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हैं । श्वेताम्बरीय 'उपदेशतरंगिणी' आदि ग्रन्थों से प्रगट है कि पहले यह तीर्थ दि० जैनों के अधिकार में था । श्वे० संघपति धाराक ने अपना क़ब्जा करना चाहा, परन्तु गढ़ गिरिनारके राजा खड्गार ने उसे भगा दिया था । खङ्गार राजा चूडासमासवंश के थे, जिन्होंने १०वीं से १६वीं शताब्दि तक राज्य किया था । वह दिगम्बर जैन धर्म के संरक्षक थे। उन्हीं के वंश में राजा मंडलीक हुये थे; जिन्होंने भ० नेमिनाथ का सुन्दर मंदिर गिरिनार पर बनवाया था । सुलतान अलाउद्दीन के समय में दिल्ली के प्रतिष्ठित दिग० जैन सेठ पूर्णचन्दजी भी संघसहित यहाँ यात्रा को आये थे । उस समय एक श्वेताम्बरीय संघ भी आया था। दोनों संघोंने मिलकर साथ-साथ वन्दना की थी । संक्षेप में गिरिनार का यह इतिहास है । दक्षिण भारत के मध्यकालीन दिगम्बर जैन शिलालेखों से भी गिरिनार तीर्थ की पवित्रता प्रमाणित होती है ।
तलहटी से लगभग दो मील पर्वत पर चढ़ने के पश्चात् सोरठ का महल आता है । यह चूड़ासमासवंश के राजाओं का गढ़ है । एक छोटी सी दिग० जैन धर्मशाला भी है । किन्तु सोरठ. के महल तक पहुँचने के पहले ही मार्ग में एक सूखा कुन्ड मिलता है, जिसके ऊपर गिरिनार पर्वत के पार्श्व में एक पद्मासन दि०. जैन प्रतिमा अति है । इस प्रतिमा की नासिका भग्न है । इस मूर्तिकी बगल में ही एक युगल - पुरुष व स्त्री की मूर्ति बनी हुई है और कमलनाल पर जिन प्रतिमा अति है । युगल संभवतः
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