा महाराजाओं से सम्मान प्राप्त किया था। उन्हें जैन धर्म की दीक्षा दी थी। श्रवणवेल्गोल पर राजा महाराजा, रानी, राजकुमार, बड़े २ सेनापति, राजमन्त्री और सब ही वर्ग के मनुष्यों ने आकर धर्माराधना की है। उन्होंने अपने आत्मबल को प्रगट करने के लिये यहां सल्लेखनाब्रत धारण किया-भद्रबाहु स्वामी के स्थापित किये हुये आदर्श को जैनियों ने खूब निभाया ! श्रवणवेल्गोल इस बात का प्रत्यक्ष साक्षी है कि जैनियों का साम्राज्य देश के लिये कितना हितकर था और उनके सम्राट किस तरह धर्म साम्राज्य स्थापित करने के लिये लालायित थे। श्रवणवेल्गोल का महत्व प्रत्येक जैनी को आत्म वीरता का सदेश देने में गर्भित है। यहां लगभग ५०० शिलालेख जैनियों का पूर्व गौरव प्रगट करते हैं ।* श्रवणवेल्गोल गांव के दोनों ओर दो मनोहर पर्वत (१) *श्री माणिकचन्द्र प्रन्थमाला का "जैन शिलालेख संग्रह" ग्रंथ देखो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) विध्यगिरि अथवा इन्द्रगिरि और (२) चन्द्रगिरि हैं। गांव के बीच में कल्याणी मील है । इसलिये यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य चित्ताकर्षक है । इन्द्रगिरि को यहां के लोग दोड्ड-बेट्ट (बड़ा पहाड़) कहते हैं, जो मैदान से ४७० फीट ऊँचा है । इस पर चढ़ने के लिये पांच सौ सीड़ियां बनी हैं । इस पर्वत पर चढ़ते ही पहले 'ब्रह्मदेव मन्दिर' पड़ता है। जिसकी अटारी में पार्श्वनाथ स्वामी की एक मूर्ति है । पर्वत की चोटी पर पत्थर की प्राचीर-दीवार का घेरा है, जिसके अन्दर बहुत से प्राचीन जिन मन्दिर हैं। घुसते ही एक छोटा-सा मन्दिर "चौबीस तीर्थकर बसती" नामक मिलता है, जिसमें सन् १६४८ ई० का स्थापा हुआ चौबीस पट्ट विराजमान है । इस मन्दिर से उत्तर पश्चिम में एक कुण्ड है। उसके पास 'चेन्नण बसती' नामक एक दूसरा मन्दिर है, जिसमें चन्द्रनाथ भ० की पूजा होती है । मन्दिर के सामने एक मानस्थम्भ है। लगभग १६७३ ई० में चेन्नएण ने यह मन्दिर बनवाया था। इसके आगे ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ 'ओदेगल बसती' नामक मन्दिर है । यह होयसल-कालका कड़े कंकड़ का बना हुआ मन्दिर है । इस मन्दिरकी छत के मध्य भाग में एक बहुत ही सुन्दर कमल लटका हुआ है। श्री आदिनाथ भगवान् की जिन प्रतिमा दर्शनीय है । श्री शान्तिनाथ और नेमिनाथ की भी प्रतिमायें हैं। इस विन्ध्यगिरि पर्वत पर ही एक छोटे घेरे में श्री बाहु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६५ ) बलि ( गोम्मट ) स्वामी की विशालकाय मूर्ति विराजमान है। इस घेरे के बाहर भव्य संगतराशीका त्यागद् ब्रह्मदेव-स्तम्भ' नामक सुन्दर स्तम्भ छत से अधर लटका हुआ है । इसे गंगवंश के राचमल्लनरेश के राजमंत्री सेनापति चामुंडराय ने बनवाया था, जो श्री 'गोम्मटसार' के रचयिता श्री नेमिचंद्राचार्य के शिष्य थे । गुरु और शिष्य की मूर्तियां भी उस पर अङ्कित हैं। इस स्थंभ के सामने ही गोम्मटेश-मूर्ति के आकार में घुसने का अखंड द्वार है-वह एक शिलाखंड का बना हुआ है। इसद्वारकी दाहिनी ओर बाहुबलिजी का छोटा-सा मंदिर और बाई ओर उनके बड़े भाई भरत म० का मन्दिर है। पास वाले चट्टान पर सिद्ध भ० की मूर्तियां हैं और वहीं 'सिद्धरवस्ती' है; जिसके पास दो सुन्दर स्तंभ हैं। वहीं पर 'ब्रह्मदेवस्तंभ' है और गुल्लकायिजी की मूर्ति है। चामुंडरायजीके समयमें गुल्लकायिजी धर्मवत्सला महिला थीं, लोकश्रुति है कि चामुंडराय ने बड़े सजधज से गोम्मटस्वामी के अभिषेक की तैयारी की. परन्तु अभिषिक्त दूध जांघों के नीचे नहीं उतरा, क्योंकि चामुंडरायजी को थोड़ा-सा अभिमान होगया था। एक बृद्धा भक्तिन गोल्लकायि-फल में दूध भर कर लाई और भक्तिपूर्वक अभिषेक किया तो वह सर्वाङ्ग सम्पन्न हुआ। चामुंडरायजी ने उसकी भक्ति चिरस्थायी बनादी। श्री बाहुबलिजी श्री तीर्थकर ऋषभदेव जी के पुत्र और भरतचक्रवर्ती के भाई थे। राज्य के लिये दोनों भाइयों में युद्ध हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। बाहुबलि की विजय हुई । परन्तु उन्होंने राज्य अपने बड़े भाई को दे दिया और स्वयं तप तप कर सिद्धपरमात्मा हुये । भरतजी ने पोदनपुर में उनकी बृहत्काय मूर्ति स्थापित की; परन्तु कालान्तर में उसके चहुँओर इतने कुक्कुट-सर्प होगये कि दर्शन करना दुर्लभ थे। गंगराजा राचमल्ल के सेनापति चामुंडराय अपनी माता की इच्छानुसार उसकी वंदना करने के लिये चले, परन्तु उनकी यात्रा अधरी रही। इसलिये उन्होंने श्रवणवेल्गोल में ही एक वैसी ही मूर्ति स्थापित करना निश्चित किया। उन्होंने चंद्रगिरि पर्वत पर खड़े होकर एक तीर मारा जो इन्द्रगिरि पहाड़ पर किसी चट्टान में जा लगा । इस चट्टान में उनको गोम्मटे. श्वरके दर्शन हुये । चामुंडरायजी ने श्री नेमिचंद्राचार्य की देखरेख में यह महान् मूर्ति सन् १८३ ई० के लगभग बनवाई थी। यह उत्तराभिमुखी है और हल्के भूरे रंग के महीन कणोंवाले कंकरीले पत्थर (Granite) को काटकर बनाई गई है। यह विशाल मूर्ति इतनी स्वच्छ और सजीव है कि मानों शिल्पी अभी-अभी ही उसे बनाकर हटा है। इस स्थानके अत्यन्तसुन्दर और मूर्ति के बड़ा होने के खयाल से गोम्मटेश्वर की यह महान् मूर्ति मिश्रदेश के रैमसेस राजाओं की मूर्तिओं से भी बढ़कर अद्भुत एवं आश्चर्यजनक सिद्ध होती है इतना महान् अखंडशिला-विग्रह संसार में अन्यत्र नहीं है । निस्सन्देह त्याग और वैराग्य मूर्ति के मुख पर सुन्दर नत्य कर रहा है- उसकी शान्तिमुद्रा भुवनमोहिनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) है ! उसकी कला अपूर्व है ! शिल्पी को धन्य है जिसने शिल्प कला के चरमोत्कर्षका ऐसा सफल और सुन्दर नमूना जनता के सम्मुख रक्खा हैं !' बाहुबलिजी प्रथम कामदेव थे । कहते हैं कि 'गोम्मट' शब्द उसी शब्द का द्योतक है । इसीलिये वह गोम्मटेश्वर कहलाते हैं। उनका अभिषेकोत्सव कई वर्षों में एक बार होता है। पिछला महामस्तकाभिषेकोत्सव सन १९४० के माघमास में सम्पन्न हुआ था। इस मूर्ति के चहुँओर प्राकार में छोटी २ देवकुलिकायें हैं, जिनमें तीर्थङ्कर भ० की मूर्तियां विराजमान है। ___चंद्रगिरि पर्वत इंद्रगिरि से छोटा है; इसीलिये कनड़ी में उसे चिक्कवेट्ट कहते हैं । वह आसपास के मैदान से १७५ फीट ऊंचा है। संस्कृतभाषा के प्राचीन लेखों में इसे 'कटवप्र' कहा है। एक प्राकार के भीतर यहाँ पर कई सुन्दर जिन मंदिर हैं एक देवालय प्राकार के बाहर है। प्रायः सबही मंदिर द्राविड़-शिल्पकला की शैली के बने हैं। सबसे प्राचीन मंदिर आठवीं शताब्दि का बताया जाता है । पहले ही पर्वत पर चढ़ते हुये भद्रबाहुस्वामी की गफा मिलती है, जिसमें उनके चरणचिन्ह विद्यमान हैं। भद्रबाहुगुफासे ऊपर पहाड़ की चोटी पर भी मुनियों के चरणचिन्ह हैं। उनकी वंदना करके यात्री दक्षिणद्वार से प्राकार में प्रवेश करता है घुमते ही उसे एक सुन्दराकार मानर्थभ मिलता है, जिसे 'कूगेब्रह्मदेव स्तंभ, कहते हैं। यह बहुत ऊंचा है और इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) सिरे पर ब्रह्मदेव को मूर्ति है। गंगवंशीय राजा मारसिंह द्वि० का स्मारकरूप एक लेख भी इस पर खुदा हुआ है । इसी स्तम्भ के पास कई प्राचीन शिलालेख चट्टान पर खुदे हुये हैं । नं० ३१ वाजा शिलालेख क़रीब ६५० ई० का है और स्पष्ट बताता है कि "भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दो महान् मुनि हुए जिनकी कृपादृष्टि से जैनमत उन्नत दशा को प्राप्त हुआ ।" उपर्युक्त मानस्तंभ से पश्चिम की ओर सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ का एक छोटा मंदिर है, परन्तु उसमें एक महामनोज्ञ ग्यारह फीट ऊँची शान्तिनाथ भगवान् की खड्गासन मूर्ति दर्शनीय है । उनकी साभिषेक पूजा करके हमें अपूर्व शान्ति और T आत्माल्हाद प्राप्त हुआ था ! इस मंदिर के उत्तर में खुली जगह में भरत की अपूर्ण मूर्ति खड़ी है। पूर्व दिशा में 'महानवमी - मंडप' है, जिसके स्तंभ दर्शनीय हैं। एक स्तंभ पर मंत्री नागदेव ने सन् ११७६ ई० में नयकीर्ति नामक मुनिराज की स्मृति में लेख खुदवाया है । यहाँ से पूर्व की ओर श्री पार्श्वनाथजी का बहुत बड़ा मंदिर है । इसके सामने एक मानस्तंभ है । मंदिर उत्कृष्ट शिल्पकला का सुन्दर नमूना है । इसी के पास सबसे बड़ा और विशाल मंदिर ' कत्तले - बस्ती नामक मौजूद है । इसे सम्राट् विष्णुवर्द्धन के सेनापति गंगराज ने बनवाया था। इसमें श्री आदिनाथ भगवान् की मूर्ति 1 विराजमान है । यहाँ यही एक मंदिर है जिसमें प्रदक्षिणार्थ मार्ग बना हुआ है । 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) चंद्रगिरि पर्वत पर सबसे छोटा मंदिर "चंद्रगुप्त-बसती" है जिसकी एक पत्थर की सुन्दर चौखट में पाँच चित्रपट्टिकायें दर्शनीय हैं । इनमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन सम्बन्धी चित्र बने हुए हैं । पार्श्वनाथस्वामी की मर्ति विराजमान है। दीवारों पर भी चित्र बने हुये हैं। श्रीभद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का यह सुन्दर स्मरण है। फिर 'शासनबसती' के दर्शन करना चाहिये, जिसमें एक शिलालेख दूर से दिखाई पड़ता है । भ० आदिनाथ की विराजमान मूर्ति है । इस मंदिर को सन् १११७ में सेनापति गंगराज ने बनवाया था और इसका नाम 'इन्द्रकुलगृह' रक्खा था । ___ वहीं 'मजिगएण बस्ती' भी एक छोटा मंदिर है, जिसमें चौदहवें तीर्थङ्कर श्री अनंतनाथ की पाषाण मूर्ति विराजमान है । दीवारों पर सुन्दर फूल बने हुए हैं । 'चंद्रप्रभबस्ती' के खुले गर्भगृह में आठवें तीर्थङ्कर श्री चंद्रप्रभ की मनोज्ञ मूर्ति विद्यमान हैं । इसे गंगवंशीय राजा शिवमार ने बनवाया था । 'सुपार्श्वनाथवस्ती' में भ० सुपार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। चामुंडरायवस्ती' पहाड़ के सबसे बड़े मंदिरों में से है। इसमें २२ वे तीर्थकर श्री नेमिनाथजी की प्रतिमा दर्शनीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) इस रमणीक मंदिर को सेनापति चामुंडराय ने १८२ ई० में बनवाया था। बाहरी दीवारों में खंभे खुदे हुए हैं जिनमें मनोहर चित्रपट्टिकायें बनी हैं। छत की मुडेलों और शिखिरों पर मनोहारी शिल्पकार्य बना है। ऊपर छत पर चामुंडरायजी के सुपुत्र जिनदेव ने एक अट्टालिका बनवाई और उसमें पार्श्वनाथजी का प्रतिविम्ब विराजमान कराया था। पास में ही 'आदिनाथ देवालय' है. जिसे 'एरडकवस्ती' कहते हैं । इसे होयसल-सेनापति गंगराज की धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मीदेवी ने सन् १११८ ई० में बनवाया था। ___'सवतिगंधवारण' वस्ती भी काफी बड़ा मंदिर है। इसे होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी ने बनवाया था और इसमें भ० शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान की थी। इस मूर्तिका प्रभामंडल अतीव सुन्दर है । 'बाहुबलिवस्तो' रथाकार होने के कारण 'तेरिनवस्ती' कहलाती है, क्योंकि कन्नड में रथ को तेरु कहते हैं। इसमें श्री बाहुबलिजी की मूति विराजमान है। "शांतीश्वरवस्ती' मंदिर भी होयसल कालका है । 'इरुवेब्रह्मदेवमंदिर' में केवल ब्रह्मदेव की मूर्ति है यहाँ दो कुंड भी हैं। __ इस पर्वत के उत्तर द्वार से उतरने पर जिननाथपुर का पूर्ण दृश्य दिखाई पड़ता है। जिननाथपुर को होयसल सेनापति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) गंगराज ने सन् १११७ ई० में बसाया था। सेनापति रेचिमय्याने यहां पर एक अतीव सुन्दर 'शान्तिनाथ वस्ती' नामक मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर होयसल शिल्पकारी का अद्वितीय नमूना है। - इसके नकाशीदार स्तम्भों में मणियों की पच्चीकारी का काम दर्शनीय है। स्तम्भ भी कसौटी के पत्थर के हैं । इसके दर्शन करके हृदय आनन्द विभोर होता है और मस्तक गौरव से स्वयमेव ऊंचा उठता है । जैन धर्म का सजीव प्रभाव यहाँ देखने को मिलता है। इसी गांव में दूसरे छोर पर तालाब किनारे 'ओरगलबस्ती' नामक मन्दिर है, जिसकी प्राचीन प्रतिमा खंडित हुई तालाब में पड़ी है। नई प्रतिमा विराजमान की गई है। ___ इसके अतिरिक्त श्रवणवेल्गोल गांव में भी कई दर्शनीय जिन मन्दिर हैं, । गांव भर में 'भण्डारी-वस्ती' नामक सब से बड़ा है। इसके गर्भ गह में एक लम्बे अलंकृत पाद-पीठ पर चौबीस तीर्थकरों की खड्गासन प्रतिमायें विराजमान हैं। इसके द्वार सुन्दर हैं। फर्श बढ़ी लम्बी २ शिलाओं का बना हुआ है । मन्दिर के सामने एक अखण्ड शिला का बड़ा-सा मानस्तम्भ खड़ा है। होयसल नरेश नरसिंह प्रथम के भण्डारी ने यह मन्दिर बनवाया था। राजा नरसिंह ने इस मन्दिर को सवणेरु गांव भेट किया था और इसका नाम 'भव्यचड़ामणि' रक्खा था। 'अकनवस्ती' नामक मन्दिर श्रवणवेल्गोल में होयसल-शिल्प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) शैलीका एक ही मंदिर है । इसमें सप्तफणमंडित भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है । इसके स्तंभ- छत और दीवारें शिल्पकला के पूर्व कार्य हैं । इस मंदिर को ब्राह्मण सचिव चंद्रमौलिकी पत्नी चिक्कदेवी ने सन् १९८१ ई० में बनवाया था । वह स्वयं जैनधर्म - भक्ता थीं । उनका अन्तरजातीय विवाह हुआ था । इस मन्दिर के प्राकार के पश्चिमी भाग में 'सिद्धान्तवस्ती' नामक मन्दिर है, जिसमें पहले सिद्धान्तग्रंथ रहते थे । बाहर द्वार के पास दानशाले बसती है, जिसमें पंचपरमेष्ट्री की मूर्ति विराजित है । 'नगर जिनालय' बहुत छोटा मन्दिर है, जिसे मन्त्री नागदेव ने सन् १९६५ ई० में बनवाया था । 'मंगाईबसती' शान्तिनाथस्वामी का मन्दिर है चारुकीर्ति - पंडिताचार्य की शिष्या, राजमंदिर की नर्तकी - चूड़ामणि और बेलुगुलुकी रहनेवाली मंगाईदेवी ने यह मंदिर १३२५ ई० में बनवाया था ! धन्य था वह समय जब जैनधर्म राजनर्तकियों के जीवन को भी पवित्र बना देता था ! 'जैनमठ' श्री भट्टारक चारुकीर्तिजी का निवासस्थान है । इसके द्वारमंडप के स्तंभोंपर कौशलपूर्ण खुदाई का काम है। मंदिर में तीन गर्भग्रह हैं, जिनमें अनेक जिनबिम्ब विराजमान हैं । इनमें 'नवदेवता' मूर्ति अनूठी है। पंचपरमेष्टियों के अतिरिक्त | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) इसमें जैनधर्म को एक वृक्षके द्वारा सूचित किया है, व्यासपीठ ( चौकी) जिनवाणी का प्रतीक है, चैत्य एक जिनमूर्ति द्वारा और जिनमंदिर एकदेवमंडप द्वारा दर्शाये गये हैं । सबकी दीवारों पर सुन्दर चित्र बने हुये हैं । पास में ही जैन पाठशाला बालकबालिकाओं के लिये अलग-अलग हैं । इस तीर्थ की मान्यता मैसूर के वर्तमान शासनाधिकारी राजवंश में पुरातनकाल से है । मस्तकाभिषेक के समय सबसे पहले श्रीमान् महाराजा सा० मैसूर ही कलशाभिषेक करते हैं । जैनधर्म का गौरव श्रवणवेल्गोल के प्रत्येक कीर्ति से प्रकट होता है । प्रत्येक जैनी को यहाँ के दर्शन करना चाहिये । यहाँ से लारीवालों से किराया तै कर इस ओर के अन्य तीर्थों की यात्रा करनी चाहिये । मार्ग में मैसूर, सेरंगापट्टम, वेणर, आदि स्थानों को दिखलाते हुये ले जाते हैं 1 मैसूर मैसूर पुराना शहर है और यहाँ कई दर्शनीय स्थान हैं । यहाँ चंदन की अगरबत्ती - तैल आदि चीजें अच्छी बनती हैं। यहाँ से १० मील दूर वृन्दाबन गार्डिन अवश्य देखना चाहिये । यहाँ जैन बोर्डिंगहौस के धर्मशाला में ठहरना चाहिये- वहीं एक जिन मंदिर है । दूसरा जिनमंदिर म्यूनिसिपल - ऑफिस के पास , । यहीं से 'गोम्मट गिरि' के दर्शन करना चाहिये । यहाँ से चलने पर मार्ग में सेरंगापट्टम् में हिन्दू-मंदिर और टीपू सुल्तान का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) मकबरा अच्छी इमारत है । आगे हस्सन होते हुये बेलर पहुँचते हैं। यहाँ के केशवमन्दिर में कई जिनमूर्तियाँ रक्खी हुई हैं। वहाँ से हलेबिड होता जावे। हलेविड-(द्वारासमुद्र) हलेविड का प्राचीन नाम द्वारासमुद्र है। यह 'पूर्वकाल में होयसलवंश के राजाओं की राजधानी थी। राजमंत्री हुल्ल और गंगराज ने यहाँ कई मन्दिर निर्माण कराये थे। 