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यहां का मुख्य मंदिर नष्ट हो गया । तब एक स्थानीय जमीदार पार्श्वनाथजी की प्रतिमा को अपने घर उठा ले गया और यात्रियों से कर वसूल करके दर्शन कराता था । सन् १८२० में कर्नल मैकेज्जी सा० ने अपनी आंखोंसे यह दृश्य देखा था । पर्याप्त यात्रियों
इकट्ठे होने पर राजा कर वसूल करके दर्शन कराता था । जो कुछ भेंट चढती वह सब राजा ले लेता था। पार्श्वनाथ की टोंक वाले मंदिर में दिगम्बर जैन प्रतिमा ही प्राचीनकाल से रही हैं । “ image of Parsvanath to represent the saint sitting naked in the attitude of meditation," — E. E. Risley; "Statisticial Aott. of Behgal XVI, 207 ff. अब दिगम्बर और श्वेताम्बर - दोनों ही सम्प्रदायों के जैनी इस तीर्थ को पूजते और मानते है ।
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ऊपरली कोठी से ही पर्वत - वंदना का मार्ग प्रारम्भ होता है । मार्ग में लंगड़े - लूले - अपाहिज मिलते हैं, जिनको देने के लिये पैसे साथ में ले लेना चाहिये । वंदना प्रातः ३ बजे से प्रारम्भ करना चाहिए। दो मील चढ़ाई चढ़ने पर गंधर्वनाला पड़ता है । फिर एक मील आगे ऊपर चढ़ने पर दो मार्ग हो जाते हैं। बांई तरफ का मार्ग पकड़ना चाहिये, क्योंकि वही सीतानाला होकर गौतमस्वामी की टोंकों को भी गया है। दूसरा रास्ता पार्श्वनाथ जी की टोंक से आता है । सीतानाला में पूजा की सामग्री धोलेना चाहिये । यहाँ से एक मील तक पक्की सीढ़िया हैं फिर एक मील
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