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विराजमान की थी। आचार्य पात्रकेसरी ने यहीं जैनधर्म की दीक्षा ली थी। जैन धर्मानुयायी प्रसिद्ध गंगवंश के राजाओं के पर्वज सम्भवतः यहीं पर राज्य करते थे । अहिच्छत्र के दर्शन यात्रियों को कृतज्ञता ज्ञापन और सत्य के पक्षपाती बनने की शिक्षा देते हैं। यहां पर कोट के खण्डहरों की खुदाई हुई है, जिनमें ईस्वी प्रथम शताब्दी की जिन प्रतिमाएं निकली हैं। यहां पर विशाल दि० जैन मन्दिर है। चैत में मेला होता है।
मथुरा
आंवला से अलीगढ़-हाथरस जङ्कशन होते हुए सिद्धक्षेत्र मथुरा आये । यह महान् तीर्थ है । अन्तिम केवली श्री जम्बस्वामी संघ सहित यहां पधारे थे। उनके साथ महामुनि विद्य चर और पांचसौ मुनिगण भी बाहर उद्यान में ध्यान लगा कर बैठे थे । किसी धर्मद्रोही ने उन पर उपसर्ग किया; जिसे समभाव से सह कर वे महामुनि मोक्ष पधारे । उन मुनिराजों के स्मारकरूप यहां पांचसौ स्तूप बने हुए थे, जिन्हें सम्राट अकबर के समय साहु टोडर जी ने फिर से बनवाया था । समय व्यतीत होने पर वह नष्ट हो गये । वहीं पर स्तूप भ० पार्श्वनाथ के समय का बना हुआ था, जिसे 'देवनिर्मित' कहते थे। श्री सोमदेवसूरि ने उसका उल्लेख अपने 'यशस्तिलकचम्पू' में किया है। आजकल चौरासी नामक स्थान पर दि० जैनियों का सुदृढ़ मन्दिर है और वहां
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