'विजयपार्श्वबस्ती' नामक मन्दिर को विष्णुवर्द्धन नरेश ने दान दिया था और भगवान् पार्श्वनाथ के दर्शन करके उनका नाम 'विजयपार्श्व' रक्खा था । इस मन्दिर को उनके सेनापति गङ्गराज ने बनवाया था। इस मन्दिर में भ० पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा १६ हाथ की अत्यन्त मनोहर है । जिस समय इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई थी उसीसमय राजा विष्णुबद्धन के एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ था और उन्हें संग्राम में विजय लक्ष्मी प्राप्त हुई थी, इसीलिये उन्होंने इस प्रतिमा का नाम 'विजयपार्श्वनाथ' रक्खा था । इस मन्दिर में कसौटी-पाषाण के अद्भुत स्थंभ हैं, जिनमें से आगे वाले दो स्थंभों को पानी से गीला करके देखने से मनुष्य की उल्टी और फैली हुई छाया दिखती है। इसके अतिरिक्त (१) श्री आदिनाथ (२) श्री शांतिनाथजी के भी दर्शनीय मन्दिर हैं। एक समय यहाँ पर ७२० जैन मन्दिर थे, परन्तु लिंगायतों ने उन्हें नष्ट कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) दिया । वर्तमान मन्दिरों के अहाते में अगणित पाषाण भग्नावशेष पड़े हुये पुरातन जैन गौरव की याद दिलाते हैं। यहाँ से सीधा वेणर व मूडबद्री जाना चाहिये । मार्ग अत्यन्त मनोरम हैं। पहाड़ों के दृश्य, उपत्ययकाओं की हरियाली और झरनों का कलकलनाद मनको मोह लेते हैं। गाँवों में भी जिनमंदिर हैं। रास्ता बड़ा टेड़-मेड़ा है-संसार भ्रमण का मानचित्र ही मानो हो । हलेविड से वेणर लगभग ६० मील दूर है। वेणर वेण र जैनियों का प्राचीन केन्द्र है। यहाँ एक समय अजलिरवंश के जैनी राजाओं का राज्य था। उनमें से वीर निम्मराज ने शाके १५२६ ( सन् १६०४ ई० ) में यहाँ पर बाहुबलिस्वामी की एक ३७ फीट ऊंची खगासन प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई और 'शान्तिनाथस्वामी' का मन्दिर निर्माण कराया था । मूर्ति ग्राम से सटी हुई गुरुपर नदी के किनारे बने हुये प्राकार में खड़ी हुई अपनी अनठी शान्ति बिखेर रही है । प्राकार में घुसते ही दो मन्दिर हैं । इनके पीछे एक बड़ा मन्दिर अलग है, जिसमें हजारों मनोहर प्रतिमायें विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ चार मन्दिर और है । यहां से मूडबद्री जावे। श्री मूडविदुरे (मूहबद्री) अतिशय क्षेत्र वेण र मूहबद्री सिर्फ १२ मील है । रास्ते के गांव में भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन मन्दिर हैं । यहां से मैदान में चलना पड़ता है। पहाड़ का उतराव चड़ाव वेणर में खतम हो जाता है । चन्दन-वादाम सुपारी-नारियल आदि के पेड़ों से भरे हुए जंगल बहुत मिलते हैं; यहाँ जैन धर्मशाला सुन्दर बनी हुई है। उसमें ठहरना चाहिये प्राचीन होयसल काल में मूड़बद्री जैनियों का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ के चौटर वंशी राजा जैन धर्म के अनन्य भक्त थे। बड़े २ धनवान जैन व्यापारी यहां रहते थे। राजा और प्रजा सब ही जैन धर्म के उपासक थे। सन् १४४२ ई० में ईरान के व्यापारी अब्दुल रज्जाक ने मूड़बद्री के चन्द्रनाथ स्वामी के मन्दिर को देख कर लिखा था कि 'दुनियां में उसकी शान का दूसरा मन्दिर नहीं है।' (""has not its equal in the universe ) उसने मन्दिर को पीतल का ढला हुआ और प्रतिमा सोने की बनी बतायी थी। आज भी कुछ लोग प्रतिमा को सुवर्ण की बतलाते हैं, परन्तु वास्तव में वह पाँच धातुओं की है, जिसमें सोने और चान्दी का अंश अधिक है। यह प्रतिमा अत्यन्त मनोहर लगभग ५ गज ऊँची है। यह मन्दिर सन् १४२६-३० में लगभग ८-९ करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया था। इस मन्दिर को ठीक ही 'त्रिभुवन-तिलक-चूड़ामणि' कहते हैं । यहां यही सब से अच्छा मन्दिर है। वह चार खनों में बटा हुआ है। दूसरे खन में 'सहस्त्रकूट चैत्यालय' है। उसमें १००८ सांचे में ढली हुई प्रतिमायें अतीव मनोहर हैं । इस मन्दिर के अतिरिक्त यहाँ १८-१६ मन्दिर और हैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) जिनमें 'गुरु' और 'सिद्धान्तबस्ती' उल्लेखनीय है । सिद्धान्तबस्ती में 'षट्खंडागमसूत्रादि' सिद्धान्त ग्रंथ और हीरा - पन्ना आदि नव रत्नों की ३५ मूर्तियां विराजमान हैं । गुरुबस्ती में मूलनायक की प्रतिमा आठ गज ऊंची श्री पार्श्वनाथ भगवान् की है। पंचों की आज्ञा से और भण्डार में कुछ देने पर इन अद्भुत प्रतिमाओं के और सिद्धान्त ग्रथों के दर्शन होते हैं । अन्य मंदिरों में भी मनोज्ञ प्रतिमायें विराजमान हैं । सात मन्दिरों के सामने मानस्थम्भ बने हुये हैं । इन सब मन्दिरों का प्रबंध यहां के भट्टारक श्री ललितकीर्तजी के तत्वावधान में पंचों के सहयोग से होता है । शाम को रोशनी और आरती होती है। यहां पर श्री पं० लोकनाथ जी शास्त्री ने वीरवाणी विलास सिद्धान्त भवन में ताड़पत्रों पर लिखे हुये जैन शास्त्रों का अच्छा संग्रह किया है। यह स्थान बड़ा मनोहर है । राजाओं के महल भी भग्नावशेष हैं । यहां से १० मी दूर कार कल जाना चाहिये । कारकल अतिशय क्षेत्र इस क्षेत्र का प्रबंध यहां के भट्टारकजी के हाथ में है । उन्हीं के मठ में ठहरने की व्यवस्था है । यहां १२ मन्दिर प्राचीन और मनोज्ञ लाखों रुपये की कीमत के बने हुए हैं। पूर्व की ओर एक छोटी-सी पहाड़ी पर एक फर्लाङ्ग ऊपर चढ़ने पर बाहुबलि स्वामी की विशालकाय प्रतिमा के दर्शन करके मन प्रसन्न होजाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) यह प्रतिमा करीब ४२ फीट ऊंची है। यहीं पर २० गज ऊंचा एक सुन्दर मानस्थंभ अद्भुत कारीगरी का दर्शनीय है । इस मूर्ति को १४३२ में कारकल-नरेश-वीर-पाण्ड्य ने निर्माण कराया था। यहाँ भैरव ओडेयर वंश के सबही राजा प्रायः जैनी थे । सान्तारवंश के महाराजाधिराज लोकनाथरस के शासनकाल में सन् १३३४ में कुमुदचंद्र भट्टारक के बनवाये हुये शान्तिनाथ मन्दिर को उनकी बहनों और राज्याधिकारियों ने दान दिया था। शक सं० १५०८ में इम्मडिभैरवराज ने वहाँ से सामने छोटी पहाड़ी पर 'चतुर्मुख वस्ती' नामक विशाल मन्दिर बनवाया था । इस मन्दिर के चारों दिशाओं में दरवाजे हैं और चारों ओर १२ प्रतिमायें सात-सात गज़ की अत्यन्त मनोज्ञ विराजमान हैं। यहाँ से पश्चिम दिशा की ओर ११ बिशाल मन्दिर अनूठे बने हुये हैं । कारकल से ३४ मील की दूरी पर वारंग ग्राम है। . वारंग-क्षेत्र वारंगक्षेत्र हरी-भरी उपत्ययका के बीच में स्थित मनोहर दिखता है। यहाँ पर नेमीश्वर बस्ती' नामक मंदिर कोट के भीतर दर्शनीय है। इस मंदिर में इस क्षेत्र सम्बन्धी 'स्थलपुराण' और 'माहात्म्य' सुरक्षितथा अब वह वराँग-मठ के स्वामी भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिजी के पास बताया जाता है, जो होम्बुच मठ में रहते हैं। उन्हें इस क्षेत्र का माहात्म्य प्रगट करना चाहिये । मन्दिर के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) सामने मानस्थंभ भी है। विजयनगर के सम्राट् देवराय ने इस मन्दिरके दर्शन किये थे और दान दिया था। इसीके पास तालाब में एक 'जलमन्दिर' है, जिसके दर्शन करने के लिये छोटी-छोटी किश्तियों में बैठकर जाया जाता है। मंदिरके बीच में एक चौमुखी प्रतिमा अतिशयवान विराजमान है । संभव है कि इस क्षेत्र का मम्बन्ध नेमिनाथस्वामीके तीर्थ में जन्मे हुए.वरांग कुमार से हो । यहाँ वापस मूडबद्री होते हुये हासन स्टेशन से हुबली जाना चाहिये । इस प्रकार मद्रास प्रान्त प्रमुख तीर्थों के दर्शन होजाते है। परन्तु जो लोग इस प्रान्त के अन्य तीर्थों के भी दर्शन करना चाहें, उन्हें मद्रास में ही वैसी व्यवस्था कर लेनी चाहिये । सामान्यतः उनका परिचय निम्नप्रकार है। अर्पाकम् (कांजीवरम्) मद्रास से कांजीवरम् जब जावे तब अर्पाकम् क्षेत्र और कांचीनगर के भी दर्शन करे। अर्पाकम् कांजीवरम् स्टेशन से नौ मील दक्षिण में है। यहां पर एक प्राचीन छोटा-सा मंदिर अनठी कारीगरी का दर्शनीय है। जिसमें आदिनाथ स्वामी की प्रतिमा विराजमान है। वापस कांजीवरम् जावे-वहाँ शहर में कोई मंदिर नहीं है, परन्तु तिरुपथीकुनरुम् में 'वेयावती नदी के किनारे दो दि० जैन मंदिर अनूठी कारीगरी के हैं । दर्शन करके तिण्डिवनम् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) रेल स्टेशन का टिकिट लेकर वहां जावे । यद्यपि यहां जैनियों के ५ गह हैं, परन्तु जिन मन्दिर नहीं है-एक बगीचे में जिन प्रतिमा है । कांजीवरम् बहुत प्राचीन शहर है और उसका सम्बन्ध जैनों, बौद्धों और हिन्दुओं से है । पेरुमण्डूर पेरुमण्डूर तिण्डिवनम् से ४ मील दूर है; जहां दि० जैनियों की वस्ती काफी है । ग्राम में दो जिन मन्दिर हैं और सहस्त्राधिक जिन मूतियाँ हैं । जब मैलापुर समुद्र में डूब ने लगा, तब वहाँ की मूर्तियाँ लाई जाकर यहां बिराजमान की गई थीं। दो सौ वर्ष पूर्व संधि महामुनि और पण्डित महामुनि ने ब्राह्मण से वाद करके जैन धर्म की प्रभावना की थी। तभी से यह दि० जैनियों का विद्यापीठ है-एक दि० जैन पाठशाला यहाँ बहुत दिनों से चलती है। श्री क्षेत्र पोनूर पोन र क्षेत्र तिण्डिवनम् से करीब २५ मील दूर एक पहाड़ की तरैटी में है। वहां पर पहले सकल लोकाचार्य वर्द्धन राजनारायण शम्भवरायर नामक जैनी राजा शासन करते थे। शक सं० १२६८ में पहाड़ पर उसी राजा के राज्यकाल में एक विशाल मन्दिर बनवाया गया था, जिसमें श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) विराजमान की गई थी। पहाड़ पर श्री एलाचार्यजी म० की चरणपादुकायें हैं । यह 'तिरुकुरुल' नामक तामिलग्रंथ के रचयिता बताये जाते हैं । अतः यह स्थान भगवान् कुन्दकुन्दस्वामी की तपोभूमि है; क्योंकि उनका अपरनाम एलाचार्य था । उनकी स्मृति में प्रति रविवार को पहाड़ पर यात्रा होती है, जिसमें करीब ५०० आदमी शामिल होते हैं । यहां का प्रबंध पोन्नूर के दि० जैन पंच करते हैं । उन्हें इस मेले में धर्म प्रचार का प्रबंध करना चाहिये । पोन्नूर में एक मंदिर, धर्मशाला और पाठशाला भी है । यहां का जलवायु अच्छा है । वापस तिरिहवनम् आवे । वहां से चित्तम्बर १० मील वायव्यकोण में जावे । श्रीक्षेत्र सितामूर (चित्तम्बूर) चित्तम्बूर प्राचीन जैन स्थान है । अब भी वहां दो दि० जैनमंदिर अति मनोज्ञ शोभनीक हैं; जिनमें से एक १५०० वर्षो का प्राचीन है । श्री संधि महामुनि और पंडित महामुनि ने यहाँ आकर यह मंदिर बनवाया और मठ स्थापित किया था । आज कल वहाँ श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक विद्यमान बताये जाते हैं । चैत्र मास में रथोत्सव होता है। बिल्लुकम् प्राम में भी दर्शनीय मंदिर है । यहां से वापस तिण्डिवनम् जावे । और वहां से पुण्डी के दर्शन करना हो तो स्टेशन ( S. I. B. ) जावे । पुण्डी पुण्डी जिला उत्तर अर्काट में अर्नीस्टेशन से क़रीब तीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) मील है। वहाँ पाषाण का एक विशाल और प्राचीन मंदिर है। उसमें १६ स्थंभों का मण्डप शिल्पकारी का अच्छा नमूना है । भ० पार्श्वनाथजी की व श्री ऋषभदेवजी की मनोज्ञ प्रतिमायें विराजमान हैं। इस मंदिर की कथा ताड़पत्र पर लिखी रक्खी है, जिससे प्रगट है कि यहां दो शिकारियों को जमीन खोदते हुये श्री ऋषभदेव की प्रतिमा मिली थी, जिसे वे पूजने लगे । भाग्यवशात् एक मुनिराज वहां से निकले, जिन्होंने उस प्रतिमा के दर्शन किये। उन्होंने वहां के राजा की पुत्री की भूतबाधा दूर करके उसे जैनधर्म में दीक्षित किया और उससे मंदिर बनवाया । मंदिरों के जीर्णोद्धार की आवश्यकता है । श्रीक्षेत्र मनारगुडी श्री मनारगुडी क्षेत्र जिला तंजोर में निडमंगलम् S. I. R. स्टेशन से ६ मील दूर है । यह स्थान श्री जीवंधर स्वामी का जन्मस्थान बताया जाता है । कहते हैं कि यहां दो सौ वर्ष पहले एक मुनिजी पर्णकुटिका में तपस्या करते थे । उसी में उन्होंने श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा विराजमान की थी । जब यह बात कुम्भकोनम् के जैनियों को ज्ञात हुई तो उन्होंने यहां आकर मंदिर बनवादिया । तबसे यहां बराबर बैशाख मास के शुक्लपक्ष में यात्रोत्सव १० दिन तक होता है। मंदिर में श्री मल्लिनाथस्वामी की प्रतिमा विराजमान है । इनके अतिरिक्त हुम्वच पद्मावती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) धर्मस्थल, आदि स्थान भी दर्शनीय हैं । इन स्थानों के दर्शन करके हुबली आजावे। हुबली-आरटाल हुबली जंकरान के पास ही धर्मशाला में जिनमंदिर है, वहां दर्शन करे । शहर में भी पाँच मंदिर दर्शनीय हैं । चाँदी की और चौबीस तीर्थङ्करों की प्रतिमायें मनोज्ञ हैं। किला महल्लेका मंदिर प्राचीन है । हुबली से २४ मील नैऋत्य कोन में आरटाल क्षेत्र है। घोडागाड़ी जाती है। पाषाण का विशाल मंदिर दर्शनीय है, जिसमें पार्श्वनाथजी की बहदाकार कायोत्सर्ग प्रतिमा विराजमान है। इस मंदिर को चालुक्यकाल में मुनि कनकचंद्र के उपदेश से बोभ्मसेट्टिने निर्माण कराया था। वहाँ से वापस हुबली आवे । हुबली से शोलापुर जावे, जहाँ पाँच दि० जैन मंदिरों और बोर्डिगहौस एवं श्राविकाश्रम आदि संस्थाओं के दर्शन करके लारी में कुंथलगिरि के दर्शन करने जावे । कुंथलगिरि कुंथलगिरि पर्वत से श्री कुलभूषण और देशभषण मुनि मोक्ष गये हैं । पर्वत छोटा-सा अत्यन्त रमणीक है । उसकी चोटी तथा मध्य में मुनियों के चरणमंदिर सहित दस मंदिर बने हैं । प्रकृति सौन्दर्य अपूर्व है। माघमास में मेला होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) संवत् १६३२ में यहाँ के मंदिरों का जीर्णोद्धार सेठ हरिभाई देवकरणजी ने ईडर के भट्टारक कनककीर्तिजी से कराया था । ' यहाँ पर ब्रह्मचर्याश्रम दर्शनीय है। वहां से वापस शोलापुर आवे 1 शोलापुर से मनमाड जंकशन जाते हुये मार्ग में बादामी स्टेशन पड़ता है । बादामी - गुफामंदिर स्टेशन से बादामी गांव || मील दूर है । दक्षिणवाली पहाड़ी पर हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त दि० जैनियों का एक गुफा - मंदिर ( नं० ५ ) है । यह गुफा मंदिर सबसे ऊंचा है और इसमें चार दालान हैं । पहले दालान में जिनेन्द्रदेव की एक पद्मासन मूर्ति सिंहासनाधिष्ठित हैं। दूसरे दालान में चौवीसी प्रतिमा और पार्श्वनाथजी की प्रतिमायें मुख्य हैं। तीसरे दालान में श्री बाहुबलि - स्वामी की करीब ७ फीट ऊंची प्रतिमा दर्शनीय है । उसी के सन्मुख श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा ७ फीट ऊंची कायोत्सर्ग विराजमान है । मलप्रभानदी के किनारे कई जिनमंदिर बने हुये हैं। बादामी पश्चिमी चालुक्यराजाओं की राजधानी थी, जिनमें से कई राजा जैनी थे । उन्होंने ही यह जिनमंदिर बनवाये थे । यहां से मनमाड जं० जावे। इस मार्ग में बीजापुर भी पड़ता है । बीजापुर बीजापुर एक प्राचीन स्थान है; जहाँ पर दि० जैनियों के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) चार मंदिर हैं । मुसलमान राजाओं ने यहाँ के कई जिनमंदिरों और मूर्तियों को तुड़वा कर चंदा बावड़ी में फेंक दिया था । किले में मिली हुई जिन मूर्तियां 'बोलीगुम्बज' के संग्रहालय में रक्खी हुई हैं। यह गुम्बज बहुत बड़ा और अद्भुत है । इसे मुहम्मद आदिलशाह ने बनवाया था। इसमें शब्द की प्रतिध्वनि आश्चर्यजनक होती है । इसीलिये इसका सार्थक नाम 'बोलीगुम्इज' (Dome of speech ! है । बीजापुर से दो मील दूर जमीन में गड़ा हुआ अति प्राचीन कलाकौशल युक्त श्री पार्श्वनाथ जी का मंदिर दर्शनीय मिला है । यह प्रतिमा १०८ सर्पफणमंडित पद्मासन है । कोल्हापुर और बेलगाम यदि इस ओर के प्रमुख स्थानों को देखना इष्ट हो, तो कोल्हापुर और बेलगाम भी होता आवे । कोल्हापर का प्राचीन नाम तुल्लकपुर है। यह शिलाहार वंश के राजाओं की राजधानी थी, जिनमें कई राजा जैनधर्म के भक्त थे। राजा गण्डरादित्य के के सेनापति निम्बदेव ने यहाँ पर एक अतीव सुन्दर जिनमंदिर निर्माण कराया था । श्राज वह शेषासाई विष्णु का मंदिर बना हुआ है। यहाँ का प्रसिद्ध 'महालक्ष्मीमंदिर' भी एक समय जैन मंदिर था । इस समय वहाँ ४ शिखरवंद जिनमंदिर और ३ चैत्यालय दर्शनीय हैं । श्राविकाश्रम, बोडिंगहौस आदि जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) संस्थायें भी हैं। बेलगांव प्राचीन वेणुग्राम है। इसे रहवंश के लक्ष्मीदेव नामक राजा ने अपनी राजधानी बनाया था। रहवंश के सबही राजा जैनी थे। जनश्रुति है कि एक दफा यहाँ मुनिसंघ आया । राजा रात को ही वन्दना करने गया । लौटते हुये इत्तफाक से मशाल की लौ बांस के झरमुट में लगगई जिसने बनाग्निका रूप धारण कर लिया। मुनिसंघ ध्यानलीन था-वह भी उस वनाग्नि में अन्तगति को प्राप्त हुआ। राजा और प्रजा ने जब यह सुना तो उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। प्रायश्चित रूप उन्होंने किले के अन्दर १०८ भव्य जिनमंदिर बनवाये । इस प्रकार बेलगांव एक अतिशय क्षेत्र प्रमाणित होता है । इस समय भी वहां चार दि० जैन मंदिर दर्शनीय हैं। किले के १०८ मंदिरों को आसिफखाँ नामक मुसलमान शासक ने तुड़वा डाला था। तो भी उनमें से तीन मंदिर किसी तरह अब शेष रहे हैं, जो अनूठी कारीगरी के हैं । यद्यपि आज उनमें प्रतिमा विराजमान नहीं है तो भी उनके दर्शन मात्र से वंद्यभाव होते हैं। इनमें 'कमलबस्ती' अपूर्व है, जिसकी छत से लटकते हुये पाँच कमल-छत्र शिल्पकारी की आश्चर्यकारी रचना है। इलोरा गुफामंदिर मनमाड जंकशन से लारी में इलोरा जाना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) 1 इलोराका प्राचीन नाम इलापुर है और वह मान्यखेर्ट ( मलखेड ) के राष्ट्रकूट ( राठौरवंशी) राजाओं की राजधानी रहा है । यहाँ " पर पहाड़ को कोलकर बड़े २ सुन्दर मन्दिर बनाये गये हैं । वैष्णव मंदिरोंमें 'बड़ा कैलाशमंदिर' अद्भुत है । बौद्धों के भी कई मंदिर हैं । नं० ३० से नं० ३४ तक के मंदिर जैनियों के हैं । इनमें 'छोटाकैलाश' शिल्पकारी का अद्भुत नमूना है । 'इन्द्रगुफा' और 'जगन्नाथगुफा' मंदिर दो मंजिले दर्शनीय हैं। ऊपर चढ़कर पहाड़ की चोटी पर एक चैत्यालय है, जिसमें भ० पार्श्वनाथ की शक सम्वत् १९५४ की प्रतिष्ठा की हुई प्रतिमा विराजमान है । यहाँ दर्शन-पूजा करके आनन्द आता है । क्या ही अच्छा हो, यदि यहाँ पर नियमित रूप से पूजन- प्रक्षाल हुआ करें ? मांगीतुंगी मनमाड स्टेशन से ६० मील दूर मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र है; जहाँ मोटर-लारी में जाया जाता है। श्री रामचन्द्रजी, हनुमानजी, सुग्रीव, गवय, गवाक्ष, नील- महानील आदि ६६ करोड़ मुनिजन यहाँ से मुक्त हुये हैं । यह स्थान जंगल में बड़ा रमणीक है । चारों तरफ़ फैली हुई पर्वतमालाओं के बीच में मांगी और तुंगी पर्वत निराली शान से खड़े हुये हैं। पर्वत की चोटियाँ लिङ्गाकार दूर से दिखाई पड़ती हैं । उन लिङ्गाकार चोटियों के चारों तरफ गुफा मंदिर बने हुए हैं। तलैटी में दो प्राचीन मंदिर हैं। हाल में एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८) मानस्थंभ भी दर्शनीय बना है । ठहरने के लिये धर्मशालायें हैं । मांगी पहाड़ की चढ़ाई तीन मील है । यद्यपि चढ़ाई कठिन है, परन्तु सावधानी रखने से खलती नहीं है । इस पर्वत परं चार गुफा मंदिर हैं, जिनमें मूलनायक भद्रबाहु स्वामी की प्रतिमा है । अन्य प्रतिमाओं में कुछ भट्टारकों की भी हैं । किन्तु सब ही प्रतिमायें ११ वीं - १२ वीं शताब्दि की हैं। भद्रबाहुस्वामी की प्रतिमा का होना इस बात की दलील है कि उन्होंने इस पर्वत पर भी तप किया था । वन्दना करके यहां से दो मील दूर तुंगी पर्वत है । मार्ग संकीर्ण है और चढ़ाई कठिनसाध्य है, परन्तु सावधानी रखने से बच्चे भी बड़े मजे में चले जाते हैं । इस रास्ते में श्री कृष्णजी के दाह संस्कार का कुंड भी पड़ता है । यदि वस्तुतः वहीं पर बलदेवजी ने अपने भाई नारायण का दाहसंस्कार किया था, तो इस पर्वत का प्राचीन नाम 'शृङ्गी' पर्वत होना चाहिये, क्योंकि 'हरिवंशपुराण' (६२/७३) में उसका यही नाम लिखा है | तुरंगीपहाड़ पर तीन गुफामंदिर हैं, जिनके दर्शन करना चाहिये । प्रतिमायें पुराने ढंग की हैं। उनके स्थान पर नवीन शिल्पकारी की प्रतिमायें विराजमान करने का विचार प्रबन्धकों 1 का है; परंतु क्षेत्र की प्राचीनता को बताने वाली वह प्रतिमायें उस अवस्था में ही वहाँ अवश्य रहना चाहिये । यहाँ मूलनायक श्री चंद्रप्रभुस्वामी की प्रतिमा करीब ४ फीट ऊंची पद्मासन है । मार्ग में उतरते हुये एक 'अद्भुतजी' नामक स्थान मिलता है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) जहां पर कई मनोग्य और प्राचीन प्रतिमायें दर्शनीय हैं । यहीं पर एक कुंड है । माँगीतुंगी से उसी लारी में गजपंथाजी जावे । गजपंथाजी गजपंथापर्वत ४२० फीट ऊंचा छोटा-सा मनोहर है। श्री बलभद्रादि आठ करोड़ मुनिगण यहाँ से मोक्ष पधारे हैं। धर्मशाला की इमारत नई और सुन्दर है । बीच में मानस्थंभ सहित जिन मंदिर है । इस मानस्थंभ को महिलारत्न ७० कंकुबाईजी ने निर्माण कराया है । यहाँ से १॥ मील दूर गजपथ पर्वत है । नीचे बंजीबावा का एक सुन्दर मंदिर और उदासीनाश्रम है । यहीं वाटिका में भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्तिजी की समाधि बनी हुई है। यहीं से पर्वत पर चढ़ने का मार्ग है, जिस पर थोड़ी दूर चलते ही सीड़ियां मिल जाती हैं । कुल ३२५ सीड़ियाँ हैं । पहलेही दो नये बने हुये मंदिर मिलते हैं, जो मनोरम हैं। एक मंदिर में श्री पार्श्वनाथजी की विशालकाय प्रतिमा दर्शनीय है । इन मंदिरों के बगल में दो प्राचीन गफा मदिर मिलते हैं । यह पहाड़ काट कर बनाये गये हैं । और इनमें १२ वीं से १६ वीं शताब्दि तक की प्रतिमायें और शिल्प दर्शनीय हैं; किन्तु जीर्णोद्धार के मिस से मंदिरों की प्राचीनता नष्ट करदी गई है । प्रतिमाओं पर भी लेप कर दिया गया है, जिससे उनके लेख भी छिप गये हैं यहाँ से चार मील नासिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) शहर जावे, जो हिन्दुओं का तीर्थ है । जैनियों का एक मंदिर है। यहाँ से इस ओर के अब शेष तीर्थों के दर्शन करने जावे अथवा सीधा बम्बई जावे । अब यहां पर एक ब्रह्मचर्याश्रम भी स्थापित होगया है। आष्ट ( श्रीविघ्नेश्वर-पार्श्वनाथ ) आष्टे अतिशयक्षेत्र रियासत हैदराबाद में दुधनी स्टेशन ( N. S. Ry.) के पास आलंद से करीब १६ मील है। यहां एक अतीव प्राचीन चैत्यालय है, जिसमें मूलनायक श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा दो फुट ऊंची पद्मासन विराजमान है। वह संभवतः शकसम्वत ५२८ की प्रतिष्ठित है । प्रतिवर्ष लगभग दो हज़ार यात्री दर्शनार्थ आते हैं। उखलद अतिशय क्षेत्र उखलद क्षेत्र निजाम रियासत में पिंगली ( N. 8. Ry.) स्टेशन से क़रीब ४ मील पर्ण नदी के किनारे पर है। यहां प्राचीन दि० जैन मंदिर पत्थर का बना हुआ-नदी के किनारे पर अत्यन्त शोभानीक है । यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अपूर्व है । मंदिर में श्री नेमिनाथजी की काले पाषाण की बृहदाकार प्रतिमा विराजमान है,जिसके अंगठे में एक समय पारस पत्थर लगा हुआ था। कहते हैं वहाँ के मुसलमान शासकने जब उसे लेना चाहा. तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) वह अपने आप छूटकर नदीमें जापड़ा और मिला नहीं | इसलिये यह अतिशयक्षेत्र है और यहां प्रतिवर्ष माघ में मेला होता है । श्रीक्षेत्र कुण्डल I सितारा जिले की औंध - रियासत में यह क्षेत्र है । कुण्डल स्टेशन ( M. S. M. Ry ) से सिर्फ दो मील है । गांव में एक पुराना दि० जैन मंदिर पार्श्वनाथजी का है । गांव के पास पहाड़ पर दो मन्दिर और हैं (१) झरी पार्श्वनाथ मंदिर - इसमें पार्श्वप्रतिमा पर अधिक जलबुष्टि होती है, इसलिये 'झरीपार्श्वनाथ' कहते हैं; (२) गिरीपार्श्वनाथ मंदिर है । कहते हैं कि पहले यहां के इराएगा गुफा मंदिर में भ० महावीर की मूर्ति थी । श्रावण मास में यहाँ यात्रा होती है । श्रीक्षेत्र कुम्भोज यह क्षेत्र कोल्हापुर स्टेट में हातकलंगड़ा स्टेशन से ४ मील है । गांव में एक मंदिर है । पर्वत पर पांच दि० जैन मंदिर 1 I प्राचीन हैं । श्री बाहुबलि स्वामी की चरण पादुकायें हैं। इस क्षेत्रका माहात्म्य अज्ञात है । श्रीक्षेत्र कुलपाक निजाम स्टेट में अलेर स्टेशन ( Bezwada Line ) से करीब ४ मोल कुलपाक प्राचीन क्षेत्र है; जिसका सम्बन्ध श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) आदिनाथ स्वामी की प्रतिमा से है जो 'माणिक स्वामी' कहलाती है। विशेष परिचय अज्ञात है। दही गांव दही गांव, जिला शोलापुर में डिक्सल (G. I. P.) स्टेशन से २२ मील है । यहां लाखों रुपयों की कीमत का दि० जैन मन्दिर और मानस्थम्भ है । ये इतने ऊंचे हैं कि इनको शिखिरें मीलों दूर से दिखाई पड़ते हैं । मन्दिर में मूलनायक श्री महावीर स्वामी की मूर्ति विराजमान है। वहीं पर व्र० महतीसागर के चरण चिन्ह हैं, जो एक विद्वान् और महान् धर्म प्रचारक थे। सं० १८ में उनका स्वर्गवास इसी स्थान पर हुआ था। मराठी भाषा में रचे हुए उनके कई ग्रन्थ मिलते हैं। धारा शिव की गुफायें निजाम स्टेट में येडशी (G. I. P.) स्टेशन से करीब दो मील दूर धारा शिव की गुफाये हैं। यहां पर पर्वत को काट कर गुफा मन्दिर बनाये गये हैं, जो कुल नौ हैं और अति प्राचीन हैं। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के तीर्थ में चम्पा के राजा करकण्ड यहाँ दर्शन करने आये थे । उन्होंने पुरातन गुफा मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था, जिनको नील-महानील नामक विद्याधर राजाओं ने बनवाया था। साथ ही दो एक नये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) गुफामंदिर उन्होंने स्वयं वनवाये थे वस्तुतः यह गुफामंदिर बड़ी २ पुरानी ईटों के व पत्थर के ऐसे बने हुये है कि इनकी प्राचीनता स्वतः प्रगट होती है। इनमें भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर की अनठी दर्शनीय प्रतिमायें विराजमान है, जिनकी कला अर्वाचीन नहीं है । पार्श्वनाथस्वामी की प्रतिमा बाल की बनी हुई नौ फीट ऊंची पद्मासन है और उस पर रोगन होरहा है। यहां की यह और अन्य मूर्तियाँ अनूठी कारीगरी की है। बम्बई भारत का व्यापारिक और उद्योगिक मुख्य नगर है। यहां हीराबाग़ धर्मशाला में ठहरना चाहिये । सेठ सुखानन्द धर्मशाला भी निकट ही है । हीराबारा धर्मशाला स्व० दानवीर सेठ माणिकचन्द्रजी ने बनवाई थी । इसी धर्मशाला में 'श्री भा० दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी' का दफ्तर है, जिसके द्वारा सब दि० जैन तीर्थों का प्रबन्ध होता है । स्व० श्रीमती मगनबाई जे० पी० द्वारा संस्थापित 'श्राविकाश्रम' उल्लेखनीय संस्था है |जुविलीबारा ( तारदेव ) में उसे अवश्य देखने जाय । वहीं पास में श्री दि० जैन बोडिग हौस है, जिसमें चैत्यालय के दर्शन करना चाहिये । चौपाटी में सेठ सा का चैत्यालय अनठा बना हुआ है। वहीं पर श्री सौभाग्यजी शाह का चैत्यालय भी दर्शनीय है । संघपति घासीरामजी का भी एक सुन्दर चैत्यालय है । वैसे दि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जैन मंदिर केवल दो हैं । (१) भलेश्वर में और (२) गुलालवाड़ी में । इन सब के दर्शन करना चाहिये । इस नगर में यदि वहद् जैन संग्रहालय स्थापित किया जाय तो जैनियों का महत्व प्रगट हो । यहाँ बहुत-से दर्शनीय स्थान हैं, जिनको मोटर बस में बैठकर देखना चाहिये । यहाँ से सूरत जावे । ___ सूरत-(विघ्नहर पार्श्वनाथ ) सूरत नगर ( B. B. C. I R. ) समुद्र से केवल दस मील दूर है। ईस्टइंडिया कम्पनी के समय से यह व्यापार का मुख्य केन्द्र है। चंदावाड़ी में जैन धर्मशाला है और मंदिर भी है । प्रतिमाय मनोज्ञ हैं। वैसे यहां कुल सात दि० जैन मंदिर गोलपुरा-नवापुरा आदि में हैं । नवापुरा में एक कन्याशाला भी है। चंदाबाड़ी में जैन विजयप्रेस, दि० जैन पुस्तकालय व जैनमित्र ऑफिस आदि हैं; जिनके द्वारा इस शताब्दि में सारे भारत के जैनियों में विशेष जागति और धर्मोन्नति की गई है। सूरत के पास कटार ग्राम में भ० श्री विद्यानन्दजी की चरणपादुकायें हैं-वह उनका समाधिस्थान है । महुआ प्राम भी सूरत के निकट है, जहाँ श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ का भव्य मन्दिर है । उसमें भ० पार्श्वनाथजी की मनोज्ञ और प्राचीन प्रतिमा अतिशय-युक्त है, जिसे प्रत्येक वणे के लोग पूजते हैं । सूरत से बड़ौदा जाय। बड़ौदा बड़ौदा गायकवाड़ नरेश की राजधानी है। यहाँ केवल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) दो दि जैन मंदिर है । नईपोल के पास जैन धर्मशाला है । राजमहल आदि यहाँ कई दर्शनीय स्थान हैं कलाभवनमें हस्तकला अच्छी सिखाई जाती है और ओरियंटल लायब्रेरी में प्राचीन साहित्यका अच्छा संग्रह है। यहाँ से पावागढ़ लारियों में होआना चाहिये । पावागढ़ सिद्धक्षेत्र पावागढ़ की चाँपानेर धर्मशाला में ठहरे । यहाँ दो मन्दिर हैं । एक सुन्दर मानस्थंभ हाल ही में बना है। यहाँ पर मेला माघ मुदी १३ से तीन दिन तक स. १८३८ से भरता है । धर्मशालाके पीछे से ही पर्वत पर चढ़ने का मार्ग है । मार्ग कंकरीला होने के कारण दुर्गम है। लगभग छै मील की चढ़ाई है, जिसमें कोट के सात बड़े २ दरवाजे पार करने पड़ते हैं । पांचवे दरवाजे के बाद छटवे द्वार के बाहर भीत में एक दिगम्बर जैन प्रतिमा पद्मासन ।। फीट ऊंची उकेरी हुई लगी बताई गई थी, जिस पर सं० ११३४ लिखा था; परन्तु हमें वह देखने को नहीं मिली । अन्तिम 'नगारखाना दरवाजा' पार करने पर दि. जैनियों के मन्दिर प्रारम्भ होते हैं। जो लाखों रुपये की लागत के कुल पांच हैं। मध्यकाल में पावागढ़ पर अहमदाबाद के बादशाह मुहम्मद बेगढ़ा का अधिकार होगया था । उसने इन मन्दिरों को बहुत कुछ नष्ट भष्ट कर दिया था। बहुतेरे मन्दिर अब भी टटे पड़े हैं । कतिपय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६ ) मन्दिरों के शिखिर फिर से बनवा दिये गये हैं। इसे सिद्धक्षेत्र कहते हैं यहां से श्री रामचन्द्रजी के पुत्र लव-कुश और लाटदेश के राजा पाँच करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष गये बताये जाते हैं। ऊपर तीन मन्दिर समूह में हैं ? यह प्राचीन कारीगरी के बने हैं, परन्तु इनकी शिखरे नई बनाई गई प्रतीत होती है । इनमें से पहिले मन्दिरोंके सामने एक गजभर ऊंचा स्तम्भ बनाहुआ है, जिस पर दो दि० जैन प्रतिमायें मध्यकालीन प्रतिष्ठित है । मन्दिरों में संवत् १५४६ से १९६७ तक की प्रतिमायें विराजमान हैं। दूसरे मन्दिर में विराजित श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथजी की हरित पाषाण की प्रतिमा मनोज्ञ और अतिशययुक्त है। इस प्रतिमा को सं० १६६० बैशाख शुक्ले १३ के दिन मूलसंघ के भ० श्री प्रभाचन्द्रजी के प्रति शिष्य और भ० सुमतिकीर्तिदेवके शिष्य वादीमदभंजन श्री भ० वादीभषण के उपदेशानुसार अहमदाबाद निवासी किन्हीं हूमड़ जानीय श्रावकमहानुभाव ने प्रतिष्ठित कराया था। यहां अन्य मन्दिरों का जीर्णोद्धार होरहा है । थोड़ी दूर आगे चलने पर एक और मन्दिर मिलता है, जिसका जीर्णोद्धार श्री चुन्नीलालजी जरीवाले द्वारा सं० १९६७ में कराया गया है और तभी की प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा भी विराजमान है । फिर तालाब के किनारे दो मंदिर हैं । एक मदिर बड़ा है. जिसके प्राकार की दीवार पर कतिपय मनोज्ञ दि० जैन प्रतिमायें अच्छे शिल्पचातुर्य की बनी हुई हैं और प्राचीन हैं । इस मंदिर का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) जीर्णोद्धार स. १६३७ में परंडाके सेठ गणेश गिरधरजी ने कराया था । तभी को प्रतिष्ठित श्री सुपार्श्वनाथजी प्रभृति तीर्थङ्करों की पांच छै प्रतिमायें हैं । पार्श्वनाथजी की एक प्रतिमा सं० १५४८ की है । शेष प्रतिमायें भ० वादीभषण द्वारा प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर के सामने श्रीलवकुश महामुनि की चरणपादुकाये (सं० १३३७ ) एक गुमटी में बनी हुई हैं । उनके सम्मुख एक दूसरा मदिर फिर से बन रहा है। इनके आगे सीड़ियों को चढ़ाई है, जिनकी दोनों तरफ दि० जैन प्रतिमायें लगी हुई हैं। चोटी पर कालिकादेवी का मंदिर है, जिसे हिन्दू पूजते हैं । इन्हीं सोड़ियों से एक तरफ थोड़ा चलने पर पहाड़ की नोक आती है । यही लव-कुशजी का निर्वाण स्थान है । वापस बड़ौदा आकर अहमदावाद जावे । अहमदाबाद अहमदाबाद गुजरात प्रान्त का खास शहर है । प्राचीन काल से जैन केन्द्र रहा है । पहले वह असावल कहलाता था; परन्तु अहमदशाह (सन् १४४२ ई०) ने उसे नये सिरेसे बसाया और उसका नाम अहमदाबाद रक्खा । स्टेशन से डेढ मील दूर चौक बाजार में त्रिपोल दरवाजे के पास स्व० सेठ माणिकचन्द्र जी द्वारा स्थापित प्रसिद्ध प्रे० दि० जैन बोर्डिङ्गहौस है। वहीं एक दि० जैन धर्मशाला व दो प्राचीन दि. जैन मन्दिर हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (हम) माणिकचौक मांडवी पोल में भी दो मंदिर प्राचीन हैं । एक चैत्यालय स्टेशन के पास है । श्री हठीसिंहजी का श्वेताम्बरीय मंदिर दर्शनीय शिल्प का बना हुआ है । उसे सिद्धाचल की यात्रा से लौटने पर श्री हठीसिंह ने दिल्ली दरवाजे पर सं० १९०३ में बनवाया था । इस विशाल मंदिर के चहुँ ओर ५२ चैत्यालय बने हुए हैं। अहमदाबाद में लैस - कपड़ा आदि बहुत बनता है । यहाँ के देखने योग्य स्थान देख कर पालीताना जाना चाहिये । विरमगांव और सिहोर में गाड़ी बदलती है । पालीताना- शत्रुंजय पालीताना स्टेशन से करीब १ मील दूर नदी के पास धर्मशाला है । शहर में एक अर्वाचीन दि० जैन मंदिर अच्छा बना हुआ है। मूलनायक श्री शान्तिनाथजी की प्रतिमा सं०१६५१ की है । पहाड़ पर दो दि० जैन मंदिर थे, परन्तु छोटा मंदिर अब श्वेताम्बर भाइयों के अधिकार में है । यहां श्वेताम्बरीय जैनी, उनके मंदिर और संस्थायें अत्यधिक हैं । एक श्वे० आगम मंदिर लाखों रुपये खर्च करके बनवाया जा रहा है, जिसमें श्वे० आगमसूत्र पाषाण पर अंकित कराये जायेंगे । शहर से पहाड़ ३५ मील है, जहां तक तांगे जाते हैं । पहाड़ पैर लगभग तीन मील चढ़ने के लिये सीढ़ियां बनी हुई हैं । यह सिद्ध क्षेत्र है । यहाँ से तीन पांडव कुमार - युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम - द्राविड़ A Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( εε) देश के राजा और आठ करोड़ मुनि मोक्ष पधारे हैं । मंदिर के परकोट के पास पहुँचने पर पांडवकुमारों की खडगासन मूर्तियां श्वेताम्बरीय हैं । परकोट के अंदर लगभग ३५०० श्वे० मंदिर अपूर्व शिल्पचातुर्य के दर्शनीय हैं। श्री आदिनाथ, सम्राट् कुमारपाल, विमलशाह और चतुर्मुखमंदिर उल्लेखनीय है । रतनपोल के पास एक दिग० जैन मंदिर फाटक के भीतर है। इस फाटक का सुन्दर दरवाजा आरा के बाबू निर्मलकुमारजी ने बनवाया है । मंदिर में श्रीशान्तिनाथजी की मूलनायक प्रतिमा सं० १६८६ की है । यहां की वन्दना करके जूनागढ़ जावे । जूनागढ़ जूनागढ़ रियासत की राजधानी है । यहाँ, महल. कचहरी, बाग़ वगैरह देखने के स्थान हैं। शहर में एक छोटा-सा दि० जैन मंदिर और धर्मशाला है, परन्तु यहां से तीन मील तलहटी की धर्मशाला में ठहरना चाहिये । सामान यहाँ से ले लेवे । गिरिनार (ऊर्जयन्त) गिरिनार ( ऊर्जयन्त ) मनोहर पर्वतराज है-उस के दर्शन दिल को अनूठी शान्ति देते हैं। धर्मशालाके ऊपर ही गगनचुम्बी ऊर्जयन्त अपनी निराली शोभा दिखाता है। तलहटी में एक दि० जैन मंदिर है, जिसमें सं० १५१० का एक यंत्र और सं० १५४६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १:० ) की साह जीवराजजी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा प्राचीन है। अब शेष मूर्तियां अर्वाचीन हैं । मूलनायक श्री नेमिनाथजी की कृष्ण पाषाण की प्रतिमा सं० २६४७ में पिपलिया निवासी श्री पन्नालाल जी टोंग्या ने प्रतिष्ठित कराई थी । प्रतापगढ़ के श्री बंडीलाल जी के वंशज एक कमेटी द्वारा इस तीर्थराजका प्रबन्ध करते हैं। यह धर्मशाला व कोठी श्री बंडीलालजी के प्रयत्न के फल हैं । धर्मशाला से पर्वत की चढ़ाई का दरवाजा १०० कदम है। वहां पर शिलालेख है, जिससे प्रगट है कि दीवान बेहचरदास के उद्योग से १|| लाख रुपयों की लागत द्वारा काले पत्थर की मजबूत सीढ़ियां गिरिनार की चारों टोकोंपर लगवाई गई हैं । यहीं से चढ़ाई शुरू होती है। गिरिनार महान सिद्धक्षेत्र है । बाईसवें तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथजी का मोक्षस्थान यही है । यहीं पर भगवान ने तप किया था -- केवल ज्ञान प्राप्त किया था और धर्मोपदेश दिया था । राजमती जी ने यहीं से सहस्राम्रवन में आकर उनसे घर चलने की प्रार्थना की थी । जब भगवान के गाढ़े वैराग्य के रंग में उनका मन भी रंग गया तो वह भी आर्यिका हो यहीं तप तपने लगीं थीं। श्री नारायण कृष्ण और वलभद्र ने यहीं आकर तीर्थकर भगवान की वन्दना की थी। भगवान के धर्मोपदेश से प्रभावित होकर यहीं पर श्री कृष्णजी के पुत्र प्रद्य ुम्न - शंत्रुकुमार आदि दि० मुनि हुये थे और कर्मों को विध्वंश कर सिद्ध परमात्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) हुये थे । गजकुमार मुनिपर सोमिलविप्र ने यहीं उपसर्ग किया था, जिसे समभाव से सहन कर वह मुक्त हुये थे । गणधर महाराज श्री वरदत्त जी भी यहीं से अगणित मुनिजनों सहित मोक्ष सिधारे थे । ग़र्ज यह है कि गिरिनार पर्वतराज महापवित्र और परमपूज्य निर्वाण क्षेत्र है । उसकी वन्दना करते हुये स्वयमेव ही माल्हाद प्राप्त होता है - भक्ति से हृदय गद्गद हो जाता है । और कवि की यह उक्ति याद आती है: " मा मा गर्व ममर्त्यपर्वत परां प्रीतं भजन्तस्त्वया । भ्रम्यन्ते रविचन्द्रमः प्रभृतयः के के न मुग्धाशयाः ॥ एको रैवतभूधरो विजयतां यद्दर्शनात् प्राणिनो । यांति भ्रांति विवर्जिताः किल महानंद सुखश्रीजुषः ॥ " भावार्थ - "हे पर्वत ! गर्व मत करो; सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र तुम्हारे प्रेम में ऐसे मुग्ध हुये हैं कि रास्ता चलना भूल गये हैं, ( वह प्रतिदिन तुम्हारीही परिक्रमा देते हैं), किन्तु वही क्या ? ऐसा कौन है जो तुम पर मुग्ध न हो ! जय हो, एक मात्र पर्वत रैवतकी ! जिसके दर्शन करने से लोग भ्रान्तिको खोकर श्रानन्द का भोग करते और परम सुखको पाते हैं !" गिरिनार के दूसरे नाम ऊर्जयन्त और रैवत पर्वत भी हैं । वह समुद्रतलसे ३६६६ फीट ऊंचा प्रकृतिसौन्दर्यका पूर्वस्थल है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) उस पर तीर्थों -मंदिरों, राजमहलों, क्रीड़ाकुजों, झरनों और लह. लहाते बनों ने उसकी शोभा अनठी बना दी है। उसकी प्राचीनता भी श्री ऋषभदेवजी के समय की है । भरत चक्रवर्ती अपनी दिग्विजय में यहां आये थे। एक ताम्रपत्र से प्रगट है कि ई० पूर्व ११४० में गिरिनार (रैवत ) पर भ० नेमिनाथजी के मन्दिर बन गये थे। गिरिनार के पास ही गिरिनगर बसा था, जो आज कल जूनागढ़ कहलाता है। यहीं पर चन्द्रगुफा में आचार्यवयं श्री धरसेनजी तपस्या करते थे और यहीं पर उन्होंने भतबलि और पुष्पदन्त नामक आचार्यों को आदेश दिया था कि वह अवशिष्ट श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करें! सम्राट अशोक ने यहीं पर जीव दया के प्रतिपादक धर्म लेख पाषाणों पर लिखाये थे। छत्रप रुद्रसिंह के लेख से प्रगट है कि मौर्य काल में एवं उसके बाद भी गिरिनार के प्राचीन मंदिर आदि तूफान से नष्ट हो गये थे । मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु श्री भद्रबाहु स्वामी भी गिरिनार पधारे थे । दि० जैन मुनिगण गिरिनार पर ध्यानलीन रहा करते थे। छत्रप रुद्रसिंह ने संभवतः उनके लिये गुफायें बनवाई थीं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य भी गिरिनार की बन्दना करने आये थे और उन्होंने श्री सरस्वतीदेवी की पाषाण मूर्ति के मुखसे 'दिगम्बर मत की प्राचीनता कहलवाकर दिगम्बर जैनों का प्रभुत्व प्रगट किया था । 'हरिवंशपुराण' में श्री जिनसेनाचार्यजी ने लिखा है कि अनेक यात्रीगण श्री गिरिनार की वंदना करने आते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) हैं । श्वेताम्बरीय 'उपदेशतरंगिणी' आदि ग्रन्थों से प्रगट है कि पहले यह तीर्थ दि० जैनों के अधिकार में था । श्वे० संघपति धाराक ने अपना क़ब्जा करना चाहा, परन्तु गढ़ गिरिनारके राजा खड्गार ने उसे भगा दिया था । खङ्गार राजा चूडासमासवंश के थे, जिन्होंने १०वीं से १६वीं शताब्दि तक राज्य किया था । वह दिगम्बर जैन धर्म के संरक्षक थे। उन्हीं के वंश में राजा मंडलीक हुये थे; जिन्होंने भ० नेमिनाथ का सुन्दर मंदिर गिरिनार पर बनवाया था । सुलतान अलाउद्दीन के समय में दिल्ली के प्रतिष्ठित दिग० जैन सेठ पूर्णचन्दजी भी संघसहित यहाँ यात्रा को आये थे । उस समय एक श्वेताम्बरीय संघ भी आया था। दोनों संघोंने मिलकर साथ-साथ वन्दना की थी । संक्षेप में गिरिनार का यह इतिहास है । दक्षिण भारत के मध्यकालीन दिगम्बर जैन शिलालेखों से भी गिरिनार तीर्थ की पवित्रता प्रमाणित होती है । तलहटी से लगभग दो मील पर्वत पर चढ़ने के पश्चात् सोरठ का महल आता है । यह चूड़ासमासवंश के राजाओं का गढ़ है । एक छोटी सी दिग० जैन धर्मशाला भी है । किन्तु सोरठ. के महल तक पहुँचने के पहले ही मार्ग में एक सूखा कुन्ड मिलता है, जिसके ऊपर गिरिनार पर्वत के पार्श्व में एक पद्मासन दि०. जैन प्रतिमा अति है । इस प्रतिमा की नासिका भग्न है । इस मूर्तिकी बगल में ही एक युगल - पुरुष व स्त्री की मूर्ति बनी हुई है और कमलनाल पर जिन प्रतिमा अति है । युगल संभवतः : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) धरणेन्द्र- पद्मावती होंगे । यह मूर्तियां प्राचीनकाल की हैं। यहां से थोड़ी दूर आगे चढ़ने पर - सोरठ महल पहुँचने से पहले ही मार्ग से ज़रा हटकर एक चरणपट्ट मिलता है । इस पट्टमें एक चरण पादुकायें बनीं हैं, जिनके ऊपर सीधे हाथ को एक छोटे चरणचिन्ह बने हैं । उनके बराबर एक लेख है जो घिसजानेकी वजहसे पढ़ने में नहीं आता है । इन स्थानोंकी अब कोई वंदना नहीं करता । किन्तु इनकी रक्षा करना आवश्यक है । सोरठ - महल से जैनमंदिर प्रारम्भ हो जाते हैं। इन सब पर प्रायः श्वे० जैनियोंका अधिकार है । श्रीकुमारपाल - तेजपाल आदि के बनवाये हुये मंदिर अवश्य दर्शनीय हैं - उनका शिल्पकार्य अनूठा है। इन मंदिरों में एक प्राचीन मंदिर 'प्रेनिट' (Granite ) पाषाण का है, जिसकी मरम्मत सं० ११३२ में सेठ मानसिंह भोजराज ने कराई थी और जिसे मूल में कर्नल टॉड सा० दिगम्बर जैनियों का बताने हैं। यहीं श्री नेमिनाथ मंदिर के दलान में वर्जेस सा० ने एक चरणपादुका स० १६१२ की भ० हर्षकीर्तिकी देखी थीं । मूलसंघ के इन भट्टारक म० ने तब यहां की यात्रा की थी । मूलतः यह मंदिर दि० जैन ही होगा । यहां से आगे एक कोट में दो मन्दिर बड़े रमणीक और विशाल दिगम्बर जैनों के हैं इनमें एक प्रतापगढ़ निवासी श्री बंडीलाल जी का सं० १६१५ का बनवाया हुआ है । दूसरा लगभग इसी समय का शोलापुर वालों का है । इसके अतिरिक्त एक छोटा-सा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com " Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) मंदिर दिल्ली के श्री सागरमल महावीरप्रसाद जी ने सं० १९७७ में बनवाया था । इस मंदिर में ही यहाँ पर सबसे प्राचीन खड्गासन प्रतिमा बिराजमान है; जिसपर कोई लेख पढ़ने में नहीं आता है वैसे श्री शांतिनाथ जी की सं० १६६५ की प्रतिमा प्राचीन है । सं० १९२० की नेमिनाथस्वामी की एक प्रतिमा गिरिनार जी की प्रतिष्ठा की हुई हैं; जिसने अनुमानित है कि उस वर्ष यहां जिन बिम्ब प्रतिष्ठा हुई थी । इस पहली टोंक परही विशाल मंदिर है । अन्य शिविरों पर यह विशेषता नहीं है । इस मंदिर - समूह के पासही राजुलजी की गुफा है वहां पर राजुलजी ने तप किया था । इसमें बैठकर घुसना पड़ता है । उस में राजुलजी की मूर्ति पाषाण में उकेरी हुई है और एक चरण पादुकायें हैं । । यहाँ से दूसरी टोंकपर जाते हैं जो अम्बादेवी की टोंक कहलाती है। यहाँ पर अम्बादेवी का मंदिर है, जो मूलत: जैनियों का है। अब इसे हिन्दू और जैनी दोनों पूजते हैं । यहाँ पर चरणपादुकायें भी हैं। आगे तीसरी टोंक आती है जिसपर नेमिनाथस्वामी के चरणचिन्ह हैं । यहीं बाबा गोरखनाथ के चरण और मठ हैं, जिन्हें जैन पूजते हैं। इस टोंक से लगभग चार हजार फीट नीचे उतरकर चौथी टोंक पर जाना होता है । इस पर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ नहीं है- बड़ी कठिन चढ़ाई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) सुना था कि इस पर भी सीढ़ियाँ बनेंगी । टोंक के ऊपर एक काले पाषाण पर श्री नेमिनाथजी की दिगम्बर प्रतिमा और पास ही दूसरी शिला पर चरण चिन्ह हैं । सं० १२४४ का लेख है । कुछ लोगों का खयाल है कि यहीं से नेमिनाथ स्वामी मुक्त हुये थे और कुछ लोग कहते हैं कि पांचवीं टोंक से नेमिनाथ स्वामी मोक्ष गये - यह स्थान शंबु - प्रद्युम्न नामक यादवकुमारों का निर्वाण स्थान है । इस टोंक से नीचे उतर कर फिर पांचवीं टोंक पर जाना होता है । यह शिखिर सब से ऊँचा और अतीव सुन्दर है । इस पर से चहुँ ओर प्राकृत दृश्य नयनाभिराम दृष्टि पड़ता है । टोंक पर एक मठिया के नीचे नेमिनाथ स्वामी के चरण चिन्ह हैं; जिनके नीचे पास ही शिला भाग में उकेरी हुई एक प्राचीन दिगम्बर जैन पद्मासन मूर्ति है। यहां एक बड़ा भारी घंटा बंधा हुआ है । वैष्णव यात्री इसे गुरुदत्तात्रय का स्थान कह कर पूजते हैं और मुसलमान मदारशाद पीर का तकिया कह कर जियारत करते हैं। इस टोंक से ५-७ सीढ़ियाँ उतरने पर संवत् १९०८ का एक लेख मिलता है। नीचे उतर कर वापिस दूसरी टोंक तक आना होता है । यहाँ गोमुखी कुन्ड से दाहिनी ओर सहस्राम्रबन ( से सावन) को जाना होता है, जहाँ भ० नेमिनाथ ने वस्त्राभूषण त्यागकर दिगम्बरीय दीक्षा धारण की थी । यहाँ से नीचे धर्मशाला को जाते हैं । इस पर्वतराज से ७२ करोड़ मुनिजन मोक्ष पधारे हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) गिरिनार से उत्तर-पश्चिम की ओर से २० मील दूर ढंक नामक स्थान है जहाँ काठियावाड़ में सब प्राचीन दिगम्बर जैन प्रतिमायें दर्शनीय हैं । जनागढ़ से जेतलसर-महसाना होते हुये तारंगाहिल जाना चाहिये। तारंगाजी तारंगा बड़ा ही सुन्दर निर्जन एकान्त स्थान है। स्टेशन से पर्वत करीब तीन-चार मील दूर है। इस पवित्र स्थान से वरदत्त वरंगसागरदत्तादि साढ़े तीन करोड़ मुनिराज मुक्त हुये हैं । एक कोट के भीतर मंदिर और धर्मशाला बने हुये हैं; परन्तु स्टेशन की धर्मशाला में ठहरना सुविधा जनक है । पर्वत पर धर्मशाला के पास ही १३ दिगम्बर जैन मन्दिर प्राचीन हैं, जिसमें कई वेदियों में ऊपर-नीचे दि० जैन प्रतिमायें विराजमान हैं। यहाँ पर सहस्रकूट जिनालय में ५२ चैत्यालयों की रचना अत्यन्त मनोहर है। यहाँ एक मंदिर में श्रीसंभवनाथजीको अत्यन्त प्राचीन प्रतिमा महा मनोज्ञ है । यहीं पास में श्वेताम्बरीय मंदिर दर्शनीय है। इसे कई लाख रुपयोंकी लागतसे सम्राट् कुमारपालने बनवाया था । धर्मशाला से संभवतः उत्तर की ओर एक छोटा-सा पहाड़ है, जिसे 'कोटिशिला' कहते हैं । मार्ग में दाहिनी ओर दो छोटीसी मठियां हैं, जिनमें से एक में भट्टारक रामकीर्ति के और दूसरी में उनमें शिष्य भट्टारक पननंदि के चरण चिन्ह हैं । चरणचिन्हों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) पर के लेखोंसे स्पष्ट है कि सं० १६३३ फाल्गुण शुक्ल सप्तमी बुद्धवारको उन्हों ने तारंगाजी की यात्रा की थी। वे मूलसंघके आचार्य थे । मठिया के पास पहाड़ की खोह में क़रीब १|| हाथ ऊंचा एक स्तंभ पड़ा है, जिस पर प्राचीन चतुर्मुख दि० जैन प्रतिमा अंकित हैं । खड़गासन खंडित प्रतिमा भी पड़ीं हैं, जिन पर पुराने जमानेका लेप दर्शनीय है ऊपर पहाड़ की शिखिर पर एक छोटे से मंदिर में || गज ऊंची खड़गासन जिन प्रतिमा है और चार चरण चिन्ह विराजित हैं प्रतिमापर सं० १९२१ का मूलसंघी भट्टारक वीरकीर्तिका लेख है। चरणों के लेख पढ़ने में नहीं आते । यहाँ सबसे प्राचीन प्रतिमा श्रीवत्सचिन्ह अङ्कित सं० ११९२ बैशाख सुदी ६ रविवार की प्रतिष्ठित है । लेख में भ० कीर्ति और प्रावाकुल के प्रतिष्ठाकारकजी के नाम भी हैं । यहां की वंदना करके दूसरी ओर एक मील ऊची 'सिद्ध शिला' नाम की पहाड़ी है । इस के मार्ग में एक प्राकृतिक गुफा बड़ी ही सुन्दर और शीतल मिलती है । ऊपर पर्वत पर दो टोंकें हैं । पहले श्री पार्श्वनाथ जी और कछुआ चिन्हवाली श्री मुनिसुव्रतनाथजी की सफेद पाषाण की खड़गासन जिन प्रतिमायें हैं । उनमें से एक परके लेख से स्पष्ट है कि सं०११६६ में बैशाख सुदी ६ रविवार को जब कि चक्रवर्ती सम्राट् जयसिंह शासनाधिकारी थे प्राग्वाट कुलके सा०लखन (लक्ष्मण) ने तारंगा पर्वत पर उस प्रतिबिंबकी प्रतिष्ठा कराई थी । दूसरी टोंक पर भ० नेमिनाथ की पद्मासन हरित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) पाषाण की मनोज्ञ प्रतिमा सं० १६५४ की प्रतिष्ठित है । यहीं पर सं० १६०२ के भ० सुरेन्द्रकीर्तिजी के चरणचिन्ह हैं। पर्वत की वंदना करके वापस स्टेशन पर आजावे और वहाँ से आबूरोड जावे। आबू पर्वत आबूरोड स्टेशन से आबू पर्वत १८ मील दूर है; आबपर्वत पर दिलवाड़ा में विश्वविख्यात दर्शनीय जिनमंदिर हैं। यहां दि० जैन धर्मशाला और एक बड़ा मंदिर श्री आदिनाथ स्वामी का है। शिलालेख से प्रगट है कि इस मंदिर की प्रतिष्ठा वि० सं० १४६४ में मिती बैशाख शुक्ला १३ को ईडर के भट्टारक महाराज ने कराई थी। दिलवाड़ा में श्री वस्तुपाल-तेजपाल और श्री विमलशाह द्वारा निर्मापित संगमरमर के पांच मन्दिर अद्भुत शिल्पकारी के बने हुये हैं। इनकी कारीगरी देखते ही बनती है। करोड़ों रुपयों की लागत के यह मंदिर संसार की आश्चर्यमई वस्तुओं में गिने जाते हैं। इनके बीच में एक छोटासा प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर भी हैं। इनके दर्शन करना चाहिये । यहाँ से अचलगढ़ जावे । वहाँ भी श्वेताम्बरीय जैनों के दर्शनीय मन्दिर हैं। जिनमें १४४४ मनस्वर्ण की जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। उन्हीं में दिगम्बर प्रतिमा भी बताई जाती है । इस अतिशयक्षेत्र के दर्शन करके अजमेर आवे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) अजमेर चौहान राजाओं की राजधानी अजमेर आज भी I का प्रमुख नगर है । कहते हैं कि उसे ने बसाया था । इन चौहान राजाओं सोमेश्वर दि० जैन धर्म के पोषक थे । निस्सन्देह अजमेर जैनधर्म का प्राचीन केन्द्र स्थान है । मूलसंघ के भट्टारकों की गद्दी यहां रही है और पहाड़ पर पुरातन जैन कीर्तियां थीं। शहर में १३ शिखरवन्द मंदिर और २ चैत्यालय हैं। मंदिरों में सेठ नेमिचन्दजी टीकमचन्दजी की नसियां कलामय दर्शनीय है। दूर-दूर के अजैनयात्री भी उसे देखने आते हैं । यह मन्दिर तीन मज़िलका बना हुआ है । पहली मंजिल में अयोध्या और समवशरणकी रचना रंग विरंगी मनोहर बनी हुई है । दूसरी मंजिल में स्फटिक, माणिक आदि की प्रतिमायें विराजमान हैं। दीवालों पर तीर्थक्षेत्र के नक़शे व चित्र बने हुये हैं। तीसरी मंजिल में काठ के हाथी घोड़े आदि उत्सवका सामान है । मन्दिर के सामने एक उत्तंग मानस्तंभ बन रहा है । अन्य मन्दिर भी दर्शनीय हैं । शहर में दरगाह आदि देखने योग्य चीजें हैं। यहांसे राजपूताना और मध्यभारत की तीर्थयात्रा के लिये उदयपुर जावे । । 'राजपूताना चौहान राजा अजयपाल में पृथ्वीराज द्वि० और उदयपुर. उदयपुर में आठ दिग० जैन मन्दिर हैं - दो चैत्यालय भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) हैं । यहाँ राज्य की इमारतें और प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय है । यहां से ४० मील दूर केशरियाजी तांगे में जावे । केशरियानाथ नदी किनारे कंगूरदार कोट के भीतर प्राचीन मन्दिर और धर्मशालायें बनी हुई हैं। मूलनायक श्री आदिनाथजी की महामनोहर और अतिशययुक्त प्रतिमा है । यह मन्दिर ५२ देहरियों से युक्त, विशाल और लाखों रुपयों की लागत का है। मूलतः यहां पर दिगम्बर जैन भट्टारकों का अधिपत्य था और उन्हीं की बनवाई हुई अठारहवीं शताब्दि की मूर्तियां और भव्य इमारतें हैं । किन्तु आज कल जैन अजैन सब ही दर्शन पूजन करते हैं । यहाँ केशर खूब चढ़ाई जाती है। तीनों समय पूजा होती है । दूधका अभिषेक होता है। बड़े मन्दिर के सामने फाटक पर हाथी के ऊपर नाभिराजा और मरुदेवीजी की शोभनीय मूर्तियाँ बनी हैं। उनके दोनों ओर चरण है । मन्दिर के अन्दर आठ स्तम्भों का दालान है । उसके आगे जाकर सात फीट ऊंची श्याम वर्ण श्री आदिनाथजी की सुन्दर दिगम्बरी प्रतिमा विराजमान है । वेदी और शिखरों पर नकासी का काम दर्शनीय है । यहाँ एक मील दूर भगवान् की चरणपादुकायें हैं। वहीं से धूलिया मील के स्वप्न के अनुसार यह प्रतिमा जमींन से निकालीं थीं । धूलिया भील के नाम के कारण ही यह गांव घुलेब कहलाता है 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) बीजोल्या-पार्श्वनाथ बीजोल्या ग्राम के समीप ही आग्नेय दिशा में श्रीमत्पार्श्वनाथ स्वामी का अतिशयक्षेत्र प्राचीन और रमणीय है सैकड़ों स्वाभाविक चट्टानें बनी हुई हैं। उनमें से दो चट्टानों पर शिलालेख और 'उन्नतशिखिरपुराण' नामक ग्रंथ अंकित है। यहां श्री पार्श्वनाथजी के पाँच दि० जैन मंदिर हैं । इन मंदिरों को अजमेर के चौहानराजा पृथ्वीराज द्वि० और सोमेश्वर ने ग्राम भेंट किये थे। इनको सन् १९७० ई० में लोलाक नामक श्रावक ने बनवाया था । मालूम होता है कि यहां पर उस समय दि० जैन भट्टारकों की गद्दी थी । पद्मनंदि-शुभचंद्र आदि भट्टारकों की यहां मूर्तियां भी बनी हुई हैं । इसका प्राचीन नाम विन्ध्याचली था। यहां के कुडों में स्नान करने के लिये दूर-दूर से यात्री आते थे। शहर में दि० जैनियों की बस्ती और एक दि० जैन मन्दिर है। चित्तौड़गढ़ सन् ७३८ ई० में वप्पारावल ने चित्तौड़ राज्य की नींव डाली थी। यहाँका पुराना किला मशहूर है, जिसमें छोटे-बड़े ३५ तालाब और सात फाटक हैं । दर्शनीय वस्तुओं में कीर्तिस्तंभ, जयस्तंभ, राणा कुम्भा का महल आदि स्थान हैं । कीर्तिस्तंभ ८० फीट ऊंचा है इसको दि० जैन बघेरवाल महाजन जीजाने १२ वीं-१३ वीं शताब्दि में प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथजी की प्रतिष्ठा में बनवाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) था । जयस्तंभ १२० फीट ऊंचा है । इसे राणा कुंभ ने बनवाया था । इनके अतिरिक्त यहां और भी प्राचीन स्थान हैं । यहाँ से नीमच होता हुआ इन्दौर जावे । इन्दौर इन्दौर संभवतः १७१५ ई० में बसाया गया था। यह होल्कर राज्यकी राजधानी है । यहाँकी रानी अहिल्याबाई जगतप्रसिद्ध है। खंडेलवाल जैनियों की आबादी खासी है। स्टेशन से एक फर्लाङ्गके फासले पर जँवरीवाग़में राव राजा दानवीर सरसेठ स्वरूपचन्द हुकमचन्दजी की नसियाँ है वहीं धर्मशाला है । एक विशाल एवं रमणीक जिन मंदिर है । इसी धर्मशाला के अन्दर की तरफ़ जैन बोर्डिङ्ग और जैन महाविद्यालय भी हैं इसके अतिरिक्त छावनी में दो, तुकोगंजमें एक, दीतवारा में एक, और मल्हारगंज में एक मंदिर है । सर सेठजी के शीशमहल के मंदिर जी में शीशेका काम दर्शनीय है। सेठजी की ओर से यहाँ कई पारमार्थिक जैन संस्थायें चल रही हैं। स्व० शनवीर सेठ कल्याणमल जी द्वारा स्थापित श्री तिलोकचन्द दि० जैन हाईस्कूल भी चलरहा है। इन को भी देखना चाहिये । यहाँ होल्कर कालिज राजमहल श्रादि स्थान देखने योग्य हैं । यहाँ से यात्री को मोरटक्का का टिकिट लेना चाहिये । वहाँ धर्मशाला है और थोड़ी दूर रेवानदी है; जिसे पार उतर कर सिद्धवरकूट जाना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) सिद्धवरकूट सिद्धवरकूट से दो चक्रवर्ती और दस कामदेव आदि साड़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष पधारे हैं । यहाँ एक कोट के अन्दर आठ दि० जैन मन्दिर और ४ धर्मशालायें हैं। प्रतिमायें अतीव मनोज्ञ हैं । एक मंदिर जंगल में भी है। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त सुन्दर और शान्त है । क्षेत्रके एक तरफ नर्मदा है। दूसरी तरफ जंगल और पहाड़ियां हैं। कितनी सुन्दर तपोभूमि है। यहाँ सिद्धवरकूट के पास ही हिन्दुओं का बड़ा तीर्थ ओंकारेश्वर है। यहां से मोरटका आना चाहिये और वहाँ से सनावद स्टेशन जाना चाहिये। ऊन (पावागिरि) सनावद से मोटर लारी द्वारा खरगैन जाना चाहिये । खरगैन से उन (पावागिरि) क्षेत्र दो मील है । यह प्राचीन अतिशयक्षेत्र पावागिरि नाम से हाल ही में प्रसिद्ध हुआ है । यहां एक धर्मशाला और एक श्राविकाश्रम और धर्मशाला में एक नया मन्दिर भी बनवाया गया है । नया मन्दिर बड़वाह की दानशीला वेसरवाई ने बनवाया है । यहाँ बहुत से मन्दिर और मूर्तियाँ जमीन से निकली हैं; जो दर्शनीय हैं और मालवा के उदयादित्य राजा के समय के बने हुए हैं। पुराने जमाने में यहाँ एक विद्यालय भी था । पाषाण पर स्वर-व्यंजन अंकित हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) इनमें से कुछका जीर्णोद्धार लाखों रुपये खर्च करके कियागया है। कई मन्दिर बहुत ही टूटी अवस्था में हैं और उनका जीर्णोद्धार होने की आवश्यकता है। यहां के दर्शन कर लारी से बड़वानी जाना चाहिये । बड़वानी - चूलगिरि (बावनगजा ) I बड़वानी एक सुन्दर व्यापारिक नगर है । यहां एक बड़ा भारी दि० जैन मन्दिर है एक पाठशाला और दो धर्मशालायें हैं। बड़वानी का प्राचीन नाम सिद्धनगर सिद्धनाथ के विशाल मन्दिर के कारण प्रसिद्ध था । यह मंदिर मूलतः जैनियों का है; परन्तु अब हिन्दुओं ने उसमें महादेव की स्थापना कर रक्खी है। I बड़वानी से दक्षिण की ओर थोड़ी दूर पर चूलगिरि नामक पर्वत है । यहां से इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण मोक्ष गये हैं। यहां तलहटी में दो दि० जैन मन्दिर और दो धर्मशालायें हैं । यह मन्दिर बड़े रमणीक हैं । एक मन्दिर में एक बावनगजा जी की खड़गासन प्रतिमा महा मनोहर शान्तिप्रद और अनूठी है। यह पहाड़ में कोरी हुई ८४ फीट ऊंची है और श्री ऋषभदेव जी की है। किन्तु कुछ लोग उसे कुम्भकर्ण की बताते हैं । उसीके पास एक नौगज की प्रतिमा इन्द्रजीत की है। इन दोनों प्रतिमाओं के दर्शन से चित्त प्रसन्न होता है। पहाड़ पर कुल २२ मन्दिर और एक चैत्यालय है । बड़वानी में जैन बोर्डिंग भी है। यहां से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) मऊ छावनी आकर उज्जैन जाना चाहिये । उज्जैन उज्जैन प्राचीन अतिशयक्षेत्र है। यहीं के स्मशान भमि में अंतिम तीर्थङ्कर भ० महावीर ने तपस्या की थी—यहीं पर रुद्र ने उन पर घोर उपसर्ग किया था । उपरान्त सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की एक राजधानी उज्जैन थी । श्रुतकेवली भद्रबाहुजी इस भूमि में विचरे थे । प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य की लीला भमि भी यही थी । आज यहाँ बहुत-से प्राचीन खंडहर पड़े हुए हैं । स्टेशन से दो मील दर नमक मंडी में जैन धर्मशाला और मन्दिर है। दसरा मंदिर नयापुरा में है । आकाशलोचनादि देखने योग्य स्थान हैं । यहां से यात्री को भोपाल ब्राँच लाइन में मकसी स्टेशन जाना चाहिये। __ मकसी पार्श्वनाथ स्टेशन के पास ही धर्मशाला है, जहाँ से एक मील दूर कल्याणपुर नामक ग्राम है ! यहाँ भी दो दि० जैन मंदिर और धर्मशालायें हैं, जिनमें कई प्रतिमायें मनोज्ञ हैं । यहाँ एक प्राचीन जैनमंदिर है, जो पहले दिगम्बरियों का था । अब उस पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों का अधिकार है। सुबह ६ बजे तक दि० जैनी पूजन करते हैं । दर्शन हर वक्त किये जाते हैं । इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) मंदिर में मूलनायक श्री पार्श्वनाथ स्वामी की ढाई फीट ऊँची श्याम पाषाण की अतिशययुक्त चतुर्थ काल की महामनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है । इस प्रतिमा के कारण ही यह अतिशयक्षेत्र प्रसिद्ध है । इस मन्दिर के चारों ओर ५२ देवरी और बनी हुई हैं, जिनमें ५२ दि० जैन प्रतिमायें मूलसंघी शाह जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान हैं। यहां के दर्शन कर के भोपाल जाये । 1 भोपाल यहाँ चौक बाजार के पास जैन धर्मशाला है । यहाँ एक दि० जैन मंदिर और एक चैत्यालय है । यहाँ के कुछ मील दूर जंगल में बहुत-सी जैन प्रतिमायें पड़ी हैं । उनकी रक्षा होनी चाहिये । एक बड़ी खगासन सुन्दर प्रतिमा एक मकान में विराजमान करदी गई है । यहाँ दर्शनीय स्थानों, प्रसिद्ध तालाब तथा नवाबी इमारतों को देखकर इटारसी होता हुआ नागपुर अकोला जावे । श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ श्री अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ अतिशयक्षेत्र अकोला स्टेशन (G.I.P.) से १६ कोस दूर शिरपुर ग्राम के पास है । शिरपुर में दो दि० जैन मंदिर हैं, जिनमें एक बहुत पुराना है । उस के भौंहरे में २६ दि० जैन प्रतिमायें विराजमान हैं । इन के सिवाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) चार नशियां भी दिगम्बर आम्नायकी हैं । यहाँ मूलनायक प्रतिमा श्रीअन्तरिक्ष पार्श्वनाथ की चतुर्थकाल की है। यह प्रतिमा अनुमान २॥ फीट ऊँची अधर जमीन से एक अंगुल आकाश में तिष्ठे है। नागपुर स्टेशन से एक मील दूर जैन धर्मशाला में ठहरे । यहां कुल १२ दि० जैन मंदिर हैं। अजायबघर, चिड़ियाघर, मिल आदि देखने योग्य स्थान हैं । यहाँ से कारंजा होकर ऐलिचपुर जाना चाहिये । एलिचपुर से परतवाड़ा होता हुआ मुक्तागिरि जावे । इन स्थानों में भी दर्शनीय जिनमंदिर हैं। मुक्तागिरि यहाँ तलहटी में एक जैन धर्मशाला और एकमंदिर है । यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अपूर्व है। तलहटी से दो फर्लाङ्ग की चढ़ाई है। पहाड़ पर सीढ़ियां बनी हुई हैं । कहते हैं कि इस स्थान पर बहुत से मोतियों की वर्षा हुई थी, इसलिये इसका नाम मुक्तागिरि पड़ा है । परन्तु यह ज्यादा उपयुक्त है कि निर्वाणक्षेत्र होने के कारण वह मुक्तागिरि कहलाया। पर्वत पर कुल २८ मंदिर अति मनोज्ञ हैं। अधिकांश मंदिर प्रायः १६वीं शताब्दी के बने हुए हैं। परन्तु कोई-कोई मंदिर बहुत प्राचीन हैं । एक ताम्रपत्र में इस पवित्र स्थान से सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार का सम्बन्ध प्रमाणित होता है । यहाँ ४० वें नं० का मन्दिर पर्वत के गर्भ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) में खुदा हुआ प्राचीन है । यही मन्दिर 'मेदगिरि' नाम से प्रसिद्ध है इसमें नकाशी का काम बहुत अच्छा है । स्तंभों और छत की रचना अपूर्व है । श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा दर्शनीय है । इस मन्दिर के समीप ही लगभग २०० फीट की ऊंचाई से पानी को धारा पड़ती है, जिससे एक रमणीय जलप्रपात बन गया है । यहां के जलप्रपातों के कारण यह क्षेत्र अति शोभनीक दिखता है । पार्श्वनाथ भगवान् का नं० १ का मन्दिर भी प्राचीन और दर्शनीय शिल्प का नमूना है । यह प्रतिमा सप्तफणमंडित प्राचीन है इस पर्वत से साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्ति पधारे हैं । यहाँ पर निरन्तर केशर की वर्षा होती बताई जाती है । वहां से अमरावती होकर भातकुली जावे। श्रमरावती में १४ मंदिर व २२ चैत्यालय हैं । भातकुली अमरावती से भातकुली दस मील दूर है । यह अतिशय क्षेत्र केशरियाजी की तरह प्रभावधारी है । यहां ३ दि० जैनमंदिर व दो चैत्यालय हैं । श्री ऋषभनाथजी की प्रतिमा मनोज्ञ है । यहां से अमरावती और कामठी होकर रामटेक जावे । रामटेक स्टेशन से डेढ़ मील के फासले पर जैन धर्मशाला है। शहरके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) पास ही जंगल में अत्यन्त रमणीक मंदिरों का समूह है । कुल दस मंदिर हैं । उनमें दो मंदिर दर्शनीय और भारी लागत के हैं; इनमें हाथी घोड़ा आदिकी मूर्तियां बनी हुई हैं। इनमें एक मंदिर में १८ फीट ऊँची कायोत्सर्ग पीले पाषाण की श्री शान्तिनाथजी की प्रतिमा अति मनोज्ञ है । अन्य मंदिर प्रायः सं० १६०२ के बने हुए हैं। कहते हैं कि श्रीअप्पा साहब भोंसला के राजमंत्री वर्धमान सावजी श्रावक थे । एक दिन राजा रामटेक आये । उन्होंने रामचन्दजी के दर्शन करके भोजन किये; परन्तु मंत्री वर्धमान ने भोजन नहीं किये; क्योंकि तब तक उन्होंने देवदर्शन नहीं किये थे । इसपर राजाने नग्नदेव के मंदिर का पता लगवाया तो जंगल के मध्य रामटेक के मन्दिरों का पता चला। मंत्रीजी ने दर्शन करके आनन्द मनाया और यहाँ पर कई मंदिर बनवाये । यहाँपर श्रीरामचन्द्र जी का शुभागमन हुआ था । यहाँ से छिंदवाड़ा होकर सिवनी जावे । सिवनी सिवनी परिवार जैनियों का केन्द्रस्थान है । यहाँ २१ मन्दिर तालाब के किनारे बने हुये हैं। यहां का चाँदीका रथ दर्शनीय है। एक श्राविकाश्रम है । यहाँ से जबलपुर जावे । जबलपुर भी परवार जैनियों का प्रमुख केन्द्र है । यहाँ www.umaragyanbhandar.com जबलपुर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) लार्डगंज की धर्मशाला में ठहरे । यहाँ ४६ दि० जैन मंदिर और तीन चैत्यालय हैं । एक लायब्रेरी और बोर्डिङ्ग हाउस भी है । यहाँ से कुछ दूर पर नर्मदा नदी में धुआंधार नामक स्थान देखने योग्य है । बाहुरीवन्द क्षेत्र में श्री शान्तिनाथ जी की १२ फीट ॐ ची मूर्ति दर्शनीय है । सिहोरारोड (E.I.R. ) से यह १८ मील है | वैसे जबलपुर से करेली स्टेशन जावे । यहां से मोटर लारी द्वारा बड़ी देवरी होकर श्री बीनाजी पहुँचे । श्री बीनाजी I यहां एक छोटी-सी धर्मशाला और तीन शिखिर बंद मंदिर हैं । इनमें सब से पुराना मंदिर मूलनायक श्री शान्तिनाथजी का है, जिसमें उपर्युक्त प्रतिमा १४ फीट अवगाहना की अद्वितीय शान्तमुद्रा को लिये हुये खगासन विराजमान है । यह प्रतिमा संभवतः १२ वीं शताब्दि की अतिशययुक्त है । दूसरे मंदिर में श्यामवर्ण १२ फीट अवगाहना की श्री वर्द्ध मान स्वामी की प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है । इस क्षेत्र का इतिहास ज्ञात नहीं है । देवरी होकर सागर जावे । सागर स्टेशन से लगभग एक मील दूर धर्मशाला है । यहाँ ३७ दि० जैनमंदिर है सतर्क सुधा तरंगिणी पाठशाला एवं अन्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) संस्थायें हैं । यहाँ ५४६ मील लम्बा चौड़ा ताल है। यहाँ से द्रोणगिरि-नैनागिरि जावे। द्रोणगिरि यह सेंदप्पा ग्राम के पास है । सेदप्पा में एक मंदिर और द्रोणगिरि में २४ दिग० जैन मंदिर हैं। मूलनायक श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिमा सं०१५४६ की प्रतिष्ठित है। कुल प्रतिमायें ६० हैं । इस पर्वत से श्री गुरुदत्तादि मुनिवर मोक्ष गये हैं । पर्वत के दोनों ओर चंद्राक्षा और श्यामरी नामक नदियाँ बहती हैं। पर्वत के पास एक गुफा है-वहीं निर्वाणस्थान बताया जाता है। यहाँ से नैनागिरि जावे। नैनागिरि (रेशिंदेगिरि) नैनागिरि गांव से पर्वत दो फरलाँग दूर है । यहाँ शिखरवंद दि० जैन २५ मंदिर पर्वत की शिखिर पर और ६ मंदिर नीचे हैं । एक धर्मशाला है । यहाँ पर भ०पार्श्वनाथका समवशरण आया था और यहाँ से वरदत्तादि मुनिगण मोक्ष पधारे हैं । सबसे पुराना मंदिर १७वीं शताब्दि का बना हुआ है । सं०११२१ में इस क्षेत्र का जीर्णोद्धार स्व० चौधरी श्यामलालजी ने कराया था । सन १८८६ में यहाँ पर एक लाख दि० जैनी एकत्रित हुए थे। यहां से खजराहा जावे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) खरजाहा अतिशय क्षेत्र यहाँ प्राचीन २५ जैन मंदिर हैं, जिनमें अतीव मनोज्ञ प्रतिमायें विराजमान हैं। मंदिरों की लागत करोड़ों रुपयों की अनुमान की जाती है। शिलालेखों में इसका नाम 'खज्जरवाहक' है खजूरपुर के नाम से भी खजराहा प्रसिद्ध था। कहते हैं कि नगर कोटके द्वार पर सुवर्णरंग के दो खजूर के वृक्ष थे। उन्हीं के कारण वह खजूरपुर अथवा खजराहा कहलाता था। यह नगर बुन्देलखंडकी राजधानी था और चन्देलवंश के राजाओं के समय में चरमोन्नति पर था। उसी समय के बने हुये यहाँ अनेक नयनाभिराम मंदिर और मूर्तियाँ हैं । जैनमन्दिरों में 'जिननाथजी का मंदिर' चित्त को विशेष रीति से आकर्षित करता है । इस मंदिरको सन् १५४ ई०में पाहिल नामक महानुभाव ने दान दिया था। इस मंदिर के मंडपों की छत में अद्भुत शिल्पकारी का काम दर्शनीय है । कारीगर ने अपने शिल्प चातुर्य का कमाल यहाँ कर दिखाया है । मंडपों के खंभों पर बने हुये चित्र दर्शकों को मुग्ध कर लेते हैं । इसका जीर्णोद्धार हो गया है । पहले यहां की यात्रा करने राजा-महाराजा सब ही लोग आते थे। श्री शान्तिनाथजी की एक प्रतिमा १२ फीट ऊँची अति मनोज्ञ है। हजारों प्रतिमायें खंडित पड़ी हुई है । यहाँ के दर्शन कर के वापस सागर आवे । वहाँ से बीना जं० होकर जाखलौन जावे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) श्री देवगढ़ अतिशय क्षेत्र जी० आई० पी० लाईन पर जाखलौन स्टेशन से आठ मील दूर देवगढ़ अतिशयक्षेत्र है । ग्राम में नदी किनारे धर्मशाला है। वहां से पहाड़ एक मील है । पहाड़ के पास एक बावली है, इसमें सामग्री धो लेना चाहिये । पहाड़ पर एक विशाल कोट के अन्दर अनेक मंदिर और मूर्तियां दृष्टि पड़ते हैं । पैंतालीस मन्दिर प्राचीन लाखों रुपयों की लागत के गिने गये हैं । कहते हैं कि इन मदिरों को श्री पाराशाह और उनके दो भाई देवपत और खेवपत ने बनवाया था, परन्तु कुछ मंदिर उनके समय से प्राचीन हैं। श्रीशान्तिनाथजी की विशालकाय प्रतिमा दर्शनीय है। यह स्थान उत्तरभारत की जैनबद्री समझना चाहिये । यहाँ के मंदिर मूर्तियां-स्तंभ और शिलापट अपूर्व शिल्पकला के नमूने हैं । एक "सिद्धगुफा'नामक गुफा प्राचीन है। यहांके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार होने की बड़ी आवश्यकता है। आगरे के सेठ पदमराज वैनाडा ने बिखरी हुई मूर्तियों को एक दीवार में लगवा कर परिकोट बनवाया था। सन् १९३६ में यहां खुरई के सेठ गणपतलाल गुरहा ने गजरथ चलाया था। वापस जाखलौन होकर ललितपुर जावे । ललितपुर यहाँ क्षेत्रपाल की जैनधर्मशाला में ठहरे । यहाँ एक कोट के अन्दर पाँच मन्दिर बड़े ही रमणीक बने हुये हैं । पाठशाला भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) है । यहाँ मोटर से चंदेरी जावे । चंदेरी ललितपुर से चंदेरी बीस मील दूर है । यहाँ तीन महा मनोज्ञ मन्दिर हैं। यहाँ एक मन्दिर में अलग-अलग चौबीस तीर्थङ्करों की अतिशययुक्त प्रतिमायें विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं की यह विशेषता है कि जिस तीर्थङ्कर के शरीर का जो वर्ण था, वही वर्ण उनकी प्रतिमा का है । ऐसी प्रतिमायें अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती । इस चौबीसी को सं० १८९३ में सवाई चौधरी फौजदार हिरदेसाह मरदनसिंह के कामदार सवाईसिंहजी से निर्माण किया था। उनकी पत्नी का नाम कमला था। श्री हजारीलालजी वकील के प्रयत्न से इस क्षेत्र का उद्धार हो रहा है और यहां हजारों दर्शनीय प्रतिमायें संग्रहीत हैं और शास्त्रों का संग्रह भी किया गया है। इसीलिये यह स्थान अतिशय क्षेत्र रूप से प्रसिद्ध है। खन्दारजी चन्देरी से एक मील की दूरी पर खन्दार नामक पहाड़ी है। खन्दार नाम पड़ने का कारण यह है कि इस पहाड़ी की कन्दराओं (गुफाओं) में पत्थर काट कर मूर्तियां बनाई गई हैं जिनका निर्माण काल तेरहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक है । एक मूर्ति २५ फीट ऊंची है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) यह सब ही मूर्तियां पुरातत्व एवं कला की दृष्टि से विशेष महत्व रखती हैं यहां भट्टारक कमलकीर्ति तथा पद्मकीर्ति के स्मारक वि० सं० १७१७ और १७३६ के हैं। बूढ़ी चन्देरी वर्तमान चन्देरी से ६ मील दूर बढ़ी चन्देरी है। मार्ग सुगम है। वहां पर अति प्राचीन अतिशय मनोज्ञ अष्ट प्रातिहार्ययक्त सैंकड़ों जिन बिम्ब हैं । कला एवं वीतरागता की दृष्टि से यह मूर्तियां अपना अद्वितीय स्थान रखती हैं. किन्हीं २ मूर्तियों की बनावट देख कर दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है । मन्दिरों की बनावट भी महत्वपूर्ण है। प्रत्येक मन्दिर की छत केवल एक पत्थर की बनी हुई है । कोई २ शिला का परिमाण २०० मन से भी अधिक है। इन मन्दिरों व मूर्तियों के निर्माण काल का तो कोई लिखित आधार उपलब्ध नहीं हुआ है, हां, यह अवश्य है कि ग्यारहवीं शताब्दी में प्रतिहार्य वंशीय राजा कीर्तिपाल ने इस चन्देरी को वीरान करके वर्तमान चन्देरी स्थापित की। इस क्षेत्र के जीर्णोद्धार का कार्य दि० जैन एसो० चन्देरी द्वारा सं० २००१ में प्रारम्भ हुआ। दो वर्ष में कोई शिला लेख प्राप्त नहीं हुआ । सैंकड़ों मूर्तियां जो यत्र तत्र बिखरी पड़ी थी अथवा भूमि के गर्भ में थी, पत्थरों एवं चट्टानों के नीचे दबी पड़ी थी उनको एकत्र करके संग्रहालय में रखा गया है । कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) हो चुका है। धर्मशाला बनवाई जा चुकी है तथा बावड़ी भी खुदवाई जा चुकी है। थवोनजी चन्देरी से १ मील की दूरी पर थूवोनजी क्षेत्र है । इसका प्राचीन नाम "तपोबन" है जो अपभ्रंश होकर थोवन बन गया है। यहां २५ दि० जैन मन्दिर हैं, सब से प्राचीन मन्दिर पाड़ाशाह का बनवाया हुआ है जो सोलहवीं शताब्दी का है । एक मन्दिर में भगवान आदिनाथजी की प्रतिमा लगभग २५ फीट ऊंची है। थोवनजी चंदेरी से १२ मील थोवनजी जावे । वहाँ १६ दि० जैन मन्दिर हैं, जिनमें १०-१० गज की कई प्रतिमायें खड़गासन विराजमान हैं । यहाँ से वापिस ललितपुर आवे और वहां से ३४ मील टीकमगढ़ जावे । यहाँ ७ मन्दिर व एक धर्मशाला है । पपौराजी टीकमगढ़ से तीन मील पपौराजी तीर्थ स्थान है। वहां ८० विशाल दिगः जैन मंदिर है। एक मन्दिरजी में सात गज ऊँची प्रतिमा विराजमान है। सबसे प्राचीन मंदिर भौंहरे का है, जो सं०१२०२ विक्रमाब्दमें प्रसिद्ध चन्देलवंशीय राजा मदनवर्मदेव के समय का बना हुआ है। कार्तिक सुदी १४ को हर साल मेला होता है। वापस टीकमगढ़ आवे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) अहारजी टीकमगढ़ से पूर्व की ओर १२ मील अहार नामक अतिशय क्षेत्र है । इस क्षेत्र के विषय में यह किम्वदन्ती प्रसिद्ध है कि पुराने जमाने में पाणाशाह नामक धनवान जैनी व्यापारी थे। उन्हें जिनदर्शन करके भोजन करने की प्रतिज्ञा थी । एक दिन वह उस तालाब के पास पहुँचे जहाँ आज अहार के मंदिर हैं। उस स्थान पर उन्होंने डेरा डाले; परन्तु जिनदर्शन न हुये। पाणाशाह उपवास करने को तैयार हुए कि इतने में एक मुनिराज का शुभागमन हुआ । सेठजी ने भक्ति पूर्वक उनको आहार देकर स्वयं आहार किया। इस अतिशयपूर्ण स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये और स्थान की रमणीकता को पवित्र बनाने के लिये उन्होंने वहाँ जिनमंदिर निर्माण कराना निश्चित किया । इत्तफाक से वह जो रांगा भर कर लाये थे, वह भी चांदी हो गया । सेठजी ने यह चमत्कार देखकर उस सारी चांदी को यहां जिन‘मंदिर बनवाने में खर्च कर दिया। तभी से यह क्षेत्र आहारजी के नाम से प्रसिद्ध है । वैसे यहांपर दूसरी शताब्दि तक से शिला लेख बताये जाते है। मालूम होता है कि पाणाशाह जी ने पुरातन तीर्थ का जीर्णोद्धार करके इसकी प्रसिद्धि की थी । वर्तमान में यहां चार जिनालय अवशेष हैं । मुख्य जिनालय में १८ फीट ऊंची श्री शान्तिनाथजी की सौम्यमूर्ति विराजमान है। सं० १२३७ मगसिर सुदी ३ शुक्रवारको इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा गृहपतिवंश के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) सेठ जाहड के भाइयों ने कराई थी। उनके पूर्वजों ने वाणपुर में सहस्रकूट जिनालय भी स्थापित किया था, जो अब भी मौजूद है यहाँ और भी अगणित जिनप्रतिमायें बिखरी हुई मिलती हैं; जो इस तीर्थ के महत्वको स्थापित करती हैं। ___ श्री शान्तिनाथजी की मनोज्ञ मूर्ति के अतिरिक्त यहाँ पर ग्यारह फुट ऊंची खगासन प्रतिमा श्री कुन्थुनाथ भगवान की भी विद्यमान है । यहाँ प्रचुर प्रमाण में अनेक प्राचीन शिला लेख उपलब्ध हैं, जिन से जैन जाति का महत्व तथा प्राचीनता प्रकट है । प्राचीन जिन मन्दिरों की २५० मूर्तियाँ यहाँ उपलब्ध हैं । यहाँ विक्रम सं० १६६३ से श्री शान्तिनाथ दि० जैन विद्यालय मय बोर्डिङ्ग के चाल है। यह स्थान ललितपुर G. I P. स्टेशन से मोटर द्वारा ३६ मील टीकमगढ़ होकर अहारजी पहुँचना चाहिए तथा मऊरानीपुर स्टेशन से ४२ मील मोटर द्वारा टीकमगढ़ से आहारजी पहुँचना चाहिए। श्री अतिशयक्षेत्र कुंडलपुर दमोह से क़रीब २० मील ईशानकोण में कुण्डलपुर अतिशयक्षेत्र है । वहाँ के पर्वत का आकार कुण्डलरूप है। इसी कारण इसका नाम कुण्डलपुर पड़ा अनुमान किया जाता है। यहाँ पर्वतपर और तलैटी में कुल ५६ मन्दिर हैं। इन मंदिरों में मुख्य मंदिर श्री महावीर स्वामीका है, जिसमें उनकी ४-४|| गज ऊंची और प्राचीन प्रतिमा विराजमान है यह मंदिर प्रतिमाजी से बाद का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) सं० १६५७ का बना हुआ है इस स्थान का जीर्णोद्धार महाराजा छत्रसाल जी के समय में व्र० नेमिसागर जी के प्रयत्न से हुआ था यह बात सं० १७५७ के शिलालेख से स्पष्ट है । इस शिलालेख में महाराज छत्रसाल को 'जिनधर्ममहिमायां रतिभूतचेयसः' व 'देवगुरूशास्त्रपजनतत्परः' लिखा है, जिससे उनका जैनधर्मके प्रति सौहार्द्र प्रगट होता है। इस क्षेत्र के विषयमें यह किम्बदन्ती प्रसिद्ध है कि श्री महेन्द्रकीर्तिजी भट्टारक घूमते हुए इम पर्वत की ओर निकल आये। वह पटेराग्राम में ठहरे, परन्तु उन्हें जिनदर्शन नहीं हुए - इसीलिये वह निराहार रहे। रातको स्वप्न में उन्हें कुण्डलपुर पर्वत के मंदिरों का परिचय प्राप्त हुआ। प्रातः एक भील के सहयोग से उन्होंने इन प्राचीन मंदिरोंका पता लगाया और दर्शन करके अपने भाग्य को सराहा एवं इस तीर्थको प्रसिद्ध किया। इसका सम्पर्क भ० महावीर से प्रतीत होता है। सभव है कि भ० महावीर का समवशरण यहां आया हो । कहते हैं कि जब महमूद गजनी मंदिर और मूर्तियों को तोड़ता हुआ यहां आया और महावीरजी की मूर्तिपर प्रहार किया तो उसमें से दुग्ध-धारा निकलती देखकर चकित हो रह गया। कहते हैं कि महाराज छत्रसालने भी इस मन्दिर और मूर्तिके दर्शन करके जैनधर्म में श्रद्धा प्रगट की थी। उन्होंने इस क्षेत्र का जीर्णोद्धार कराया। उनके चढाये हुये बरतन वगैरह आज भी मौजद बताये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) जाते हैं, जिनपर उनका नाम खुदा है। महावीरजयंती को मेला भरता है। श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र ललितपुर से सोनागिरि आवे। यह पर्वतराज स्टेशन से तीन मील दूर है कई धर्मशालायें हैं । नीचे तलहटी में १६ मंदिर हैं और पर्वत पर ६० मंदिर हैं । भट्टारक हरेन्द्रभूषणजी का मठ और भंडार भी है । यह पर्वत छोटासा अत्यन्त रमणीक है । यहां से नङ्ग-अनङ्गकुमार साढ़े पांच करोड़ मुनियों के साथ मुक्ति गये हैं । पर्वत पर सब से बड़ा प्राचीन और विशाल मन्दिर श्री चन्द्रप्रभुस्वामी का है। इसमें ७॥ फीट ऊँची भ० चन्द्रप्रभु की अत्यन्त मनोज्ञ खगासन प्रतिमा विराजमान है । इस में एक हिन्दी का लेख किसी प्राचीन लेख के आधार से लिखा गया है, जिस से प्रगट है कि इस मन्दिर को सं०३३५ में श्री श्रवणसेन कनकसेन ने बनवाया था । इस का जीर्णोद्धार सं० १८८३ में मथरावाले सेठ लखमीचन्दजी ने कराया था। मन्दिरों पर नम्बर पड़े हुए हैं. जिस से वन्दना करने में ग़लती नहीं होती है। यहाँ की यात्रा करके ग्वालियर जाना चाहिये। ग्वालियर स्टेशन से दो मील चम्पाबाग में धर्मशाला है। यहां २० दि जैन मन्दिर और चैत्यालय है। चम्पावाग और चौकबाजार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) में दो पंचायती मंदिरों में चित्रकारी का काम अच्छा है । ग्वालियर से लश्कर एक मीलकी दूरी पर है । वहाँ जाते हुए मार्ग में दो फरलांग के फासले पर एक पहाड़ है, जिसमें बड़ी २ गुफायें बनी हुई हैं । उनमें विशाल प्रतिमायें हैं । यहां से ग्वालियर का प्रसिद्ध किला देखनेको जाना चाहिये । किले में अनेक ऐतिहासिक चीजें देखने क़ाबिल हैं । ग्वालियर के पुरातन राजाओं में कई जैनधर्मानुयायी थे | कच्छवाहा राजा सूरजसेन ने सन् २७५ में ग्वालियर बसाया था । वह गोपगिरि अथवा गोपदुर्ग भी कहलाता था। कछवाहा राजा कीर्तिसिंहजी के समय में यहाँ जैनियों का प्राबल्य था । उपरान्त परिहारवंश के राजा ग्वालियर के अधिकारी हुये । उन के समय में भी दि० जैन भट्टारकों की गद्दी वहाँ विद्यमान थी । उस समयके बने हुए अनेक जिनमंदिर और मूर्तियां मिलती हैं। उनको बाबर ने नष्ट किया था । फिर भी कतिपय मन्दिर और मूर्तियां अखंडित अवशेष हैं । सब से प्राचीन पार्श्वनाथजी का एक छोटा-सा मन्दिर है । पहाड़ी चट्टानों को काट कर अनेक जिन मूर्तियां बनाई गई हैं । यहाँ अधिकांश मूर्तियाँ श्री आदिनाथ भगवान की हैं । एक प्रतिमा श्रीनेमिनाथजी की ३० फीट ऊँची है । यहाँ से इच्छा हो तो भेलसा जाकर भद्दलपुर (उदयगिरि) के दर्शन करे। भलसा कई जैनी भेलसा को ही दसवें तीर्थङ्कर श्री शीतलनाथजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) I I का जन्मस्थान अनुमान करते हैं । उनका वार्षिक मेला भी यहां होता है । यहां एक बड़ा भारी शिखरबंद मंदिर प्राचीन इसके अतिरिक्त और भी कई मन्दिर और चैत्यालय हैं । यहां स्टेशन के पास दानवीर सेठ लक्ष्मीचन्दजी की धर्मशाला है । सेठजी ने भेलसा में सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन हाईस्कूल भी स्थापित किया है । यहाँ से चार मील दूर उदयगिरि पर्वत प्राचीन स्थान है । वहाँ कई गुफायें हैं, जिनमें से नं० १० जैनियों की है। इस गुफा को गुप्तवंश के राजाओं के समय में उन के एक जैनी सेनापति ने जैन मुनियों के लिये निर्माण कराया । वहां पार्श्वनाथजी की प्रतिमा और चरणचिन्ह भी हैं। यहां से बौद्धों का सांची स्तूप भी नजदीक है । भेलसा से वापस आगरा आवे । वहां से महावीर जी जावे । श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र यह अतिशय क्षेत्र चार मील महावीर पौंदा स्टेशन से दूर है। यहां एक विशाल दि० जैन मन्दिर है, जिसमें मूलनायक भ० महावीर की अतिशय युक्त पद्मासन प्रतिमा विराजमान हैं । प्रतिमा जीर्ण हो चली है. इसलिए उन्हीं जैसी एक और प्रतिमा विराजमान की गई हैं। मूल प्रतिमा नदी किनारे जमीन के अन्दर से किसी ग्वाले को मिलीं थीं । जहाँ से प्रतिमाजी उपलब्ध हुई थी, वहां पर एक छत्री और पादुकायें बनी हुई यह . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) हैं। पहले यहाँ पर दि. जैनाम्नाय के भट्टारकजी सब प्रबंध करते थे; परन्तु उनकी मृत्यु के बाद से जयपुर राज्य द्वारा नियुक्त दि० जैनों की प्रबंधक कमेटी सब देख भाल करती है । जबसे कमेटी का प्रबन्ध हुआ है, तब से क्षेत्र की विशेष उन्नति हुई है और हजारों की संख्या में यात्री पहुँचता है उत्तर भारत में इस क्षेत्र की बहुत मान्यता है । ___ सवाई माधोपुर (चमत्कारजी) महावीरजी से सवाई माधोपुर जावे । यहाँ पर सात शिखिरवंद दि० जैनमन्दिर और एक चैत्यालय है। यहाँ से करीब १२ मील की दूरी पर रणथंभोर का प्रसिद्ध किला है जिसके अन्दर एक प्राचीन जैन मंदिर है । उसमें मूलनायक चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा मनोज्ञ और दर्शनीय है । सवाई माधोपुर से वापस आकर चमत्कारजी अतिशयक्षेत्र के दर्शन करना चाहिये। यह क्षेत्र वहाँ से दो मील है । इसमें एक विशाल मंदिर और नशियां जी हैं। कहते हैं कि संवत् १८९८ में एक स्फटिकमणिकी प्रतिमा (6 इंच की) एक बगीचे में मिली थी। उस समय यहाँ केशर की वर्षा हुई थी। इसी कारण यह स्थान चमत्कारजी कहलाता है। यहाँ से यात्रियों को जयपुर जाना चाहिये। जयपुर जयपुर बहुत रमणीक स्थान है और जैनियों का मुख्य केन्द्र है । यहाँ दि० जैन शिखिरवंद मंदिर ५२, चैत्यालय ६८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) और १८ नशियाँ बस्ती के बाहर हैं। कई मंदिर प्राचीन, विशाल और अत्यन्त सुन्दर है। बाबा दुलीचन्दजी का वृहद् शास्त्र भंडार है जैन महा पाठशाला व कन्याशालादि संस्थायें भी हैं । जयपुर को राजा सवाई जयसिंहजी ने बसाया था । बसाने के समय राव कृपारामजी (श्रावगी) वकील दिल्ली दरबार में थे। उन्हीं की सलाह से यह शहर बसाया गया और यह अपने ढंग का निराला शहर है पहले यहाँ के राज दरबार में जैनियों का प्राबल्य था । श्री अमरचन्दजी आदि कई महानुभाव यहाँ के दीवान थे। आज कल भी कई जैनी उच्चपदों पर नियुक्त हैं । मध्यकाल में जैनधर्म की विवेकमई उन्नति करने का श्रेय जयपुर के स्वनामधन्य आचार्यतुल्य पंडितोंकोही प्राप्त है । यहांही प्रातः स्मरणीय पं० टोडरमलजी, पं० जयचन्दजी, पं० मन्नालालजी, पं० सदासुखजी, संघी पन्नालालजी प्रभूत विद्वान् हुये हैं, जिन्होंने संस्कृत प्राकृत भाषाओं के ग्रंथों की टीकायें करके जैनियों का महती उपकार किया है । यहाँ पर एक समुन्नत जैन कॉलिज स्थापित किया जावे तो जैन धर्म की विशेष प्रभावना हो । जयपुर के मन्दिरों में अधिकांश प्रतिमाये प्रायः संवत् १८२६, १८५१, १८६२ और १८६३ की प्रतिष्ठित विराजमान हैं । घी वालों के रास्ते में तेरापंथी पंचायती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) मंदिर सं० १७६३ का बना कहा जाता है, परन्तु उसमें प्रतिमायें १४वीं-१५वीं शताब्दि की विराजमान हैं । सं० १८५१ में जयपुर के पास फागी नगर में बिम्बप्रतिष्ठोत्सव हुआ था । उसमें अजमेर के भ० भुवनकीर्ति, ग्वालियर के भ० जिनेन्द्रभूषण और दिल्लीके भ० महेन्द्रभूषण सम्मिलित हुये थे। उनकी प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमायें जयपुर में विराजमान हैं । एक प्रतिमा से प्रगट है कि सं० १८८३ में माघशुक्ल सप्तमी गुरुवार को भ. श्री सुरेन्द्र कीर्तिके तत्वावधान में एक बिम्ब प्रतिष्ठोत्सव खास जयपुर नगर में हुआ था। इस उत्सव को छावड़ा गोत्री दीवान बलचन्द्रजी के सुपुत्र श्री संघवी रामचन्द्रजी और दीवान अमरचन्द्रजी ने सम्पन्न कराया था। सांगानेर, चाम्सू आदि स्थानों में भी नयनाभिराम मंदिर हैं । जयपुर के दर्शनीय स्थानों को देखकर वापस दिल्ली में आकर सारे भारतवर्ष के तीर्थों की यात्रा समाप्त करना चाहिये। इस यात्रा में प्रायः सब ही प्रमुख तीर्थस्थान आ गये हैं; फिर भी कई तीर्थों का वर्णन न लिखा जाना संभव है। 'दिगम्बर जैन डायरेक्टरी' में सब तीर्थों का परिचय दिया हुआ है। विशेष वहां से देखना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) प्रश्नावली (१) हस्तिनापुर, मथुरा, अयोध्या, बनारस और पटना का ___कुछ हाल लिखो ? (२) कुण्डलपुर, राजगृह, और पावापुर का संक्षेप से वर्णन करो? (३) सम्मेदशिखिर जैनियों का महान् तीर्थ क्यों कहलाता है। इस तीर्थ के बारे में जो कुछ तुम जानते हो विस्तार से लिखो। (४) उदयगिरि और खंडगिरि तीर्थों के विषय में तुम क्या ___ जानते हो ? खारवेल का संक्षिप्त हाल लिखो ? (५) बाहुबली और भद्रबाहु स्वामी के बारे में तुम क्या ___ जानते हो ? श्रवणबेलगोल और मूड्बद्री तीर्थों का हाल लिखो। (६) कारकल, कुंथलगिरि, इलोरा की गुफाओं, मांगीतुंगी ___ और गजपंथा का संक्षिप्त वर्णन लिखो? (७) पावागढ़, पालीताना, शत्रुजय, गिरिनारजी, तारंगाजी ___ और आबू पर्वत के तीर्थों के बारे में तुम क्या जानते हो? (८) श्री केशरियानाथ, बीनोल्या पार्श्वनाथ, सिद्धवरकूट, पावागिरि, बावनगजाजी, मक्सी पार्श्वनाथ, अंतरीक्ष पार्श्वनाथ, मुक्तागिरि, द्रोणगिरि, नैनागिरि, खजराहा, ला। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) देवगढ़, चदेरी, पपौरा अहार कुडलपुर अतिशयक्षेत्र, कम्पिला, सोनागिरि और महावीरजी अतिशयक्षेत्र कहां हैं ? उनका संक्षिप्त परिचय लिखो । (६) जैनसाहित्य के प्रचार में जयपुर के विद्वान् पंडितों ने जो भाग लिया उसका हाल संक्षेप में लिखो। (१०) 'तीर्थक्षेत्र कमेटी'-शिलालेख-मानस्तंभ और भट्टारक से तुम क्या समझते हो ? (११) जीर्णोद्धार किसे कहते हैं ? किन किन जैनतीर्थों के जीर्णोद्धार की विशेष आवश्यकता है ? 'जीर्णोद्धार कार्य नया मन्दिर बनवाने की अपेक्षा अधिक आवश्यक और महान् पुण्यबन्ध का कारण है' इसके पक्ष में कुछ लिखो । (१२) तीर्थक्षेत्रों की उन्नति के कुछ उपाय बताओ ? (१३) तीर्थयात्रा में एक यात्री की दिनचर्या और व्यवहार कैसा होना चाहिये ? उसे यात्रा में क्या क्या सावधानी रखना चाहिये ? (१४) अप्रगट तीर्थ कौन-कौन से हैं और उनका पता लगाना क्यों आवश्यक है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) उपसंहार "श्री तीर्थपान्थरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु विभमणतो न भवे भमन्ति । तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसम्पदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥" तीर्थ की पवित्रता महान् है । आचार्य कहते हैं कि श्री तीर्थ के मार्ग की रज को पाकर मनुष्य रजरहित अर्थात् कर्म-मल रहित हो जाता है। तीर्थ में भ्रमण करने से वह भव भ्रमण नहीं करता है। तीर्थ के लिये धन खर्च करने से स्थिर सम्पदा प्राप्त होती है। और जगदीश जिनेन्द्र की पूजा करने से वह यात्री जगतपूज्य होता है। तीर्थ यात्रा का यह मीठा फल है । इसकी उपलब्धिका कारण तीर्थ-प्रभाव है। तीर्थ बन्दना में विवेकी हमेशा वताचार का ध्यान रखता है । यदि सम्भव हुआ तो वह एक दफा ही भोजन करता है, भूमि पर सोता है, पैदल यात्रा करता है, सर्व सचित्तका त्याग करता है और ब्रह्मचर्य पालता है। जिन मूर्तियों की शान्त और वीतराग मुद्रा का दर्शन करके अपने सम्यक्त्व को निर्मल करता है । क्योंकि वह विवेकी जानता है कि वस्तुतः प्रशमरूप को प्राप्त हुआ आत्मा ही मुख्य तीर्थ है। वाह्यतीर्थ-वन्दना उस अभ्यन्तर तीर्थ-आत्मा की उपलब्धिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) साधन मात्र है। इस प्रकार के विवेकभाव को रखनेवाला यात्री ही सच्ची तीर्थयात्रा करने में कृतकार्य होता है । उसे तीर्थयात्रा करने में आरम्भ से निवृति मिलती है और धन खर्च करते हुये उसे आनन्द आता है, क्योंकि वह जानता है कि मेरी गाढ़ी कमाई अब सफल हो रही है। संघ के प्रति वह वात्सल्य भाव पालता है और जीर्ण चैत्यादि के उद्धार से वह तीर्थ की उन्नति करता है । इस पुण्य प्रवृत्ति से वह अपनी आत्मा को ऊंचा उठाता है और सद्व्रतियों को प्राप्त होता है । मध्यकाल में जब आने जाने के साधनों की सुविधा नहीं थी और भारत में सुव्यवस्थिति राजशासन क़ायम नहीं था, तब तीर्थयात्रा करना अत्यन्त कठिन था । किन्तु भावुक धर्मात्मा सज्जन उस समय भी बड़े २ संघ निकाल कर तीर्थयात्रा करना सबके लिये सुलभकर देते थे । इन संघों में बहुत-सा रुपया खर्च होता था और समय भी अधिक लगता था । इसलिये यह संघ वर्षों बाद कहीं निकलते थे । इस असुविधा और अव्यवस्था का ही यह परिणाम है कि आज कई प्राचीन तीर्थों का पता भी नहीं है । और तीर्थों की बात जाने दीजिये, केवल शासनदेव तीर्थंकर महावीर के जन्म-तप और ज्ञान कल्याणक स्थानों को लेलीजिये । कहीं भी उनका पता नहीं है-जन्मस्थान कु ंडलपुर बताते हैं जरूर; परन्तु शास्त्रों के अनुसार वह कुंडलपुर राजगृह से दूर और वैशाली के निकट था । इसलिये वह वैशाली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) के पास होना चाहिये । आधुनिक खोज से वैशाली का पता मुजफ्फरपुर जिले के बसाढ़ ग्राम में चला है । वहीं वसुकुण्ड प्राम भी है । अतएव वहाँ पर शोध करके भ० महावीर के जन्म स्थान का टीक पता लगाना आवश्यक है। भगवान ने वहीं निकट में तप धारण किया था, परन्तु उनका केवलज्ञान स्थान जन्मस्थान से दूर जम्भकग्राम और ऋजकूला नदी के किनारे पर विद्यमान था । आज उसका कहीं पता नहीं है । बंगाली विद्वान् स्व० नंदलालडे ने. सम्मेद शिख्रिर पर्वत से २५-३० मील की दूरी पर स्थित झरिया को जम्भक ग्राम सिद्ध किया है और बराकर नदी को ऋजुकूला नदी बताया है । झरिया के आसपास शोध कर के पुरातत्व की साक्षी के आधार से केवलज्ञान स्थान को निश्चित करना भी अत्यन्तावश्यक है। इसी प्रकार कलिङ्ग में कोटिशिला का पता लगाना आवश्यक है । तीर्थ यात्रा का यह महती कार्य होगा यदि इन भुलाये हुये तीर्थों का उद्धार हो सके। सारांशतः तीर्थो और उनकी यात्रा में हमारा तन-मन-धन सदा निरत रहे यही भावना भाते रहना चाहिये । "भवि जीव हो संसार है, दुख-खार-जल-दरयाव । तुम पार उतरन को यही है, एक सुगम उपाव ।। गुरुभक्ति को मल्लाह करि, निज रूप सों लवलाव । जिन तीर्थको गुन वद गीता, यही मीता नाव ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहली के दिगम्बर जैन मन्दिर और संस्थायें (लेखक-पन्नालाल जैन अप्रवाल देहली) धर्मपुरा-(१) संवत् १८५७ में श्रीमान् ला० हरसुखरायजी (कुछ लेखकों के मतानुसार मोहनलालजी) ने धर्मपुरा देहली में नये मन्दिरजी की बुनियाद रक्खी, जो सात वर्ष में पांच लाख की लागत से बन कर तय्यार हुआ। कुछ लेखकों का ख्याल है कि वह आठ लाख रुपये की लागत का है। यह लागत उस समय की है जबकि राज चार आने और मजदूर दो आने रोज लेते थे। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा मिति बैशाख शुक्ला ३ संवत १८६४ ( सन् १८०७ ) में हुई। मन्दिर की मूलनायक वेदी जयपुर के स्वच्छ मकराने संगमरमर की बनी है और उसमें सच्चे बहुमूल्य पाषाण की पञ्चीकारी का काम और बेलब टों का कटाव ऐसा बारीक और अनुपम है कि ताजमहल के काम को भी लजाता है। * आसारे सनादीद सन् १८४७ पृष्ठ ४७-४८ रहनुमाये देहली सन् १८७४ पृष्ठ १६६, लिस्ट आफ दी मोहम्मडन एण्ड हिन्दू मौन मन्टस्वल१ पृष्ठ १३२ ६ देहली दी इम्पीरियलसिटी पृष्ठ ३५, देहली डायरेक्टरी फौर सन् १६१५ पृष्ठ १०३, पंजाब डिस्ट्रिक्ट गजेटीयर सन् १९१२ पृष्ठ ८ गजेटीयर आफ देहली डिस्ट्रिक्ट सन् १८८३-८४ पृष्ठ ७८-७E दिल्ली दिग्दर्शन पृष्ट ६, देहली इनटूडेज पृष्ठ ४३, बन्दर फुल देहली पृष्ठ ४३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) जो यात्री विदेशों से भारत भ्रमण के लिये यहाँ आते हैं वे इस वेदी को देखे बिना देहली से नहीं जाते। जिस कमल पर श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान है उस कमल की लागत दस हजार रुपये तथा वेदी की लागत सवा लाख रुपये बताई जाती है । कमल के नीचे चारों दिशाओं में जो सिंहों के जोड़े बने हुए हैं। उनकी कारीगरी अपूर्व और आश्चर्यजनक है । यह प्रतिमा संवत् १६६४ की है । यह दुःख की बात है कि मूल नायक प्रतिमा इस समय मन्दिरजी में मौजूद नहीं है । कहा जाता है कि वह खण्डित हो गई और बम्बई के समुद्र में जल प्रवाहित करा दी गई है। वेदी के चारों ओर दीवारों पर दर्शनीय बहुमूल्य चित्रकारी है। यह चित्रकारी बड़ी खोज के साथ शास्त्रोक्त विधि से बनबाई गई है। जैसे वेदी के पीछे ३ चित्र पावापुरी, श्रुतस्कंध यंत्र, और मुक्तागरि के अङ्कित हैं। इसके ऊपर | भक्तामर काव्य यंत्र सहित इसके ऊपर , भाव, वेदी के दांई ओर पाँच चित्र १५ भक्तामर काव्य, १५ भाव, वेदी के बाई ओर ५चित्र १५ भक्तामर काव्य १५ भाव, सामने ३ चित्र : भक्तामर काव्य भाव इस तरह चारों ओर १६ चित्र ४८ भक्तामर काव्य यंत्र सहित ४८ भाव हैं जो दर्शनीय हैं। कुछ भावों के नाम ये है-सन+आसारेसनादीद पृष्ठ ४७-४८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) कुमार चक्री की परीक्षा के लिये देवों का आना, भरत बाहुबलि के तीन युद्ध, शुभचन्द्र का शिला को स्वर्णमय बनाना, समन्तभद्र का स्वयंभ स्तोत्र के उच्चारण से पिण्डी के फटने से चन्द्रप्रभु की प्रतिमा का प्रकट होना, गजकुमार मुनि को अग्नि का उपसर्ग सुदर्शन सेठ के शील के प्रभाव से शली का सिंहासन होना, रावण का कैलाश को उठाना, सुकुमालजी का वैराग्य और उपसर्ग सहन, सीताजी का अग्निकुंड में प्रवेश, भद्रबाहु स्वामी से चन्द्रगुप्त का फल पूछना, नेमिस्वामी और कृष्ण की बल परीक्षा, रात्रि भोजन त्याग की महिमा, अकलंक देव का बौद्धाचार्य से वाद आदि २ बीच की वेदी में सबसे उपर इन्द्र बाजा मदङ्गा आदि लिए हुए हैं। इस तरह चारों ओर मन्दिर का नकशा चित्रकला में है। पहिले इस मन्दिर में एक यही वेदी थी फिर एक पृथक वेदी उस प्रतिविम्ब ससूह के विराजमान करने के वास्ते बनवाई गई। जिनकी रक्षा सन् १८५७ के बलवे के समय में अपने जी जान से जैनियों ने की थी। उसके बहुत वर्ष पीछे दो स्वर्गीय आत्माओं की स्मति में उनके प्रदान किये रुपये से दोनों दालानों में वेदियां बनाई गई । इन वेदियों में नीलम, मरगज की मूत्तियें तथा पाषाण की प्राचीन संवत् १११२ की प्रतिमायें हैं एक छत्र स्फटिक बना हुआ है। बाहर के एक दालान में दैनिक शास्त्र सभा होती है, यहाँ की शास्त्र सभा दूर २ मशहूर है । दशलाक्षणी में प्रायः बाहर के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४ ) विद्वान् बुलाए जाते हैं । एक दालानमें स्वाध्यायशाला है तथा पुरुष वर्ग स्वाध्याय किया करते हैं। तीसरे दालान में स्त्रियां शास्त्र सुनती व स्वाध्याय किया करती हैं ऊपर के भाग में सुनहरी अक्षरों में कल्याण मन्दिर स्तोत्र लिखा हुआ है । इसके अन्दर विशाल सरस्वती भंडार है जिसमें हस्त लिखित लगभग १८०० शास्त्र व छपे हुए संस्कृत भाषा के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है इससे स्थानीय व बाहर के विद्वान् यथेष्ट लाभ उठाते हैं स्वयं लेखक ने अनेक बार प्रन्थों को बाहर भेजा है । लेखक की भावना है कि वह दिन आवे जब देहली के विशाल प्रन्थों का जिनकी तादाद ६००० के करीब है उद्धार हो । क्या कोई जिनवाणी भक्त इस ओर ध्यान देगा। यहीं स्त्रियों की भी शास्त्र सभा होती है इधर से एक जीना नीचे जाता है जिसमें प्रायः स्त्री समाज आती जाती है वह नीचे उतर कर श्री जैन कन्या शिक्षालय भवन में पहुंचता है। शिक्षालय सन् १९०८ से स्थापित है। पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा दी जाती है। तीन सौ से ऊपर जैन व जैनेतर बालिकायें शिक्षा प्राप्त कर रही हैं इसको परिश्रम कर मिडिल कक्षा तक पहुँचा देना चाहिये। यहीं ऊपर, नीचे की मंजिल में स्त्री समाज की दो शास्त्र सभायें होती हैं मन्दिरका सहन भी काफी बड़ा है जिसमें बहुधा अग्रवाल दि० जैन पंचायत की बैठकें हुआ करती हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) मन्दिर की दर्शनीय पत्थर की छतरी है एक ओर सबसे पुरानी संवत १९४३ से चालू जैन पाठशाला भवन है जिसमें चौथी कक्षा तक शिक्षा दी जाती है १५६ विद्यार्थी हैं । इतनो पुरानी शिक्षण संस्था होते हुए भी कोई खास उन्नति न हो यह दुःख की बात है। ____ मन्दिर के निचले भाग में सर्दी के मौसम में रात्रि को शास्त्र सभा हुआ करती है तथा मिथ्यात्व तिमिर नाशिनी दि० जैन सभा द्वारा स्थापित आराईश फंड का सामान तथा दि० जैन प्रेम सभा द्वारा स्थापित बर्तनों का संग्रह है जो बहुधा विवाह शादी के काम आता है। श्रीमान् ला० हरसुखराय जी ने २६ विशाल मन्दिर ( कहा जाता है कि इससे भी कहीं ज्यादा मन्दिर बनवाये, परन्तु लेखक को कोई प्रमाण नहीं मिला) दिल्ली जयसिंहपुरा (न्यू देहली) पटपड़ शाहदरा देहली, हस्तिनागपुर, अलीगढ़, सोनागिर, सोनीपत, पानीपत, करनाल, जयपुर, सांगानेर आदि स्थानों में बनवाए और उन मन्दिरोंके खर्चके वास्ते भी यथेष्ट जायदाद प्रदान की। आप शाही खजांची थे। आपको सरकारी सेवाओं के उप• अंग्रेजी जैन गजट अक्टूबर १९४५ • नकल बयान हस्तिनागपुर पृष्ठ ६-१२ मशमूला तारीख जिला मेरठ सन् १८७१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) लक्ष्य में तीन जागीर सनद सार्टीफिकेट आदि प्राप्त हुए। आप भरतपुर राज्य के कौंसिलर थे आपके पुत्र शुगनचन्द जी का फोटू देहली के लाल किले में सुरक्षित है और उक्त फोटू में आपको 'राजा' शुगनचन्द लिखा हुआ है। ___ मन्दिर के बाहर जैन मित्रमंडल कार्यालय है, जो सन् १६१५ से स्थापित है और जिसने अब तक १०० से ऊपर बहुमूल्य ट्रैक्ट प्रकाशित किए हैं जिसको सरकार ने Chief Litreary Society लिखा है तथा मंडल द्वारा स्थापित सन् १९२७ से श्री वर्धमान पब्लिक लायब्रेरी है जिसमें धार्मिक पुस्तकों का खासा संग्रह है। मैं लायब्रेरी व मन्डल को उन्नत दशा में देखने का उत्सुक हूँ। कुछ कमियां हैं जिन पर ध्यान देने की तुरन्त श्रावश्यक्ता है । इसके बाद ही इसी' नये मन्दिर जी की जमीन पर बीबी द्रोपदीदेवी की विशाल धर्मशाला है जिसमें कई सभाओं के कार्यालय हैं जिनका कुछ कार्य नजर नहीं आता। यह धर्मशाला बहुधा विवाह शादी उठावनी आदि के काम में आती है। यहां यात्रियों को ठहरने के लिये कोई खास सुविधा नहीं है। प्रबन्धक व ट्रस्टीमहोदयों को खास ध्यान देकर ऐसे नियम बना देने चाहिये जो यात्रियों को विशेष उपयोगी सिद्ध हो सके। ® पंजाब डिस्ट्रिक्ट गजेटियर देहली डिस्ट्रिक्ट सन् १९१२ पृष्ठ ७८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) यहां आस पास बहुधा जैनियों के ही घर हैं । (२) धर्मशाला (कमरा) धर्मपत्नी ला० चन्दूलाल मुलतान वालों का स्थापित संवत् १६७६ सन् १९२२ गली पहाड़ के बाहर (१) (२) चैत्यालय ला० मीरीमलजी । चैत्यालय ला० भौंदूमलजी, मस्जिद खजर ( १ ) - पंचायती मन्दिर लगभग २०३ वर्ष (अर्थात् सन् १७४३) पुराना ला० आयामल आफीसर कमसरियेट डिपार्टमैंट आफ महोम्मद शाह का दिया हुआ पश्चात् पंचायती ३ विशाल प्रतिमायें, ( पार्श्वनाथजी की मूर्ति ५ फुट ६ इच ऊँची और ३ फुट ५ इव चौड़ी, दो श्वेत रंग की प्रतिमायें ३ फुट ५ इंच ऊँची २ फुट ८ इंच चौड़ी हैं ) रत्न प्रतिमायें, हस्तलिखित लगभग ३००० शास्त्र, छपे हुए शास्त्रों का संग्रह । (२) धर्मशाला पचायती मन्दिर । S मस्जिद खजूर के बाहर - (१) पद्मावती पुरवाल दि० जैन मन्दिर स्थापित सन् १६३१ । (२) मेहर मन्दिर ला० मेहरचन्द का बनाया हुआ जिस में एक लाख ६ हजार रुपये खर्च हुए, प्रतिष्ठा २३ जनवरी सन् १८७६ को हुई । ५२ चैत्यालयों ( नन्दीश्वर द्वीप) की अपूर्व रचना, छपे हुए व हस्त लिखित शास्त्रों का संग्रह, प्रातः काल शास्त्र सभा । वैद्यवाड़ा - (१) दि० जैन बड़ा मन्दिर मय शान्तिनाथ स्वामी का चैत्यालय लगभग २०५ वर्ष पुराना (अर्थात् सन् १७४१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) विशाल प्रतिमा, स्फटिक प्रतिमायें, हस्त लिखित शास्त्र भण्डार स्त्री समाज शास्त्र सभा । (२) शान्तिसागर दि०जैन कन्या पाठशाला (पांचवीं कक्षा तक ) (३) सुन्दरलाल दि० जैन औषधालय | (४) सुन्दरलाल दि० जैन धर्मशाला । (५) चैत्यालय गली में । सदर बाज़ार - १ हीरालाल जैन हायर सेकेंडरी स्कूल स्थापित सन् १९२० (२) शिवदयाल फ्री नाईट स्कूल (श्रीपार्श्वनाथ युवक मंडल) (३) जैन संसार मासिक ( उर्दु पत्रकार्यालय ) (४) धर्मशाला ला० मूलचन्द मुसद्दीलाल डिप्टीगंज उर्फ महावीरनगर - (१) लाल चैत्यालय (२) श्रीलालचन्द जैन धर्मार्थ औषधालय स्थापित स० १६४० (३) श्री १००८ जम्बुकुमार संघ " पहाड़ीधीरज - ( १ ) जैन शिक्षा प्रचारक सोसाइटी रजि (२) श्री जैन दि० पंचायती धर्मशाला (३) जैन संगठन सभा स्थापित सन् १९२४ (४) सार्वजनिक जैन पुस्तकालय स्थापित सन् १६२४ (५) श्री पार्श्वनाथ युवक मण्डल (६) जैन मैरिज ब्युरो ( जैन संगठन सभा ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) (७) जैन मन्दिर (गली मन्दिरवाली में ) छपे हुये शास्त्रों का अच्छा संग्रह, स्त्री शास्त्र सभा, गदरकाल से पहिले का (E) चैत्यालय ला मनोहरलाल जौहरी ( मंत्र शास्त्र व छपे शास्त्रों का संग्रह ) (१) जैन कन्या पाठशाला ( आठवीं कक्षा तक ) स्थापित संवत १६७५ सन् १६१८ (१०) हीरालाल जैन प्राइमरी स्कूल (११) जैनमन्दिर ( गली नत्थनसिंह जाट में ) ला०मक्खनलाल का (१२) श्राविकाशाला (गली नत्थनसिंह जाट में) (१३) जैन सेवा संघ (गली नत्थनसिंह जाट में ) करौलबाग - (१) जैन मन्दिर (छप्परवाले कूए के पास) प्रतिष्ठा स० १९३५ में हुई (२) मुंशीलाल जैन आयुर्वेदिक औषधालय न्यू देहली - राजा का बजार (१) अमवाल जैन मन्दिर ला० हरसुखरायजी का बनाया हुआ मुगलों के समय का मूलनायक प्रतिमा सं० १८६१ सन् १८०४ की (२) बुद्धि प्रकाश जैन रीडिंग रूम (३) खण्डेलवाल जैन मन्दिर मुगलों के समय का प्राचीन संवत २४८ की मूर्चि (४) जैनसभा स्थापित सन् १९३१ (रजिस्टर्ड) (५) दि० जैन ब्रादरी (सभा) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) (६) जैनयंगमैन एशोसियेशन स्थापित सन् १९३५ (७) जैननिशि मुगलों के समय की पहाड़गंज (मन्टोले में)--(१) जैन मन्दिर कूचा पातीराम गली इन्दर वाली—(१) जैन मन्दिर संवत् १६४६ सन १८६२ का बना हुआ। (२) जैन प्रेम सभा (३) नेमिनाथ कीर्तन मंडल देहली दरवाजा-(१) जैन मन्दिर मुगलों के समय का दरियागंज--(१) श्री भारतवर्षीय अनाथरक्षक जैन सोसाईटी देहली स्थापित सन् १९०३ (रजिस्टर्ड) (२) जैन अनाथालय स्थापित सन् १९०३ (३) जैन चैत्यालय (४) जैन आयुर्वेदिक फार्मेसी (५) टेलरिंग डिपार्टमेंट (अनाथालय) (६) जैन प्रचारक (मासिकपत्र कार्यालय) (७) जैन एंग्लो वरनीकुलर मिडिल स्कूल (८) राय बहादुर पारसदास रिफ्रेंस लायब्रेरी (अंग्रेजी बहु मूल्य पुस्तकों का संग्रह) (8) ला० हुकमचन्द चैत्यालय (नम्बर सात में) (१०) रंगीलाल जैन होमियो पेथिक फ्री डिस्पैन्सरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) फैज़ बाज़ार (ऋषि भवन)-(१) अखिल भारतवर्षीय दि. जैन परिषद् कार्यालय स्थापित सन् १९२३ (२) वीर (साप्ताहिक) पत्र कार्यालय (३) परिषद् पब्लिशिंग हाउस (४) परिषद् परीक्षाबोर्ड (५) जैनऐज्यकेशन बोर्ड लालकिले के पास—(१) उर्दू का मन्दिर (सबसे प्राचीन मन्दिर) मन् १६५६ का सम्राट शाहजहां के समय का, संवत १५४८ की मूर्तियां, स्त्री व पुरुष समाज शास्त्र सभा, 'उर्दु का मन्दिर' वह इसलिए कहा गया था कि उसका निर्माण उन जैनियों के लिए किया गया था जो सम्राट शाहजहाँ की सेना में थे। एक दफा सम्राट औरङ्गजेब ने हुक्म निकाला था कि इस मन्दिर में बाजे न बजाये जाय, परन्तु उनके हुक्म की पाबन्दी न हो सकी, बाजे बराबर बजते रहे । यह जरूरी था कि बजाने वाला कोई न दिखता था सम्राट स्वयं देखने आए और संतोषित होकर उन्होंने अपना हुक्म वापिस ले लिया। कहा जाता है कि जिस स्थान पर यह मन्दिर है पहले वहाँ पर शाही छावनी थी और एक जैनी सैनिक की छोलदारी वहाँ पर लगी थी, जिन्होंने अपने लिये दर्शन करने के वास्ते एक जिन प्रतिमा उसमें विराजमान कर रक्खी थी। उपरान्त उसी स्थान पर यह विशाल मन्दिर बनाया गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) (२) जैन स्पोर्टसक्लब कूचा बुलाकी बेगम (परेडग्राउड पास) १) जैन धर्मशाला ला० लच्छूमलजी काग़जी स्थापित सन् १६२८ चान्दनी चौक दरीबा के पास-(१) गिरधारीलाल प्यारेलाल जैन एज्यूकेशन फण्ड आफिस ( हाउस मकान नं० ३३ ।। 'गली खजाची ( दरीबा )--(१) चैत्यालय लाव्हजारी. लाल, ला० साहबसिंह का बनाया हुआ सन १७६१ लगभग १५५ वर्ष पुराना । (२) चैत्यालय ला० गुलाबराय मेहरचन्द मुगलों के समय का । कटरा मशरू ( दरीबा)-(१) धर्मशाला ला० श्री राम वकील जैन स्थापित सन् १९०६ । कूचा सेठ ( दरीबा )-(१) बड़ा मन्दिर सम्बत् १८८५ सन् १८२८ में बनना प्रारम्भ हुआ मंगशिर बदी १३ सम्बत् १८६१ में प्रतिष्ठा हुई, स्फटिक की मूर्तिये, सम्बत् १२५१ की प्रतिमा, हस्त लिखित लगभग १४०० व छापे के प्रन्थों का संग्रह, पुरुष समाज शास्त्र सभा । (२) बर्तन फण्ड (जैन सेवा समिति) (३) छोटा मन्दिर- ला० इन्द्रराज का बनाया हुआ लगभंग १०६ वर्ष पुराना अर्थात् सन् १८४० का सम्बत् १५४६ की प्रतिमायें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) "ला० इन्द्रराजजी ने एक प्रतिमा एक दुर्रानी जो काबुल का था उससे खरीदी उसने पाँच सौ रुपये कीमत मांगी चूंकि वह गरीब थे उन्होंने अपना तमाम सामान बेच कर वह प्रतिमा खरीद ली पहिले वह प्रतिमा अपने घर रखी फिर पंचों के सुपुर्द कर दी कि वह मन्दिर निर्माण करादें । दुर्रानी से जो प्रतिमा खरीदी थी वह सम्वत् १५४६ की थी।" (४) जैन धर्मशाला। (५) मुनि नमिसागर परमार्थ पवित्र औषधालय स्थापित सन् १६३१ । (६) जैन संस्कृत व्यापारिक विद्यालय (आठवीं कक्षा तक) रजिस्टर्ड स्थापित सन् १९११ । गली अनार (धर्मपुरा )- १) चैत्यालय वीवी तोखन सतघरा (धर्मपुरा)-(१) चैत्यालय मुंशी रिश्कलाल (२) मन्दिर ला० चन्दामल, स्त्री समाज शास्त्र सभा । (३) श्राविकाशाला। सतघरा बाहर (धर्मपुरा)-(१) मन्त्री हिसार पानीपत अग्रवाल दि० जैन पंचायत (हाउस नं० ६४८)। छत्ता शाहजी (चावड़ी बाजार)- १) अग्रवाल जैन औषधालय ला० अमरसिंह धूमीमल कागजी स्थापित सन् १९३६ नई सड़क--(१) भारतवर्षीय दि० जैन महासभा कार्यालय स्थापित सन् १८६४ (रजिस्टर्ड)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) (२) जैन गजट साप्ताहिक पत्र कार्यालय । __कटड़ा खशालराय-(१) मैनेजिंग कमेटी अग्रवाल दि० जैन मन्दिर न कमेटी कार्यालय मकान नं० ६६२ गन्दा नाला-(१) जैन मन्दिर गदर से पहिले का सब्जी मण्डी-(१) मन्दिर पार्श्वनाथ (बर्फखाने के पास) (२) आदिनाथ चैत्यालय (मन्दिर) (गली मन्दिर वाली में) स्त्री समाज शास्त्र सभा (३) श्री शान्तिसागर दि जैन कन्या पाठशाला (५वीं कक्षा) तक (४) श्री शान्तिसागर दि० जैन औषधालय (५) दि० जैन महावीर चैत्यालय (जमना मील में ) (६) जैन विद्यार्थी मण्डल (सभा) व पत्र कार्यालय (रोशनारा रोड पर ) मासिक भोगल (जंगपुरा) देहली से ४ मील दूर (१) चैत्यालय (जैन मन्दिर ) (२) जैन कन्या पाठशाला पटपड़गंज —देहली से ५ मील दूर (१) जैन मन्दिर ला० हरसुखराय जी का बनाया हुआ देहली शाहदरा--देहली ४ मील दूर गली मन्दिर वाली (१) जैन मन्दिर ला० हरसुखरायजी का बनाया हुआ, शास्त्र भंडार (२) जैन पाठशाला, (३) रघुबीरसिह जैन औषधालय कुतुब मीनार-देहली से ११ मील दूर-वहां खंभो पर जैन मूर्तियाँ खुदी हुई हैं लोहे की कीली के सामने जो दालान है ऊपर की मंजिल में तथा नीचे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) परिशिष्ट यात्रियों को सूचनायें १. यात्रियों को यात्रा में किसी के हाथ की वस्तु न खानी चाहिये और न प्रत्येक का विश्वास ही करना चाहिए। २. रेलवे स्टेशन पर गाड़ी आने के पहले पहुँच कर इत्मीनान से टिकिट ले लेना चाहिए और उसके न० नोट बुक में लिख लेना चाहिए। अपने सामान को भी गिन लेना चाहिए और कुली का नं० भी याद रखना चाहिए। ३. छूआछूत की बीमारियों से अपने को बचाते हुए स्वयं साफ सुथरे रहकर यात्रा करनी चाहिए। ४. बच्चों की सावधानी रखनी चाहिए-उन्हें खिड़की के बाहर नहीं मांकने देना चाहिए और न प्लेटफार्म या बाजार में छोड़ देना चाहिए । उनको जेवर नहीं पहनाना चाहिये। ५ अपने साथ रोशनी अवश्य रक्खें । साथ ही लोटा, डोर,चाकू ____छड़ी, छत्री आदि जरूरी चीजें भी रखें। ६. शुद्ध सामग्री और 'जिनवाणीसंग्रह' आदि पूजा स्तोत्र की पुस्तकें अवश्य रखनी चाहिये। ७. यात्रा में किसी भी प्राणी का जी मत दुखाओ । लूले लंगड़ों और अपाहिजों को करुणा दान दो । तीर्थोद्धार में भी दान दो। किसी से भी झगड़ा न करो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) ८. पर्वत पर चढ़ते हुए भगवान् के चरित्र और पर्वत की पवित्रता ___ का ध्यान रखना चाहिये। इससे चढ़ाई खलती नहीं है। १. ट्रेन में बेफिक्री से नहीं सोना चाहिये और न अपना रुपया किसी के सामने खोलना चाहिये । उसे अपने पास रक्खें । १०. साथ में मजबूत ताला रक्खें, जो ठहरने के स्थान में लगावें। ११. खाने पीने का सामान देखकर विश्वासपात्र मनुष्य से खरीदें । स्त्रियों और बच्चों को अकेले मत जाने दो । १२ यात्रा में बहुत सामान मत खरीदो; यदि खरीदो तो पार्सल से घर भेज दो। १३. यदि संयोग से कोई यात्री रह जाय तो दूसरे स्टेशन पर उतर ___ कर तार करना चाहिये; उसे साथ लेकर चलना चाहिए। १४, यदि किसी डिब्बे में अपना सामान रह जाये तो उस डिब्बे का नं० लिख कर तार करना चाहिये, जिस से अगले स्टेशन पर वह उतार लिया जाय । प्रमाण दे कर उसे वापिस ले लेना चाहिए। १५. किसी भी पंडे या बदमाश का विश्वास नहीं करना चाहिए। १६. कुछ जरूरी औषधियाँ और अमृतधारा, स्प्रिट, टिन्चर-: आयोडीन भी साथ रखना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થશોહિ ભાવનગ૨ ねたば Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com